उर्दू:
जहरीला तिलिस्म-हसीं ख़्वाब
(२१ फ़रवरी,बंगलादेश शहीदी दिवस/ अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा
दिवस पर विशेष)
उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत पसंद की जाने वाली
जुबानों में से एक है जिसका अभुदय भारत में
मुस्लिम शासन के लगभग ८०० सालों की हकुमत के दौरान हुआ, मुस्लिम हकुमत के अंतिम
१००-१५० सालों में (१८०० के आते आते और उसके बाद) इसका प्रचार प्रसार लेखन में अभिव्यक्ति
के बतौर इतिहास में दर्ज किया जाने लगा. मुस्लिम हकुमत के दौरान मध्य एशिया के विभिन्न
देशों से आये सैनिकों जिनमें तुर्क, मंगोल, इरान और अरब के सैनिकों की संख्या अधिक
थी, इन्हीं अहम नस्लों की फ़ौजी छावनी में एक मिश्रित भाषा अपने सहज-मानवीय व्यवहार
के दौरान बनी जिसका नाम उर्दू है. उर्दू ज़ुबान को छावनी से निकल कर महल और सत्ता के
गलियारों से संबंध रखने वाले समाजी तबके में अपना असर महसूस कराने में काफ़ी वक्त भी
लगा और मेहनत भी. ज़ाहिर है मुग़लिया हकुमत के दौरान फ़ारसी ही राज्य भाषा थी जिसके समानान्तर
या यूं कहें कि इसकी छत्रछाया में उर्दू ने अपने पैरों पर चलना सीखा. यह कहना ऐतिहासिक
रुप से सच नहीं होगा कि उर्दू शुद्ध रुप से भारतीय भाषा है या इसका मुसलमानों से कोई
वास्ता नहीं. यह भाषा शुद्ध रुप से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के आगमन के पश्चयात
ही विकसित हुई जिसमें कालान्तर में देवनागरी के शब्दों का प्रचलन-संमिश्रण भी वैसे-वैसे
बढ़ा जैसे-जैसे इसका असर और रसूख समाज के दूसरे इदारों में बढ़ा और इसे समाजिक स्वीकृति
मिली.
ज़ाहिर है, उर्दू का विकास क्योंकि छावनी में हुआ और
उसका फ़ैलाव सत्ता से जुडे सामाजिक तबके में ही हुआ लिहाज़ा यह जन भाषा कभी नहीं बन सकी.
राजा के दरबार में साहित्य, काव्य अथवा राजा से जुडे उसके मनसबदार, नवाब, सूबेदार,
फ़ौज के अफ़सर, शासन चलाने वाले हाकिम, मालगुज़ारी वसूलने वाले और ज़मीनदारों के बीच ही
इसका प्रचलन बढा. सामंती समाज में इसी तबके के पास पढ़ने लिखने, काव्य और मौसिकी के
लिये वक्त था तब इनके मानसिक मनोरंजन या विलासिता के लिये जिस बाज़ार का निर्माण तत्कालीन
समाज में हुआ उसे उर्दू से पूरा किया. जाहिर है इस तबके को स्थानीय भाषा अथवा उसके
कवियों से उस सुख की अनुभूति स्वभाविक रूप से नहीं मिल सकती थी जिनका खून उन्हें चूसना
था...जिनसे उन्हें लगान वसूलना था या जिन पर उन्हें शासन करना था. भला ब्रज भाषा, भोजपुरी,
अवधि, खड़ी बोली में उनकी सत्ता के मद का रस भला कैसे व्यक्त किया जा सकता था? स्थानीय
भाषाओं का दर्द उनके वर्गीय चरित्र के अनुरूप था जबकि मलाईदार सामंती-कुलीन तबकों को
अपनी मानसिक संतुष्टी (ऐय्याशी) के लिये जिस सुरमई फ़ाहे की जरुरत थी, वह रुहानी फ़ाहा
फ़राहम कराने का काम उर्दू भाषा ने पूरा किया, इसके मिठास पर चर्चा करने वाले, उस पर
रात-दिन एक करने वाले अदीब भारतीय इतिहास के इस करुणामय तथ्य को भूल जाते हैं कि आम जनता के लिये उस कठिन
समय में इस मिठास का लुत्फ़ लेने वालों के हाथ कोहनियों तक और पैर घुटनों तक खून में
रंगें हैं. ज़मीन पर विदेशी हुकमरानों का कब्ज़ा हुआ था, जिनकी ज़मीनें थी वही देशज भाषी
जोतदार-गुलाम बनें और उर्दू बोलने वाले उनके राजा, हाकिम- लगान वसूलने वाले बने. निसंदेह
उर्दू का इतिहास बताने वाले इस भाषा के कुलीन-सामंती चरित्र पर हमला किये बगैर ही इसका
महिमामंडन यदि करते हैं तब उनके वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन करना जरुरी होगा. दूसरी
एक वजह, इस भाषा का मुसलमानों से संबंधित होने के कारण इसके राजनैतिक रुप से संवेदनशील
होना भी है जिसके चलते इस भाषा के वर्गीय चरित्र पर ऐतिहासिक मीमांसा ऐसे नहीं हुई
जैसी होनी चाहिये थी. इतिहास के किसी क्रम और उससे जुडे़ अनाचार को भुलाकर किसी भाषा
की समीक्षा करना न केवल एकांगी कृत्य होगा वरन यह इतिहास के साथ निर्मम धोखाधड़ी भी
होगी. भारत के संदर्भ में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, संस्कृत, पाली, अवधि, ब्रज,
तामिल, तेलगू आदि से लेकर उर्दू तक हमें इन भाषाओं के वर्गीय चरित्र और इनके सामाजिक
आधार की समीक्षा जरुर करनी होगी तभी हम किसी
न्यायसंगत नतीजे पर पहुँचा सकते हैं.
सामंती चरित्र की विशेषतायें विलक्षण हैं, सामंत अपना
घर, अपनी बैठक, खेत खलिहान, पेड़ पौधे, खाना-पीना, कपडे, तलवार, हत्यार, बैंत, जूती,
धर्म, संस्कार, तौर-तरीके, मूंछ का बाल, यहां तक की नाई-धोबी-लोहार-दर्जी आदि पर ही
न केवल अपनी दबंगई छाप छोड़ता है बल्कि उससे भी अधिक उसे अपनी भाषा पर घमंड होता है.
सामंती सोच की इस कमजोरी को, या यूं कहें कि इस लक्षण को उर्दू ने बखूबी अपने काम में
लगाया. इस भाषा ने, न केवल भारत के सामंती तबके की वैचारिक नज़ाकत को प्रश्रय दिया बल्कि
इस वर्ग के साथ खुद को जोड़ कर अपनी विशिष्टता बनाये रखने में भी कामयाब हुई. नवाब-सामंत-हाकिम
भी इससे संतुष्ट था कि उसकी ज़ुबान की नज़ाकत सिर्फ़ उसे ही समझ में आती है. आम कामगार,
खेत मज़दूर अथवा श्रमिक उसकी भाषा से अनभिज्ञय है, इससे उसके व्यक्तिगत दंभ को भी बल
मिलता. यह दंभ दोनों को एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने में मददगार साबित हुआ, लिहाज़ा उर्दू
भारत के मुस्लिम शासक वर्ग की ज़ुबान बन गयी जबकि ज़मीनी स्तर पर जनता की ज़ुबान इलाकाई
भाषायें ही रही, लेकिन मुसलमान शासक वर्ग दिल्ली, कलकत्ता, मैसूर, हैदराबाद जैसे दूरस्थ
स्थानों पर भी एक ही ज़ुबान मज़बूती से बोलता दिखा.
भारत पर अंग्रेज हकुमत के दौरान और उससे निजात पाने
की जुस्तजु यानि आज़ादी की लडाई के दौरान उर्दू के सामंती चरित्र पर थोड़ी चोट लगी. आज़ादी
की लडाई लड़ रहे सैनानियों जिसमें मुसलमान तबका भी शामिल था; अब आम जनता से बातचीत
करने को तैयार दिखा, लिहाजा उर्दू की किताबें, इश्तहार और देशभक्ति के तरानों के माध्यम
से उर्दू किसी हद तक आम जनता के घरों में आ पहुंची. हिंदी- हिन्दु- हिन्दुस्तान जैसे
नारे का चलन १९२०-३० की दहाई से शुरु हो जाने के कारण उर्दू को मुस्लिम और हिन्दी को
हिन्दू जैसे सख़्त लबादे ओढ़ने पर मजबूर होना ही था. धर्म के आधार पर जंगे आज़ादी की लडाई
जब तकसीम हुई तब उर्दू को मुकम्मिल तौर पर मुसलमानों के आंगन तक ही सिकुडना था जोकि
तर्कसंगत भी था. दार्शनिक, लेखक, कवि इकबाल ने मुसलमानों को एक मुक्कमिल राष्ट्र की
अवधारणा के रूप में व्याखित कर ही दिया था, मौहम्मद अली जिन्नाह ने इसी आधार पर द्विराष्ट्र
सिद्धांत की रचना की और एक स्वतंत्र मुसलमान राज्य की स्थापना करने में जुट भी गये,
१९४४ में गांधी को लिखे एक पत्र में जिन्नाह ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते
हुए कुछ यूं कहा, " हम १० करोड़ लोगों के एक मुकम्मिल राष्ट्र हैं, हम अपनी विशिष्ट
संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, भवन निर्माण कला, नाम,
उपनाम, मूल्याँकन की समझ, अनुपात, कानून, नैतिक आचार संहिता, रिवाज, कलैण्डर, इतिहास,
परंपरा, नज़रिया, महत्वकाँक्षाओं के चलते एक राष्ट्र हैं. संक्षेप में हमारा इंसानी
जीवन पर और जीवन के बारे में एक विशिष्ट नज़रिया है लिहाजा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नियम
कायदे कानूनों के मद्दे नज़र हम एक राष्ट्र हैं." (जोर हमारा) इस व्यक्तव्य से
भाषा के महत्व और उसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.
१९२४ में भगत सिंह द्वारा लिखे एक महत्वपूर्ण लेख (पंजाबी
की भाषा और लिपि की समस्या) से यह पता चलता है कि उर्दू-पंजाबी भाषा में टकराव पंजाब
में काफ़ी पहले से था, पंजाबी की लिपी क्या हो इस प्रश्न को लेकर ये दोनों समुदाय आमने
सामने थे, इस लेख का उद्धर्ण यहाँ प्रासंगिक होगा, भगत सिहं लिखते हैं- "पंजाब
की भाषा अन्य प्रांतों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिये थी, फ़िर क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न
अनायास जी उठता है, परन्तु यहाँ के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया. मुसलमानों में भारतीयता
का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्व न समझकर अरबी लिपि
तथा फ़ारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं. समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिंदी होने
का महत्व उन्हें समझ में नहीं आता. इसीलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक
ओर बैठ गए." उर्दू के मुसलमान अलमबरदारों की व्याख्या करते हुए वह इसी लेख में
आगे अत्यंत सारगर्भित आंकलन करते हुए लिखते
हैं.
"वे उर्दू के कट्टर पक्षपाती है. इस समय पंजाब
में इसी भाषा का जोर भी है. कोर्ट की भाषा भी यही है, और फ़िर मुसलमान सज्जनों का कहना
यह है कि उर्दू लिपि में ज़्यादा बात थोड़े स्थान पर लिखी जा सकती है. यह सब ठीक है,
परन्तु हमारे सामने इस समय सबसे मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है. एक राष्ट्र
बनाने ले लिये एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता. उसके लिये कदम-कदम
चलना पड़ता है. यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना
देनी चाहिए. उर्दू लिपि तो सर्वांगसम्पूर्ण नहीं कहला सकती, और फ़िर सबसे बडी बात तो
यह है कि उसका आधार फ़ारसी भाषा पर है. उर्दू कवियों की उड़ान, चाहे वे हिंदी (भारतीय)
ही क्यों न हों, इरान की साकी और अरब की ख़जूरों को ही जा पहुँचती हैं. काज़ी नज़र-उल-इस्लाम
की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, परन्तु हमारे
पंजाबी हिंदी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके. क्या यह दु:ख की बात नहीं? इसका
प्रमुख कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है. उनमें भारतीयता आ ही
नहीं पाती, तो फ़िर उनके रचित साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं? केवल उर्दू
जैसी साहित्यिक भाषा मे उन ग्रंथों का अनुवाद नहीं हो सकता, परन्तु उसमें ठीक वैसा
ही अनुवाद हो सकता है, जैसा कि एक ईरानी को भारतीय संबंधी ज्ञानोपार्जन के लिये आवश्यक
हो"
उर्दू के तत्कालीन समाचार पत्रों पर टिप्पणी करते हुए
वह लिखते हैं.
"उर्दू के कट्टरपक्षपाती मुसलमान लेखकों की उर्दू
में फ़ारसी का ही आधिक्य रहता है. "ज़मींदार" और "सियासत" आदि मुसलमान-
समाचार पत्रों में तो अरबी का जोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता.
ऐसी दशा में उसका प्रचार कैसे किया जा सकता है? हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी
अपने मज़हब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जायें जैसे कि कमाल टर्क हैं. भारतोद्धार
तभी हो सकेगा. हमें भाषा आदि के प्रश्नों को धार्मिक समस्या न बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण
से देखना चाहिये".
भगत सिंह के उपरोक्त कथन और भाषा संबंधी मीमांसा, खासकर
उर्दू और उसके पैरोकारों के संदर्भ में एक
सशक्त समझ को रेखांकित करती है जिससे तत्कालीन समाज और राजनीति में भाषा के प्रश्न
से जुड़े तापमान को भलिभांति भांपा जा सकता
है. भारत की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू के लिये हुए संघर्ष को समझने के
लिये हमें पाकिस्तान के इतिहास को ही टटोलना होगा. पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा उर्दू
ही होगी, यह पहले ही मुस्लिम लीग ने स्पष्ट कर दिया था लेकिन भविष्य में इस प्रश्न
को लेकर कितना गंद-गुबार छिपा है इसे कौन जानता था? बंटवारे से पहले जिन्नाह १० करोड़
मुसलमानों के स्वयंभू नेता थे, लेकिन जो पाकिस्तान उन्हें मिला, दुर्भाग्य से उसमें
अधिसंख्यक ४.५ करोड़ बंगाली मुसलमान थे जिन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से बेहद प्यार
था. जो तर्क जिन्नाह ने भारत के बंटवारे से पहले अपने लिये दिये थे, उन्हीं तर्कों
के आधार पर बंगाली समाज अपने हिस्से का "पाउण्ड आफ़ फ़्लेश" मांग रहा था जिसे
मुस्लिम लीगी सामंती नेतृत्व अपने दंभ के चलते
देने को तैयार नहीं था. नवनिर्मित पाकिस्तान में बंगाली मुसलमानों का बहुमत होते हुए
भी इसके दंभी नेतृत्व ने उर्दू को राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया. पृथ्वी पर बने पहले
नवजात मुस्लिम राष्ट्र को सबसे पहले भाषा के सवाल पर ही चुनौती झेलनी पडी. पूर्वी पाकिस्तान
(ईस्ट बंगाल) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर वह गहरे विक्षोभ में
डूब गया, इसी विरोध के मद्दे नज़र जिन्नाह ने ढाका विश्वविद्यालय के लार्ड कर्जन हाल
में २१ मार्च १९४८ को अपने भाषण में कहा:
"मुझे आपके सामने यह स्पष्ट कर देना है कि पाकिस्तान
की राष्ट्र भाषा उर्दू होगी. जो भी इस संदर्भ में आपको गुमराह करने की कोशिश करेगा
वह असल में पाकिस्तान का दुश्मन है. बिना एक राष्ट्रीय भाषा के कोई भी देश मजबूती के
साथ एकजुट नहीं रह सकता और न ही कार्य कर सकता है. दूसरे देशों का इतिहास देखो इसीलिये
जहाँ तक पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा का प्रश्न है, वह उर्दू ही होगी"
पूरा हाल इस
व्यक्तव्य के बाद "नो" से गूँज गया, राष्ट्र पिता (क़ायदे आज़म) जिन्नाह को
अपने ही नौनिहाल देश में यह पहले सार्वजनिक विरोध और उसकी नीतियों को इंकार का सामना
था. सितंबर ११,१९४८ को जिन्नाह की मृत्यु के बाद लियाकत अली ख़ान ने अपने भरपूर सामंती
स्वरुप में उर्दू की वकालत जारी रखी जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप बंगाली मुसलमानों में
बंगाली भाषा के लिये मोह भी साथ-साथ बढ़ता गया. पाकिस्तानी हुकमरानों ने इस विवाद से
निपटने के लिये एक भाषा समिति भी बनायी जिसकी वाहियात सिफ़ारिशें गुप्त रखी गयी. बंगाली
भाषा को सार्वजनिक रुप से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बता कर (क्योंकि
उसका आधार संस्कृत है) उसका शुद्धिकरण करने जैसी तकमीलें निकाली गयी. रवीन्द्र संगीत,
नज़रुल गीती को हिंदु संस्कृति का वाहक घोषित किया गया जिसके चलते गैर-मुस्लिम बंगाली
समाज में भी असुरक्षा का भाव लगातार गहराता गया. भाषा के मसले पर सभायें, धरना प्रदर्शन
होने से लगातार बंगाल का राजनैतिक माहौल गर्माता रहा जिसे उर्दू के पैरोकारो-सामंतो-नेताओं
ने पाकिस्तान के विरुद्ध चल रही साजिश बताया. इसी महौल में २१ फ़रवरी १९५२ को ढाका में
एक प्रदर्शन के दौरान पाकिस्तान हकुमत ने गोली
चला दी जिसमें सैंकडों जख्मी हुये और विश्वविद्यालय के चार छात्रों की मौत हुई जिनके नाम रफ़ीक, जब्बार,
सलाम और बरक़त थे. इस घटना को बंगलादेश के इतिहास में "एकुशे" त्रासदी के
नाम से जाना जाता है, इन्हीं चार लोगों की स्मृति में ढाका की शहीद मिनार बनायी गयी
और इन्हीं चारों शहीदों को बंगाल राष्ट्र के अग्रज नेताओं के रुप में आज भी जाना जाता
है. १९५२ से लेकर १६ दिसंबर १९७१ के १९ वर्षों के इतिहास में वेस्ट पाकिस्तान को बंगाल
पर एक औपनिवेशिक ताकत और उनके ज़ुल्मों सितम में कोई ३० लाख बंगालियों की हत्यायें इसी
उर्दू अदब के प्रेमियों, दंभियों, फ़ासिस्ट ताकतों ने अपनी नाजाएज़ संतान जमाते इस्लामी
जैसे संगठन, फ़ौज, पुलिस, खुफ़िया इदारों आदि के जरिये करवायी. उर्दू भाषी अल्पसंख्यक
होते हुए भी, अपने अहंकारी-दंभी संस्कारों के चलते पूरे पाकिस्तान पर इस भाषा को थोपने
का नतीजा यह हुआ कि अपने जन्म के कुल २४ वर्ष के भीतर इसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ
धोना पडा. इन २४ सालों में यदि बंगाली समुदाय का संसद, फ़ौज, सरकारी नौकरियाँ, पुलिस
आदि में अनुपातिक प्रतिनिधित्व देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी पाकिस्तान
के हुकमरान इन्हें कितने संदेह की दृष्टि से देखते थे. भाषा के साथ-साथ ईस्ट बंगाल
से जुडे अन्य राजनैतिक प्रश्नों/कारणों पर यहाँ टिप्पणी करना न तो प्रासंगिक है न ही
यथोचित होगा. आज़ाद बंगलादेश के लिये ऐकुशे फ़रवरी एक राष्ट्रीय पर्व बन गया है, राष्ट्र
भक्ति और बंगला भाषा के प्रेम से ओतप्रोत कई मधुर काव्यरचनायें की गयी हैं, हर साल
उन चारों शहीद छात्रों को भावभीनी श्रद्धांजलि पूरे बंगला देश वासियों द्वारा अर्पित
की जाती है.
भारत में उर्दू भाषा का चरित्र मूलत: कुलीन वर्गीय ही
रहा, खासकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारतीय मुस्लिम
सामंतों, नवाबों और मध्य-उच्च वर्ग के मुस्लिम
बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम देना था (सर्व साधारण मुसलमानों के लिये नहीं) लिहाज़ा वहां
तालीम लेने गये कुलीन मुस्लिम नौजवानों ने इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को भलि भांति निभाया.
इसी विश्वविद्यालय के पढ़े सूरमाओं के एक बड़े वर्ग ने सबसे पहले उसी मुल्क को तोडने
का वैचारिक आधार पैदा किया जहां वह पले बढ़े, आज भी यह विश्वविद्यालय उन देश भंजक कवियों
और उर्दू भाषा के नाम पर सीना ठोक ठोक कर दंभ मारने वालों के कसीदे पढ़ने में कोई कोताही
नहीं बरतता बल्कि उनके लिये सालाना जलसों का आयोजन भी होता है.(ज़रा भगत सिंह के व्यक्तव्यों
को यहां फ़िर दोहरायें- आज भी उतने ही सार्थक हैं) इसी विश्वविद्यालय के पढ़े दानिश्वरों
ने पाकिस्तान में जुबान को मज़हब से जोड़ने वाली अमरनाल की संचरना की जिसके चलते, न केवल
भाषा को ही नुकसान उठाना पडा बल्कि पूरे इतिहास को सिरे से खारिज करने की मंशा में
एक पूरी पीढी को विषाक्त किया जिसे अपने अतीत के सही अर्थों का मान नहीं रहा और न ज्ञान.
आज इन्हीं उर्दू के दंभियों द्वारा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाने वाली पंजाबी
ज़ुबान जिसकी पैदाइश भारतीय है, उसकी नयी लिपि फ़ारसी-अरबी के आधार पर विकसित की जा रही
है. जिस विषैली मानसिकता के चलते उन्होंने बंगला भाषा के शुद्धीकरण का प्रयास १९५०
के दशक में किया था, उसी दूषित मानसिकता के चलते पंजाबी की इबारत लिखने में ,उल्टे
हाथ से शुरु करने और उसका गुरुमुखी प्रभाव समाप्त कर उसे अरबी-फ़ारसी लिपि देने से साफ़
स्पष्ट हो जाता है कि ये किस मानसिकता से ग्रस्त तबका है. उर्दू से जुड़े मज़हबी कूपमंडूपों
के चलते पाकिस्तान में आज भी कोई प्रोफ़ेशनल कोर्स (डाक्टरी, इंजीनियरिंग, कम्प्युटर
साईंस आदि) उर्दू भाषा में नहीं पढाया जा सका और न ही इसकी वैज्ञानिक शब्दावली विकसित
हो सकी जबकि रुस, चीन, जापान, जर्मनी जैसी और कई मिसालें इतिहास में मौजूद थी. इन देशों
ने अपनी मादरी ज़ुबान में विज्ञान, दर्शन, गणित जैसे विषय पढ़- पढ़ा कर दिन दूनी रात चौगुनी
तरक्की की थी, उर्दू के कंधे पर बैठ कर पाकिस्तान द्वारा यह सफ़र आसानी से तय कर लिया
जाना चाहिये था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ, बल्कि हुआ इसके विपरीत, अज़ादी से
पूर्व अगर कुछ चुनिंदा अदीबों को लें (इकबाल, फ़ैज़, अहमद अली, इब्ने इंशा, फ़राज़ आदि)
जिनका उर्दू ज़ुबान में अपना मुकाम है तो वह इस लिये नहीं कि उन्होंने इस भाषा का ज्ञान
अर्जित किया, वरन इसलिये कि इन दानिश्वरों ने दुनिया भर की दूसरी ज़ुबानों (खासकर अंग्रेज़ी,जर्मन)
में फ़ैले पड़े ज्ञान को इकठ्ठा करके उर्दू के पाठकों में बांटा और उन्हें संवर्धित किया. समकालीन पाकिस्तानी दानिश्वरों की फ़ेहरिस्त में
मुझे ऐसा कोई नाम नहीं दिखाई देता जिसने सिर्फ़ उर्दू के बूते पर कोई किला फ़तह किया
हो, क्या डा. अब्दुस सलाम को भौतिकी का नोबिल पुरुस्कार इसके लिये मिला? परवेज़ हूदभाई,
अब्दुल कादिर, आयशा सिद्दिका, अकबर स. अहमद, तारिक फ़ातेह, तारिक अली जैसे अंतरार्ष्ट्रीय
ख्यातिप्राप्त पाकिस्तानी विद्वानों की जहनी और तालीमी बुनियादों में उर्दू की भूमिका
तलाशना भुस के कोठे में सूईं ढूँढ़ने जैसा है और इस तर्क पर कोई मूर्ख ही यकीन करेगा
कि आज इस युग में ज्ञान के शिखर पर पहुँचने के लिए उर्दू भाषा को उसके अनुगामियों ने किसी ऐसे मुकाम
पर पहुँचा दिया है कि उससे गुज़रे बिना यह संभव नहीं.
यह, भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों
की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पड़ी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें
खायी थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बायें बाजु के इन तमाम दानिश्वरों, शायरों,
अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दी है. १९४३ में भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी (अधिकारी लाईन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर
खुली मान्यता दी और बाकायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिये भेजा गया,
सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेट्री भी बने, उनके बाद
फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने
जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मकसद से नहीं हटे.
दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बड़ा ज़मीनी
आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी कुलीन-सामंती निज़ाम,
ज़ुबान, उसूलों और रस्मों-रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी
की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से ’किताबी और काफ़ी इंकलाब’ पाश कालोनी के कुछ मकानों में तो जरुर हुआ लेकिन
सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरुस्कार
जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ तो हासिल हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस इन्हें न मिल सका. आज भी
कमोबेश यही हकीकत हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान
के शायर/लेखक टेलीवीज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते
तो देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकाण्ड आदि पर
जावेद अख्तर-गुलज़ार कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहा अरुंधति राय उन्हें पटखनी देती
नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी
सड़क पर उतरे जबकि उसके कातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से किसी कौमी हीरो जैसा सम्मान
मिला.
उर्दू का भविष्य पाकिस्तान में भी दिन ब दिन अंधेरे
की गर्त में घुसता प्रतीत हो रहा है, जिन हालात से पाकिस्तान आज बावस्ता है उसे देखते
हुए यह कहा जा सकता है कि ये मुल्क एक बार फ़िर टूटन के कगार पर है. अमेरिका की मौजूदगी,
उसके साथ टकराव और पाकिस्तानी समाज के मूलभूत आंतरिक अंतर्विरोध उसे फ़िर तोड़ से दें
तो ताज़्ज़ुब न होगा. बलोचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद स्वाभाविक रूप से पंजाब, सिंध
अपनी अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ़ तेज़ी से बढ़ेगें जैसे नार्थ वेस्ट प्रोविन्स में पठान
बढे़ हैं, इस राज्य में पश्तु ज़ुबान राज्य भाषा हो ही चुकी है, पंजाबी अपनी ज़ुबान लेंगे,
सिंधी अपनी और बलोच अपनी ही भाषा को महत्व
देंगे...बचे मुहाजिर, जिनकी हकीकत से आज पूरी दुनिया दो चार है, उनका नेता अल्ताफ़ हुसैन लंदन में बैठा तकरीरे करता है और दिल्ली
में आकर मुहाजिरों की ख़ता माफ़ करने और उन्हें वापस हिंदुस्तान में पनाह देने की ख्वाईश
का ऐलान पहले ही कर चुका है, ऐसे हालात में उर्दू का यह डगमगाता जहाज़ कितनी दूर और आगे परवाज़ करेगा यह कहना
अभी मुश्किल है लेकिन कयासा लगाया ही जा सकता है.
भारत में उर्दू ज़ुबान पर मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं
ने अपनी रोटियाँ सेक-सेक कर इसे शुद्ध रुप से सांप्रदायिक प्रश्न बना दिया है, जितना
प्रचार उर्दू के नाम पर किया जाता है उससे अधिक गति से "हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान"
शहर, कस्बों और गांवों की दीवारों पर पुता दिखाई देता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र,
तमिलनाडू (मद्रास) आदि जगह ज़मीनी स्तर पर उर्दू
के प्रचार-प्रसार के संजीदा काम हुए हैं, मदरसों से पढे हुए छात्र आमतौर पर धार्मिक
इदारों में ही खप कर रह जाते हैं जिनका व्यापक समाज के हित में कोई रचनात्मक भूमिका
न के बराबर है, लेकिन सियासी मसले पर यह तबका आंदोलित होकर जब सड़क नापता है तब उसकी
प्रतिक्रिया आवश्यक रुप से ज़बरदस्त होती है. मदरसे में मिली तालीम का उद्देश्य भी मात्र
उर्दू के विस्तार, प्रचार के लिये नहीं हुआ वरन अरबी भाषा की प्रास्तावना रचने के लिये
उर्दू भाषा को सिखाना अनिवार्य समझा गया ताकि इस भाषा में रचा मज़हबी साहित्य छात्रों
को पढ़ाया जा सके, इसका मूल मकसद भी इस्लाम की तालीम, जिसे अरबी भाषा के बिना अधूरा
माना जाता है, के लिये ही किया गया. मदरसा चलाने वाले तबके का चरित्र मियां जी, शेख
जी, खां साहबों आदि की जूतियों की हिफ़ाज़त करना ही अधिक रहा है क्योंकि इन्हीं के चंदे
की बुनियाद पर मदरसे चलते हैं और यदा कदा जब भी खां साहब, शेख जी, मियाँ जी को इनके
सियासी समर्थन की जरुरत होती तब मदरसे के उस्ताद से लेकर तालीबे इल्म तक सब सड़क पर
आते, उर्दू के प्रश्न पर इस तबके का सियासी इस्तेमाल भारतीय उपमहाद्वीप में अफ़गानिस्तान
से लेकर बंगलादेश तक पिछले १०० सालों में बहुत कायदे से देखा जा सकता है. अशरफ़ मुसलमानों
के इस राजनैतिक चरित्र की व्याख्या अलग से की जानी चाहिये, चाहे उर्दू का प्रश्न हो
या पाकिस्तान का, इस अल्पसंख्यक तबके ने अपने मुफ़ाद के लिये बहुसंख्यक मुसलमानों का
ज़बरदस्त सियासी, समाजी और ज़हनी इस्तेमाल (शोषण) किया है. भाषा हो या मज़हब, समाज के
ज़हन में अलगाव की बुनियाद डालने का काम सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी अशरफ़ तबके ने किया है जिसका
खमियाज़ा सबसे ज़्यादा अजलफ़ मुसलमानों को भुगतना पड़ा है.
मज़हब की आड़ में चला भाषा का अस्त्र, भारतीय उपमहाद्वीप
में प्रतिगामी शक्तियों का एक अभेध अस्त्र साबित हुआ है, इसे धर्म के साथ जोड़ कर प्राय:
तमाम तर्क और विवेक की रोशनियों को अपने क्रूर इरादों के कठोर पैरों तले कुचलने के
प्रयास किये गये हैं. ये प्रतिक्रियावादी ताकतें यह भूल जाती हैं कि मानव इतिहास के
क्रम में, इंसान ने कई बार अलग अलग भाषाओं का चोला ओढ़ा है, देशकाल के प्रभाव में धर्म,
भाषा, संस्कार आमतौर पर आते-जाते रहे हैं लेकिन फ़िर भी इंसानी जीवन की किलकारियाँ पृथ्वी
के कोने-कोने पर घटित हुई, इंसान ने बार-बार मिट कर फ़िर-फ़िर फ़ुदकना, चहकना, बोलना शुरु
किया, यह सिलसिला अभी थमा नहीं है. यह कोई जरुरी नहीं कि जो आज बहुत अपना है, कल लुप्त
न होगा? प्रतिकूल परिस्थितियों में सिर्फ़ वही बचेगा जिसमें बदलते माहौल के मुताबिक
खुद में बदलाव करने की क्षमता होगी. काश पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपने अंहकार के
चलते उर्दू को राजकीय भाषा बनाने से पहले किसी प्रकार का जनमत संग्रह करा लिया होता
और वही करते जिसे जनता अपना मत देती, तब इतिहास आज कुछ और ही होता. निसंदेह वह उस भाषा
के हामियों से मात खा गये जिसका पहला उपन्यास " करुना ओ फुलमोनिर बीबारन"
१८५२ में लिखा गया था जबकि उर्दू में डिप्टी नज़ीर अहमद का लिखा पहला नाविल सौलह साल
के बाद -" मिरत अल उरुस" १८६८ में छपा. दंभ इंसान को सच नहीं देखने देता,
अक्सर उसे मुँह की खानी पड़ती है, यही कडुवा सबक इतिहास ने हमें सिखाया है, अफ़सोस कि
आज भी कुछ लोग उसी मज़हबी, ज़हनी कैफ़ियत से दो चार हैं जिसका प्रदर्शन १९५२ में देखने
को मिला था, परन्तु इतिहास इन्हें फ़िर पहले
से भी अधिक कडुवा सबक सिखाने के लिये सीना ताने खड़ा है.
उर्दू भाषा को सच्ची राह और दिशा हिंदुस्तान के गली
कूचों से ही मिलेगी, इस भाषा का प्रचार जितना जड़ों में होगा उतना ही इसके सिर से सामंति
बोझ कम होगा, जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस और सहज होगी. (गांधी ने जिस भाषा
को "हिंदुस्तानी" नाम दिया था- वह यही थी) जब-जब इसे महारानी बना कर पेश
किया जाता रहेगा तब-तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साजिशें होंगी,
इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, जिस दिन यह
दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का जिम्मा स्वत: सभी ले लेंगे (आज
भी इस सोच के लोग है जो इसी जज़्बे के चलते इसे न केवल सम्मान देते हैं बल्कि उसे अपने
कुनबे की समझ कर इसकी सेवा करते हैं), सभी इसकी सेहत का, दाने-पानी का, इसके मिलने
जुलने वालों को वही तवज्जों देंगे जैसे बहनों को मिली है, उन्हें दी जाती है, इसे भी
दी जायेगी..शर्त यह है कि इसे महारानी के दंभी तख्तोताज़ से उतरना होगा जहां इसे नाजायज़
तरीके से कुंठित, दूषित, मानसिक तौर पर दिवालिया सियासी लोगों ने जबरन बैठा दिया है.
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शमशाद इलाही शम्स
टोरोंटो, कनैडा
2 comments:
बेहतरीन वैज्ञानिक विश्लेषण।
Lekh se kaafee jaankaaree milee..
Urdu ke liye meree sahaanubhooti aur bhee badh gayee, kyonki jo ghalatiyaan kee gayeen woh Urdu ka durupayog karne waalon kee theen, Urdu ko bandhak banaanewaalon kee theen.. Urdu kee naheen.. Hindustaanee geeton, ghazalon, qawaaliyon kee is bhaasha ka jeevant rahna zarooree hai. Yeh hamaaree dharohar hai.
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