Sunday, October 9, 2011

फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....




फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....

पिछले दिनों पाकिस्तानी फ़िल्म बोल देखी, कई दिनों से बोलने की सोच रहा था, आखिर ये उकसाने वाली फ़िल्म है शौयब मंसूर की, जिसे उन्होंने लिखा भी और निर्देशित भी खुद किया..साहित्य समाज का दर्पण होता है और फ़िल्में समाज का अक्स, दुनिया में जैसे ड्रामे पाकिस्तान में लिखे जाते है शायद और कही नहीं लिखे जाते, उसकी वजह है कि वहां का लेखक अभी भी जमीन से जुडा है. दुनिया में सबसे भौंडी फ़िल्में अगर कहीं बनती हैं (तादात के मुताबिक) तो शायद भारत में क्योंकि यहां लेखक फ़िल्म लिखता ही नहीं जो फ़िल्म लिखता है वह लेखक नहीं है (आमतौर पर) लिहाजा विषय की गुणवत्ता और भारतीय हिंदी फ़िल्में एक दूसरे की तरफ़ कमर किये खडी हैं.
बोल फ़िल्म, इसका विषय-चयन और कहानी कहने का ढंग निराला है, हमारे यहां ऐसी विषयवस्तु १९७० के दशक तक फ़िल्मों में बहुदा देखी गयी, अभी पाकिस्तान को इसका सामना है, नया तबका हिल्लोरे ले रहा है और इस्लाम के नाम पर पुरानी रिवायतों को ज़िन्दा रखने की मशक्कत भी है. फ़िल्म एक हकीम और उसके परिवार की कहानी है जो १४ बच्चे पैदा करता है ६ जीवित बचते हैं सभी लडकियों में एक लडका है वह भी लडकियों जैसा जिसे किन्नर कहते हैं. बहनों की कोशिश है कि वह मर्द बने. पढाई- लिखाई में इस मज़हबी हकीम का कोई यकीन नहीं लिहाजा दर्जे ४-५ के बाद कोई स्कूल नही जाता, इस लडके को लोक लाज की वजह से स्कूल भी नहीं भेजते..बहनें इसे काम पर भेजने की कोशिश करती है तो बाहर समाज में लडकों से सेक्स के भूखे गिद्धों को ये "टाईट माल" लगता है सो मौका मिलते ही नौंच लेते हैं इसे. बाप को पता चलता है तो वह इस्तखारा देख कर; अल्लाह का हुक्म समझ कर, अपने बेटे की कत्ल कर देता है. इसी कशमकश में बडी लडकी जो तलाकयाफ़्ता है से, बाप के ताल्लुकात खराब हो जाते हैं और बेटी अपने बाप की हत्या का कारण बन जाती है.
जेल जाती है, फ़ांसी की सजा होती है क्योंकि वह अपना कोई बचाव नही करती, बस मरने से पहले अपनी कहानी मीडिया को सुनाती है और कहानी लौट लौट कर फ़ांसी के तख्ते पर जाती है.
शौयब मंसूर ने कई मसले बडे करीने से एक साथ गूंथ दिये, मुस्लिम समाज में हीजडों की जगह, मुस्लिम समाज में औरत का व्यवहारिक स्थान, मुस्लिम समाज में लडकियों की शिक्षा का स्थान, मुस्लिम समाज में तवायफ़ें और उनका स्थान...कई मसलों पर ये फ़िल्म सिर्फ़ बोलती नहीं बल्कि बेतहाशा चीखती है, आखिर चीखे भी क्यों नहीं? अल्लाह के नाम पर लगातार बच्चे पैदा करने वाले मुस्लिम समाज पर यह निश्च्य ही एक कडा प्रहार करती है और इस बेहूदा प्रचलन पर एक प्रश्नचिन्ह भी लगाती है. पाकिस्तान को इस्लाम के नाम पर बनाने वाले ठेकेदारों ने पिछले ६० सालों में आखिर आवाम को दिया भी क्या? कुछ भी तो नहीं...वही भूख, वही गैरबराबरी, वही बे इंसाफ़ी, वही मुख्तारा बाई के मसले..और साथ ही साथ हर साल बढता मज़हबी जुनून..बस पिछले ६० सालों में मुल्क में दाढियां बढी है या इधर उधर से जुगाड कर बनाया है बम. बाकि सारे सामाजिक और आर्थिक मसले जस के तस है, कहावत है कि कीचड में ही कवंल खिलते हैं..अभी तक कीचड ही कीचड देखी, बोल देख कर लगा कि कंवल भी जरुर खिलेगा, जिस दिन यहां कंवल खिला उसी दिन दुनिया के सबसे बडे झूठ-फ़रेब और सियासी बेइमानी से भी नकाब उठ जायेगा..जिसके बूते इस स्थान का नाम पाक (पवित्र) रखा मानो बाकी संसार अपवित्र हो, ये अलग बात है कि आज पाकिस्तान को बाहरी दुनिया सिर्फ़ अपनी अपवित्र हरकतों और अमल के नाम से ही जानती हो.
....फ़िल्म देखते हुये एक कमी खलती है, लगता है जैसे ड्रामा देख रहे हों, ठीक ऐसा ही "खुदा के लिये" देखते हुए भी लगा था, स्क्रीन प्ले पर अभी काम करने की बहुत जरुरत है, काश कि बजट भी बेहतर होता मंसूर के पास तो और खूबसूरत बन सकती थी फ़िल्म. शफ़क़त चीमा ने भडुवे का रोल ज़बरदस्त किया है बाकी हकीम की भूमिका में मंज़र सहबाई, इमान अली ने तवायफ़ और हुमैमा मलिक ने मेन लीड, बडी लडकी के रोल में अच्छा काम किया है.आतिफ़ असलम बस चाकलेटी हीरो है, उनके रोल में कोई गुंजाइश भी नहीं थी.एक बार जरुर देखने के लायक है ये फ़िल्म, कई बार रुलाती है और पीछे छोड़ती है सुलगते सवाल, जिन पर तवज्जो देने की फ़ौरन ज़रुरत है.

छाया संकलन" गूगल

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