Saturday, May 26, 2012

भटकल सेंड्रोम से ग्रस्त भारतीय शिक्षित मुस्लिम समाज



१३ जौलाई २०११ भारत में आतंकी कार्यवाही का एक बदसूरत पन्ना है, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में इस दिन एक के बाद एक कई धमाके हुए थे, २७ निरिह, निर्दोष जानें गयीं- कोई १५० राहगीर घायल भी हुए. मुंबई ए टी एस ने अब यह केस क्रैक करने का दावा अपनी ४८०० पेजों की चार्ज शीट में किया है. अब तक ५-६ मुजरिम पकडे गये हैं, करीब इतने ही फ़रार हैं. तफ़शीश में कर्नाटक-महाराष्ट्र बार्डर पर बसे भटकल कस्बे का बडा जिक्र हुआ है. इस कायरतापूर्ण हमले की साजिश रचने वालों में कई कथित मोहरे इसी भटकल के बताये जा रहे हैं. इस कस्बे से भारी मात्रा में मुसलमान मध्य पूर्वी एशियाई देशों में रोज़गार के लिये गये हैं. मुंबई हमलों की इस साजिश में पाकिस्तान की खुफ़िया ऐजेन्सी पर भी नुक्ताचीनी की गयी है. यह मामला मुंबई पुलिस ने अब कोर्ट के समक्ष रख दिया है. अब साक्ष्यों के आधार पर यह मुकदमा अपनी किसी न्यायिक परिणिती पर पहुँचेगा या सबूतों के अभाव में यह ४८०० पेज का पुलिंदा किसी मुंबईय्या छाप फ़िल्म की पटकथा साबित होगा? यह भविष्य तय करेगा. भारतीय पुलिस खासकर सी.बी.आई की कन्विक्शन रेट कोई १० प्रतिशत भी नहीं है लिहाजा ९०% मामलों में सब फ़र्जीवाडा साबित होता है. देश की अदालतों, पुलिस, अखबारों, टी.वी और पाठकों/दर्शकों का वक्त बर्बाद जो होता है उसका कोई हिसाब नहीं. आंध्र प्रदेश की मस्जिद में हुए बम धमाके वाली आतंकी घटना में करीब एक दर्जन मुस्लिम नवयुवकों को आतंकवादी प्रचारित-प्रसारित कर उन्हें जेलों में ठूँस कर प्रताडित भी किया गया था. बाद में पता चला कि उसके पीछे हिंदु अतिवादियों का हाथ है. कौन जाने कल मुंबंई पुलिस के आज किये जाने वाले दावे चूं-चूं का मुरब्बा साबित हों तो मुझे इस पर जरा भी हैरत न होगी. उन आंध्र प्रदेश के मासूम नौजवानों को राज्य ने न कोई हर्जाना दिया है न माफ़ी मांगी, क्योंकि भारत सरकार में इस स्तर की संवेदना का आभाव सर्वव्यापी है शायद १०-२० साल अभी और लग जायें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कि अगर राज्य जनता के विरुद्ध गलत काम करे तो उसकी भरपाई करना भी उसका नैतिक फ़र्ज हो, इस लिहाज़ से भारतीय न्याय व्यवस्था अभी आदिम युग में प्रतीत होती है. क्या कभी बटला हाऊस में हुई कथित मुठभेड़ के सच को राज्य साहस के साथ बता पायेगा, सत्ता के वर्तमान स्वरुप के चलते यह शायद ही संभव हो.

१३/७ के मुंबई हमलों को लेकर मेरी चिंता का विषय जरा हट कर है जिसका उल्लेख न मीडिया करता है, न सरकार की उस पर निगाह है और न अदालतों की. वह शायद इसलिये कि वे किसी न किसी रुप में इस भ्रष्ट्रचार के खुद एक पात्र हैं. मैं पाठकों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि भटकल में जिस तेजी से मस्जिदों, मदरसों का विस्तार हुआ है उसके पीछे प्रवासी मुस्लिम समुदाय की बडी भूमिका है. मज़दूरी करने वालों से लेकर प्रोफ़ेशनल्स तक, पढे लिखे अथवा अनपढ मुसलमानों में एक मुद्दे पर व्यापक समानता है कि कोई उनसे मदरसा/मस्जिद के लिये पैसे मांगे तो वह खुद भी देगा और पडौसी से भी लाकर देगा. आमतौर पर यह चंदा ज़कात के नाम पर मांगा जाता है जो इस्लाम के मूलभूत पांच स्तंभों में से एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसकी अवहेलना शायद ही कोई करे. इन दिनों (रमज़ान पूर्व) ज़कात इकठ्ठा करने वाले मुल्लाह-व्यापारी वर्ग द्वारा मध्य पूर्व एशिया के कई मुल्कों में दौरे होते हैं, और ये लंबी लंबी दाढी वाले लोग बेशुमार दौलत चंदे के नाम पर एकत्र करके लाते हैं जिसका एक हिस्सा इन मदरसों/मस्जिदों में लगता है. एक बात स्पष्ट करता चलूँ कि धर्म का मनोविज्ञान एक ही है, चाहे हिंदू हो या मुसलमान. कौन नहीं जानता कि प्रवासी हिंदू समाज ने राम मंदिर के नाम पर अरब देशों, उत्तरी अमेरिका और यूरोप से कितना धन भारत की प्रमुख फ़िरकापरस्त पार्टी को दिया है? इसी धन के बूते पर पूरे देश में जिस नफ़रत का कारोबार किया गया, जिसमें व्यापक दंगे हुये और न जाने कितनी मासूम जानों के साथ अपार संपदा की क्षति हुई? यह सब इतिहास में दर्ज हो चुका है.

सबसे दुखद बात यह है कि ज़कात-दान देने वाला कभी यह नहीं सोचता कि उसके पैसे का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है? उन मदरसों में पढाये बच्चों का भविष्य कैसा होगा? क्या मुस्लिम समाज को उसी धार्मिक शिक्षा की आज इस दौर में भी जरुरत है जिसका प्रचलन सदियों पहले किया गया था? जाहिर है, मुल्लाह की तरबियत यह है कि तुम "यहां इतना दोगे तो अल्लाद तुम्हे वहां इतना देगा" जैसी अदावतों के चलते दानकर्ता इस पचडे में पडता ही नहीं, उसने दान देकर मरने के बाद अपनी जिंदगी संवारने का मसला हल कर लिया है. वह नहीं जानता कि इस दुनिया को नर्क बना कर अगर वह कब्र में गया तो उसका नतीजा क्या होगा? वह अपने पीछे आने वाली नस्लों को कौन सा समाज देकर जा रहा है? क्या अभी उचित समय नहीं आ गया है ज़कात देने के हम दूसरे विकल्पों पर गौर करें? क्या यह सही वक्त नहीं है कि हम यह विचार करें कि अब तक ज़कात के नाम पर जितना फ़्राड इस मुल्लाह ने किया है उसकी जांच हों? क्या वक्त नहीं आ गया है कि इन्हीं मदरसों का उपयोग अब वैज्ञानिक-व्यवसायिक शिक्षा देकर करें (कुछ जगह यह काम हो भी रहा है, लेकिन बहुत कम) ताकि इनमें पढे लोग समाज की मुख्यधारा से जुड सकें, रोजगार पाकर बेहतर जीवन जी सके और उत्तरोत्तर देश की, अपने समाज में खुशहाली लाने में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकें? क्या यह जरुरी नहीं कि इन मौजूदा शिक्षण संस्थाओं जिनमें अलीगढ/जामिया जैसे इदारे भी शामिल हैं अपने खास नज़रिये के चलते समाज में एक खास अलगाव के बीज बो रहे हैं? क्या यह जरुरी नहीं कि इस्लाम की उन तथाकथित सर्वश्रेष्ठवादी संस्कारों/शिक्षाओं का परित्याग किया जाये जिसके वहम के चलते अमन के धागे कमज़ोर हो रहे हैं? क्या यह वाजिब समय नहीं है कि हम सदियों से पिलायी जा रही जहनी घुट्टी को त्याग दे जिसमें पूरी दुनिया पर इस्लाम के वलवले का जिक्र है? क्या हम कभी हकीकत पसंद होकर इस बात को खारिज करेंगे कि दौरे खलीफ़ा फ़िर आयेगा और दुनिया के तमाम मसाईल सुलझा देगा? जाहिर है अगर इन बातों पर किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही विचार प्रणाली के माध्यम से किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, दुर्भाग्य से, इन पंक्तियों को लिखे जाते वक्त मुसलमानों का कथित पढा लिखा तबका कथावाचक ज़ाकिर नायक जैसे छद्दम विचारों में अपनी मुक्ति और शांति की राह तलाश रहा है या जन्नम में अपना मुकाम दर्ज करवा रहा है.

अफ़सोस की बात है कि यही वह तबका है जो कथावाचक जाकिर नायक को दुबई में सुनने के लिये हजारों की संख्या में पहुँच जाता है. आजकल उसे सुनने वालों में एक नया तबका और जुड़ गया है जिसे अंग्रेजी आती है या जो प्रोफ़ेशनल डिग्री लिये है. जाकिर नायक से पहले ये जलसे, मजलिसे, तब्लीगें आम तौर पर मजदूर पेशा लोगों की पहचान हुआ करती थी लेकिन किसी इंजीनियर/डाक्टर/एम.बी./आई.टी वाला आदि को अगर ज़ाकिर नायक की बातें अच्छी लगने लगें तब निसंदेह हमें विचार करना होगा कि ऐसी कौन सी जड़ता का फ़ार्मूला इनके जहनों में मौजूद है कि ४-५ साल या उससे अधिक भी, विज्ञान की पढाई करने के बाद इनके चिंतन को विज्ञान छू कर भी नहीं गुजरता? चाहे इंजीनियर हो या डाक्टर, अगर वो अपने काम को करने से पहले किसी अवैज्ञानिक क्रिया को करे तो मुझे उसकी बुद्धी पर तरस ही नहीं आता वरन गुस्सा भी आता है कि इस शख्स ने अपने जड विचारों (धर्म) के चलते पूरी व्यवस्था और उसके संसाधनों को अपने काम में लगा लिया.

पढे लिखे मुस्लिम तबके में धार्मिक कट्टारता ९/११ की घटना के बाद तेजी से बढी है. अधकचरा दिमाग इस परिघटना का कोई वैज्ञानिक परीक्षण करने में असर्मथ रहा है. वहीं इंटरनेट, मोबाईल, टी.वी. जैसे वैज्ञानिक संसाधनों के जरिये अल कायदा/वहाबी/सलफ़ियों/हिज्बुल/हमस/ब्रदरहुड जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने इस तबके को तेजी से अपनी गिरफ़्त में लिया है. आज इन संगठनों की फ़ेहरिस्त में दिन ब दिन इज़ाफ़ा हो रहा है और इनके कार्यकर्ता कुदाल-फ़ावडे चलाने वाले मज़दूर नहीं, वे कम्पयुटर, मोबाईल चलाने वाले कथित शिक्षित तत्व हैं. दुनियाभर में चल रही इस्लाम के नाम पर विध्वसंक गतिविधियां किन्हीं अनपढों के जरिए संभव नहीं हैं. ये पढे लिखे लोग ही हैं जो नौजवानों को बेतुके तर्कों के आधार पर मानव बम बनाने को प्रेरित कर रहे हैं और रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखते हैं. हर बडी आतंकी कार्यवाही में कोई न कोई प्रोफ़ेशनल ही जुडा पाया गया है. जाहिर है विज्ञान पढ कर भी अगर कोई अवैज्ञानिक नज़रिये का गुलाम है तो वह मूलत: धार्मिक व्यक्ति ही है. ये तत्व भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचुरता में पाये जाते हैं. कहीं इनका रंग हरा है तो कहीं भगुवा, ये दोनों एक दूसरे के दुश्मन जरुर प्रतीत होते हैं लेकिन बुनियादी रुप से एक दूसरे के सहयोगी ही हैं.

एक बात पर अब व्यापक सहमति बनाने की जरुरत है, कि धर्म के जरिये शांति नहीं कायम की जा सकती. आज धर्म विध्वंस का प्रर्याय बन चुका है. भारत में धर्म सार्वजनिक जीवन में अतिक्रमण का एक प्रमुख अस्त्र बन चुका है. अब यह अस्त्र प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा भी किसी न किसी रुप में प्रयोग किया जा रहा है जिसके चलते राज्य की विभिन्न संस्थायें-निकाय भी इससे प्रभावित हो रही हैं. अभी उचित समय आ गया है कि धर्म के सार्वजनिक उपयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगे. देश के सभी धार्मिक संस्थानों में जमा संपत्ति का तत्काल राष्टीयकरण किया जाये. धार्मिक शिक्षण संस्थानों पर तत्काल प्रतिबंध लगाने से पूर्व राज्य बेसिक शिक्षा (१२वीं तक) की जिम्मेदारी अनिवार्य रुप से अपने कंधों पर ले, देश भर में एक जैसी शिक्षा पद्धति लागू की जाये जिसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी किसी भी धर्म की शिक्षा न दी जाये. धर्म सिर्फ़ विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल किया जाये.

किसी भी किस्म के कट्टरपंथी को एक बात समझ लेनी चाहिये कि भले ही कितनी भी नफ़रत के हमले वह एक दूसरे पर करते रहें, तब भी उन्हें एक दूसरे के साथ ही रहना होगा. नफ़रत के कई झंझावत भारत ने भुगते हैं, बंटवारे भी हो चुके लेकिन इस मसले का हल नहीं हुआ. शायद हमारी राजनीतिक सोच ही गलत थी, हमारे कवि, हमारे नेता, हमारे धार्मिक लोग हमसे झूठ बोलते रहे, हमें शब्दजाल के मलहम लगाते रहे लेकिन हमारे घाव लगातार गहरे होते गये. अभी वक्त आ गया है कि इस नासूर को पहचान लिया जाये. धर्म नाम के इस नासूर में हमें छ्द्दमता का वह आवरण दिया जिसके नीचे जो भी चला वही स्वंय को उच्चतर समझने लगा. विचार के इस सूक्ष्म बिंदू में इस नफ़रत, हत्याओं और हमलों का भेद छुपा हुआ है. इससे पहले कि मानवजाति को और खूनखराबा देखना पडे (जिसके लिये वह रात दिन तैयारी कर रहे हैं) आओ इसको समूल नष्ट करें. धर्म को सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यक्तिगत विषय बना दें उसके किसी भी समाजिक क्रिया का बहिष्कार करें क्योंकि सामाजिक स्वीकार्यता ही आगे बढ़कर उसके लिये राजनीतिक आवरण का आधार तैयार करती है. राज्य से धर्म की पूर्ण निरपेक्षता ही हमें किसी शांतिपूर्ण जीवन का रास्ता दिखा सकती हैं. पहले अपना घर ठीक कर ले फ़िर धर्म आधारित राज्यों का बहिष्कार करना दूसरा चरण होगा जिसका चरित्र अंतरार्ष्ट्रीय होगा.

2 comments:

Chandra Shekhar Kargeti said...

बेहतरीन एवं लाजवाब, बहुत कुछ जाना कि असल में जकात के मायने क्या है ? धर्म के मायने भी देखे समझे आपके पोस्ट के जरिये..........

Shamshad Elahee "Shams" said...

Kargeti ji thanks for your appreciation.