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Friday, October 14, 2011

क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!






क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!

मिस्र की जन क्रांति के अभी कसीदे गढे जा ही रहे थे कि इस आवामी एक जुटता को तोडने और उसे नेस्तेनाबूद करने की खबरे आने लगी, हालांकि मुबारक सरकार के गिरते ही इन घटिया हरकतों की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन अब मिस्र के मूलनिवासी जो कोप्टिक चर्च के अनुयायी है, जिनका इतिहास चौथी शताब्दी (४०० ऐ.डी.) पुराना है जिनकी संख्या कुल मिस्र की आठ करोड आबादी का कोई १० प्रतिशत है, दुनिया के सबसे पुराने चर्चों में उनका शुमार होता है, उनके धर्म स्थानों और अनुयाईयों पर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा हमले संगठित रुप से किये जा रहे हैं. अभी तक इन संघर्षों में कई चर्च हिंसा के शिकार हुए हैं और सैंकडों काप्टिक ईसाईयों की जाने जा चुकी हैं कल ही काहिरा में हुई हिंसा में २५ लोगों के मरने की खबर है.
ध्यान रहे, मिस्र की क्रांति जिसने चार दशक पुराने मुबारक के ताकतवर पुलिस-स्टेट को अपनी शानदार एकता के चलते ध्वस्त किया था, इस जन क्रांति में पूरे देश की जनता एकजुट होकर लडी थी जिनका सिर्फ़ एक ही मकसद था मुबारक सरकार को उखाडना और उसके स्थान पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को बनाना. इस क्रांति की तीन प्रमुख धारायें थी, फ़ेसबुक एक्टिवीस्ट नौजवान समुदाय, कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले किसान, मजदूर नौजवान और तीसरा मुस्लिम उग्रवादी विचारधारा से लैस ब्रदरहुड, जिसे जन सैलाब में शिरकत करने का फ़ैसला लेने में ४ दिन लगे. यही वह संगठन है जिसे मुबारक सरकार में न केवल मुख्य विपक्ष की भूमिका भी मिली और रियायतें भी, इस संगठन से सहमति रखने वाले मुबारक सरकार में मंत्री भी थे, यही वह राजनीतिक दल भी है जिसके पास अपना एक कारगर संगठन है. जाहिर है इस संगठन का मूल उद्देश्य मिस्र में इस्लामी शासन, शरिया कानून को ही सख्ती से लागू करना है और मिस्र में फ़तह का झण्डा गाड कर पूरे दुनिया में इस्लामी हकुमत स्थापित करना इनका अगला स्वभाविक ऐजेण्डा होगा.
पिछले कई महीनों से मिस्र की जनता की एकता को तोडने और पूरे समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश वही करेगा जिसे इसका कुछ माह बाद होने वाले चुनावों में फ़ायदा होगा. मौजूदा अंतरिम सरकार यदि पिछले कई महीनों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के अभियुक्तों को पकड पाती, उन्हें नंगा कर पाती तो स्थिती दूसरी होती, लेकिन मौजूदा अंतरिम सरकार में न तो वह इच्छा शक्ति है और न वह इतनी सक्षम कि इस राजनीतिक पहेली को हल कर सके.
कितनी अजीब बात है, सभी धर्म शांति- शांति स्थापित करने की बात करते हैं और वह शांति पिछले ३-४००० सालों में कभी स्थापित नहीं हुई. धर्म हत्या और हिंसा को मानो वैधानिक रुप देने के लिये शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार बन चुका है जिसका इस्तेमाल वह अपने हितों की रक्षा करने में कितनी भी निर्ममता से कर सकता है और ऐसा किया गया हर कार्य विधिसम्मत ठहरा दिया जाता है. हम भारतीयों से अधिक इसका भुक्त भोगी और कौन होगा? अपने पौराणिक इतिहास से लेकर २००२ के गुजरात के दंगों तक, इसको जायज और नाजाएज बताने के असंख्य तर्क धार्मिक दृष्टिकोण से दिये जा सकते हैं.
मिस्र में आज जो नज़ारा दिखाई दे रहा है, वह इस बात का क्या स्पष्ट प्रमाण नही कि धर्म समाज में सांमजस्य स्थापित करने में पूरी तरह विफ़ल रहा है इसके विपरीत इसकी उपस्थिती मात्र से ही जनता के संघर्षों और उसकी एकता को एक झटके में तोडा जा सकता है. जिस आठ करोड आबादी ने अभी अपने सिर से मुबारक का जुआ उतार फ़ेंका है वही जनता अपने मूलभूत धार्मिक अंतर्विरोधों के कारण अपनी एकता की बलि दे रही प्रतीत होती है.
क्या यह उप्युक्त समय नहीं कि धर्म को हम व्यक्ति का बेहद निजी विषय घोषित करते हुए उसके सामाजिक-राजनैतिक सवरुप को खारिज करें? क्या यह सही वक्त नहीं कि दुनिया में जहां जहां धर्म आधारित राज्य हैं उनकी सदस्यता सयुंक्त राष्ट्र संघ से खारिज करने का दबाव बनाया जाये? क्या ऐसे राष्ट्रों पर लोकतंत्र स्थापित करने का दबाव न डाला जाये? क्या इन देशों का आर्थिक, राजनीतिक बहिष्कार न किया जाये? क्या इस बात पर अब भी बहस की कोई गुंजाईश है कि मज़हब जब आपके घर की दहलीज़ पार करता है तब वह धर्म नहीं वरन राजनीति बन जाता है? क्या धर्म के नाम पर होने वाले तमाम जलसे जुलूस समाज में विभिन्न धर्मावलंबियों के मध्य प्रतिद्वंदिता को जन्म नहीं दे रहे? क्या आज भी इस गांधीवादी बकवास पर यकीन किया जाये कि एक अच्छा हिंदू या एक अच्छा मुस्लिम बनने से समाज में वैमनस्य स्माप्त हो जायेगा? क्या ऐसा अभी तक हुआ है या अभी तक समाज एक अच्छा हिंदू अथवा मुस्लिम बना ही नही सका? अगर अभी तक बना नहीं सका तो आगे कितने हजार वर्षों की प्रतीक्षा हमें करनी होगी कि एक सभ्य समाज बने? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच में, अथवा हमारे तथाकथित स्वर्ण सिद्धांतों में ही कोई खोट न हो?
धर्म के अंतर्विरोध को जिन समाजों ने हल कर लिया है वहां प्रगति हुई है. क्या यह कहना अनुचित होगा कि आज पूरी दुनिया में वही समाज विकास की दौड़ में पिछडे हुए हैं जहां-जहां धर्म उनके समाज में जीवन-रक्त बन कर दौड़ रहा है. पूरा अफ़्रीका, मध्यपूर्व और दक्षिणी एशिया में धर्म के नाम पर गदर मचा हुआ प्रतीत होता है और आश्चर्य होता है यहीं विकास की चिंता भी गौंण है और इन्हीं तथाकथित धर्मपरायण देशों के न केवल शासक बल्कि जनता भी सबसे भ्रष्ट है. हमें अभी कितनी और शहादतें देनी हैं कि हम इस नतीजे पर पहुंचे कि जो अब तक किया वह धर्म नहीं बल्कि राजनीति थी, वह भी मध्यकालीन राजनीति..धर्म के फ़ूल भी रोजी-रोटी के प्रश्न को हल करने के बाद ही खिलते हैं, उसकी सुबास, उसकी रंगत तब कुछ और ही होगी और वह सर्वथा इस हथियारनुमा धर्म से भिन्न होगा जिसके लिये हत्यायें करना आसान था, हत्याओं का प्रयोजन ढूंढना सरल और संभव था लेकिन मनुष्य को इंसान बनाना मुश्किल.