Monday, December 24, 2012

ज़िंदा इंसान को जला कर नज़ारा देखते धर्मांध लोग


विश्व शांति सैनिको ने विश्व शांति की पवित्र पुस्तक की अवमानना के जुर्म में पहले कथित अपराधी को पीटा फिर व्यापक शांति की स्थापित करने हेतु उसे जिंदा जला कर मार डाला। दादू सिंध (पाकिस्तान) के सीता गांव में कोई राहगीर गरुवार की रात को रुका था, अगले दिन मस्जिद में पवित्र कुरआन के पन्ने जले हुए पाए गए। इमाम मेमन के संदेह पर पहले इस मुसाफिर को गांव वालों ने पीटा फिर पुलिस को सौंप दिया। 21 दिसंबर के दिन हुई इस घटना में फिर कोई 200 शांति सैनिकों का हुजूम थाने पर जा पहुँचा, मुसाफिर को फिर पीटा और इस बार उसे ज़िंदा जला कर ही दम लिया। 1990 से ईश निंदा के नाम पर अब तक 53 लोगों को पाकिस्तान में सरे आम मारा जा चुका है। शांति के नाम पर जाने कितने बेगुनाह अभी तक इन तथाकथित शांति सैनिकों द्वारा जीवन मुक्त कर दिए गए हैं यह शोध का विषय है।
धर्म के नाम पर इस क्रूक हिंसा की मैं मुखालफत भी करता हूँ और मज़म्मत भी। कामना करता हूँ कि भौंडी शांति के इस खून खराबे वाले रास्ते का अंत अति शीघ्र हो।
फोटो : पैन अर्मेनियन डाट नेट

Sunday, December 2, 2012

कथावाचक जाकिर नायक के अतार्किक प्रवचन

कथावाचक जाकिर नायक की सुनो इस वीडियो में फरमा रहे हैं, अपने धर्म ग्रन्थ का हवाला देकर कि अल्लाह दुआ माँगने वाले को बी एम डब्लू मोटर साईकिल इसलिए नहीं दे रहा कि वह जानता है कि वो एक अच्छा शख्स है और दुर्घटना में मर सकता है, वो उसे बचाना चाहता है इसलिए उसके मरने का साधन नहीं दे रहा। लिहाजा उसकी दुआ अनसुना करके भी वह उसकी दुआ सुन रहा है , वाह ... दुआ माँगना उसका असर होना न होना ये अलग मसला रहा उस पर फिर कभी ..फिलहाल इस लफ्फाजी को कुछ आंकड़ों के आईने में अकल लगा कर देखते हैं .
प्रतिदिन दुनिया में 3500 लोग सड़क दुर्घटना में अपनी जान गंवाते हैं, भारत में अल्लाह की कृपा सबसे अधिक है कि सड़क दुर्घटना में मरने वालों का सबसे बड़ा रिकार्ड इसी मुल्क के नाम है, मानो अल्लाह को जिसे निपटाना हो उसे एक गाडी दिलवा देता हो, कच्चे पक्के मिलाकर हर साल कोई 2 लाख मौतें भारत में हो रही है। मरने वाला अपनी जान से गया लेकिन अल्लाह उद्योगपतियों की तिजोरियाँ भरने में लगा है। कथावाचक जाकिर नायक और उसकी किताब की माने तो जो कुछ भगवान करता है वह या तो बन्दे परीक्षा हो रही है या उसे इनाम दिया गया है, अब इन सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले परीक्षा में फेल हुए या अपने इनाम को झेल नहीं पाये? इस जगह इनके तर्क पहुँच ही नहीं पाते। ऐसी वाहियात बातों और अतार्किक प्रवचनों को कितनी गौर से लोग बिना अपनी अकल लगाए गाय भैसों की तरह कैसे सुन लेते हैं? यह बड़े ताज्जुब की बात है। सूट बूट पहने, बकरेनुमा दाढी,मध्यकालीन विचारधारा का प्रचार करना , वह भी सभी वैज्ञानिक तकनीको का प्रयोग करके- कोई इन अंतर्विरोधों पर इस सर्वश्रेष्ठवादी ढकोंसले बाज़ से प्रश्न क्यों नहीं करता ? धर्म विवेक और तर्कशीलता का ह्रास किस कदर करा देता है और ऐसी फितरत का इंसान समाज में चेतना के स्तर को कितने रसातल में पहुंचा सकता है ? वह इस महाशय और उसके चाहने वालों को देख कर पता चल जाता है। 
  
http://www.youtube.com/watch?v=8a0V1DXAT-E&feature=g-wl&list=WLOY2z2wTrYxGCujEorGxo8j3xi8yNB_3C

Tuesday, November 20, 2012

राजनीतिक इस्लाम फासीवाद से भी अधिक क्रूर है, उसने जहां जहां अपना सर उठाया मानवता को लज्जित किया और आधुनिक सभ्यता को शर्मसार भी किया। हमास ने गाज़ा पट्टी पर जब से हकुमत संभाली है सबसे पहले उसने फताह जैसे प्रगतिशील ग्रुप के सदस्यों को भेड़ बकरियों की तरह मारा। इस्लामी शिक्षा के आधार पर इजराइल के खिलाफ नफ़रत का कारोबार उसे युद्ध के मुहाने पर हर दम रखता ही है। युद्दोंमाद कि आड़ में राजनीतिक रोटियाँ सेके बिना इनकी कोई नमाज़ भी पूरी नहीं होती। पडौसी मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड की हकुमत बनने के बाद से ही दीवारों पर वह इबारत साफ़ दिखने लगी थे जिसका आज सातवा दिन है। युद्ध में 125 फलस्तीनी और 3 इज्राईली अपनी जानें गवां चुके हैं। हमास की खून की प्यास अभी पूरी नहीं हुई, खबर है कि 6 फलस्तीनियों को इस्राईल का मुखबिर बता कर हमास के फासीवादी जिहादियों ने सड़क पर सरेआम लिटा कर उनकी ह्त्या कर दी उनमे से एक लाश को मोटरसाईकिल के पीछे बाँध कर शहर में घुमाया गया, इसी बर्बर संस्कृति का नाम राजनीतिक इस्लाम है, यही धार्मिक फासीवाद है, हमास की गाजा सरकार के पक्ष में मुट्ठी भींचने से पहले ज़रा फतह के हज़ारो साथियों की बलि के बारे में जरुर सोचना।हमास/हिजबुल्लाह /ब्रदरहुड/जमात जैसे नाम का कैंसर आपके मौहल्ले, गाँव, कस्बे, शहर और देश में भी फ़ैल जाएगा और एक दिन ये नज़ारा आपके शहर का भी होगा। युद्ध का विरोध हो लेकिन युद्दोंमादों का भी नाश हो, धर्म को राजनीति में विलय करने वालों का भी नाश हो। धर्म आधारित राजनीति मौजूदा विश्व में कहीं शांति स्थापित नहीं कर सकती, ऐसी ताकतों का बहिष्कार करना हर शांतिवादी कर्मी का पहला कर्तव्य है ।

राजनीतिक इस्लाम फासीवाद से भी अधिक क्रूर है, उसने जहां जहां अपना सर उठाया मानवता को लज्जित किया और आधुनिक सभ्यता को शर्मसार भी किया। हमास ने गाज़ा पट्टी पर जब से हकुमत संभाली है सबसे पहले उसने फताह जैसे प्रगतिशील ग्रुप के सदस्यों को भेड़ बकरियों की तरह मारा। इस्लामी शिक्षा के आधार पर इजराइल के खिलाफ नफ़रत का कारोबार उसे युद्ध के मुहाने पर हर दम रखता ही है। युद्दोंमाद कि आड़ में राजनीतिक रोटियाँ सेके बिना इनकी कोई नमाज़ भी पूरी नहीं होती। पडौसी मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड की हकुमत बनने के बाद से ही दीवारों पर वह इबारत साफ़ दिखने लगी थे जिसका आज सातवा दिन है। युद्ध में 125 फलस्तीनी और 3 इज्राईली अपनी जानें गवां चुके हैं। हमास की खून की प्यास अभी पूरी नहीं हुई, खबर है कि 6 फलस्तीनियों को इस्राईल का मुखबिर बता कर हमास के फासीवादी जिहादियों ने सड़क पर सरेआम लिटा कर उनकी ह्त्या कर दी उनमे से एक लाश को मोटरसाईकिल के पीछे बाँध कर शहर में घुमाया गया, इसी बर्बर संस्कृति का नाम राजनीतिक इस्लाम है, यही धार्मिक फासीवाद है, हमास की गाजा सरकार के पक्ष में मुट्ठी भींचने से पहले ज़रा फतह के हज़ारो साथियों की बलि के बारे में जरुर सोचना।हमास/हिजबुल्लाह /ब्रदरहुड/जमात जैसे नाम का कैंसर आपके मौहल्ले, गाँव, कस्बे, शहर और देश में भी फ़ैल जाएगा और एक दिन ये नज़ारा आपके शहर का भी होगा। युद्ध का विरोध हो लेकिन युद्दोंमादों का भी नाश हो, धर्म को राजनीति में विलय करने वालों का भी नाश हो। धर्म आधारित राजनीति मौजूदा विश्व में कहीं शांति स्थापित नहीं कर सकती, ऐसी ताकतों का बहिष्कार करना हर शांतिवादी कर्मी का पहला कर्तव्य है ।
http://www.dailymail.co.uk/news/article-2235635/Gaza-conflict-Egyptian-president-says-peace-Gaza-imminent-predicts-lasting-ceasefire-begin-tomorrow.html?ICO=most_read_module
दूसरा लिंक भी देखें
http://www.youtube.com/watch?v=tm-Gh7Oxy0Y

Friday, October 19, 2012

हज २०१२: क्या यह सिर्फ़ धार्मिक कर्मकाण्ड है या शुद्ध अर्थशास्त्र?



हज दुनिया का सबसे बडा सालाना धार्मिक समारोह है जिसमें भाग लेने वालों की संख्या में हर वर्ष वृद्धि दर्ज की जा रही है. सबसे बडा समारोह होने के साथ-साथ यह दुनिया के सबसे पुराने धार्मिक उत्सवों में भी एक है. पिछले १४०० सालों (कुछ एक सालों को छोड़ कर जब सुरक्षा कारणों से हज स्थगित रहा) से यह अपने इस्लामी स्वरुप के साथ नियमित रुप से जारी है. मक्का पर मुसलमानों के अधिपत्य से पूर्व मक्का में यह सालाना वर्जिश सदियों पुरानी थी जिसमें तत्कालीन समाज के कबीले अपने-अपने देवी देवताओं के बुतों के साथ मक्का आते और अपना वार्षिक धार्मिक उत्सव मनाते. ऐतिहासिक रुप से यह सालाना मेला स्थानीय कारोबार-रोज़गार-आर्थिक गतिविधियों को एक फ़ैसलाकुन ताकत देने की कुव्वत उस वक्त से लेकर १९७२ तक कायदे से रखता रहा है. इस्लामी हकुमतों के दौरान मक्का-मदीने पर नियंत्रण तत्कालीन राजनीति का एक महत्वपूर्ण सवाल रहा है, जाहिर है यह वह एक आर्थिक प्रश्न है जिसके इर्द-गिर्द धर्म और धार्मिक नीतिशास्त्र की रचना हुई. इस लेख का उद्देश्य हज से संबंधित धार्मिक किस्से कहानियों से इतर हज की एक बौद्धिक-आर्थिक व्याख्या करना है.



लगभग पौने तीन करोड़ की आबादी वाले सऊदी अरब में स्थित मक्का-मदीना पूरी दुनिया के कोई डेढ अरब मुसलमानों का एकमात्र धार्मिक पर्यटक स्थल है जहां हर एक धनपति मुसलमान मरने से पहले जाना चाहता है. अधिक से अधिक की कोई सीमा नहीं, कुछ नियमों,मंत्रों के अनुसार आप अपने पिता, मां, दादा, दादी, नाना, नानी के लिये उनकी अनुपस्थिती में हज कर धर्म लाभ उठा सकते है, उनके गुनाह माफ़ करा सकते हैं और उनके लिये जन्नत में जगह पाने की प्रार्थना कर सकते हैं. ऐसा कहा जाता है कि इस जगह की गई दुआ असफ़ल नहीं होती. यह धार्मिक मान्यता है लेकिन जरा सी बुद्धि लगाते ही इन मान्यताओं के आर्थिक मन्तव्य स्पष्ट हो जाते हैं. जाहिर है पिछले १४०० वर्षों का धुआंधार प्रचार और इस्लाम के मूल पांच अरकानों में से आखिरी और एक होने के कारण हज, एक आम मुसलमान के लिये ऐसा स्वप्न है जिसे पूरा किये बिना वह मरना भी नहीं चाहता. हज एक ऐसा प्रोडक्ट है जिसकी मार्केटिंग धर्म के जरिये आपको पैदा होते ही अपने पूर्वजों और मुल्लाह के द्वारा विरसे में मिल जाती है. आप जीवन भर मेहनत करते हैं पैसा कमाते हैं और कुछ बचा कर रखते है कि मरने से पहले हज हो जाये. इसे आप अमूर्त रुप में नहीं कर सकते जबकि सारा धर्म अमूर्त है. हज आपको मूर्त रुप में ही करना होगा, पैक्टिकली जाना होगा, वीसा लेना, हवाई जहाज, होटल, कपडे, तोहफ़ों की खरीदारी आदि ये सब हज के दौरान होने वाले वह खर्च हैं जिनसे आपको दो चार होना ही है. यात्री सिर्फ़ अपने धार्मिक लाभ के लिये हज कर रहा है ऐसा देखना, दिखाना, बताना और सुनाना एक धार्मिक सच जरुर हो सकता है लेकिन वास्तविकता में, इसे लौकिक धरातल पर देखा जाये तब तस्वीर दूसरी ही नज़र आती है. यह भी सच है कि लौकिक अर्थों को धर्म क्यों परिभाषित करेगा? हज के अर्थशास्त्र पर इस लिहाज से एक नज़र डालना प्रासंगिक होगा. यह मसला है तो टेहडा क्योंकि राजा की हकुमत है और वह अगर सही आंकडे रखती भी हो तो किसी को उपलब्ध नहीं कराती, गाहे बगाहे खलीज के अखबारों में जो सूचनायें सरकारी हवालों से प्रसारित होती हैं उन्ही का लेखा जोखा यहां दिया जा रहा है.



१९२५ में मौजूदा सऊदी के शासकों के पास मक्का-मदीने पर कब्जे के बाद (उससे पहले ओटोमन तुर्की साम्राज्य के पास यह अधिकार था) १९२७ में तकरीबर ३ से साढे तीन लाख लोगों ने हज में शिरकत की जिनमें करीब डेढ लाख हाजी विदेशी थे. यह संख्या १९७२ में दस लाख हुई जिनमें ४.७९ लाख हाजी विदेशी थे. २००९ में तकरीबन ३० लाख लोगों ने हज किया जिनसे एक अनुमान के मुताबिक ३० अरब डालर का धंधा सऊदी सरकार को प्राप्त हुआ. २०११ में सऊदी का कुल घरेलू उत्पाद ६९१.५ अरब डालर का था, हज से प्राप्त होने वाला रेवेन्यु उसकी जी.डी.पी. का कोई ७% था जो बिना तेल की आय की मदों में देखा जाये तब यह उस आय का २२% है. इन दिनों हज हर साल सऊदी में करीब १६०,००० नौकरियां उपलब्ध कराता है. हज के दौरान खुदरा व्यापार, होटल, विमानन, ट्रांस्पोर्ट, एयरपोर्ट, पर्यटन, टेलीकाम, डाटा, खाद्य उद्योग ऐसे धन्धे हैं जिनका विकास और विस्तार इस आयोजन से सीधा जुडा है.



पाकिस्तान की एक सरकारी वेब साईट के मुताबिक प्रत्येक हाजी से वसूल की जाने वाली धनराशी का विवरण देना यहां जरुरी है. तीन प्रकार के वीसा हाजियों के लिये हैं जिनकी कीमतें अलग अलग है:

नीला वीसा: कीमत लगभग ३५०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी ९०० मीटर

हरा वीसा: कीमत लगभग २९०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी ९०० से २००० मीटर

सफ़ेद वीसा: कीमत लगभग २४०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी २००० मीटर से अधिक.

पाकिस्तान से २०१२ में हज यात्रा पर जाने वालों की संख्या १७९,२१० तय की गयी है. उपरोक्त कीमतों में हवाई यात्रा का किराया शामिल नहीं, हज के दौरान अधिकतर हाजियों को सऊदी अरब एयरलाईन्स का ही टिकट लेना होता है. उत्तरी अमेरिका और यूरोप से जाने वाले हाजियों का खर्चा एशिया से जाने वाले हाजियों से कहीं अधिक होता है. एक हाजी का औसत खर्चा लगभग ३४०० डालर होता है जिसमें उसकी निजी खरीदारियां शामिल नहीं.



हज के अतिरिक्त साल भर उमरा करने वालों का इन दिनों मुस्लिम नव-धनपशुओं में एक नया क्रेज़ देखा जा रहा है. इस वर्ग को आर्कषित करने के लिये मक्का को लास वेगास की तरह पांच सितारा होटलों से घेर दिया गया है, जिनमें आधुनिक होटल उद्योग में पायी जाने वाली सभी सुख-सुविधायें मौजूद हैं. रमजान के दिनों में दुनिया भर के मुस्लिम धनाढ्य वर्ग आजकल उमरा करता है. खासकर लैलत अल कबीर की रात को पिछले साल हुई तराबी की नमाज में ३० लाख लोगों ने हिस्सा लिया. इस रात को कुरान शरीफ़ की पहली आयत अवतरित हुई थी लिहाजा इसकी बरसी मनायी जाती है. इस आबादी में सऊदी की मुकामी आवाम, जो छुट्टियों में सैर सपाटे के साथ सभी धार्मिक स्थलों का भ्रमण, जियारत और इबादत भी करने की शौकीन हो रही है भी शामिल है. यह संख्या हर साल होने वाले हाजियों की संख्या के बराबर ही है.



उपरोक्त अध्य्यन के आलोक में यह कहा जा सकता है कि इस्लाम के पांच आवश्यक अरकान में अंतिम अरकान हज का आर्थिक महत्व कितना बडा है. क्या यही वह आर्थिक अस्त्र नहीं है जिसके रहते मक्का-मदीना के इर्द गिर्द मानव समाज-सभ्यता हज और उससे जुडे कारोबार के जरिये अपना भरण पोषण करती रही? १९६० के दशक में सऊदी में तेल की आमदनी आने के बाद निश्च्य ही इस उद्योग पर निर्भता घटी, लेकिन आज भी सऊदी अरब की सरकार जितना हज और उससे जुडे संसाधनों पर खर्च करती है, उससे कहीं अधिक आय राजा के खजाने में हर साल जमा हो जाती है. हाजियों को अपने इस धार्मिक कर्मकाण्ड का अर्थशास्त्र समझ में आना चाहिये और अपने आस पडौस, मौहल्ला, कस्बा, शहर और देश के विकास में पहले योगदान करना प्रथम लक्ष्य होना चाहिये बजाये इसके कि अपनी गाढी कमायी को किसी दूसरे मुल्क के अय्याश शासकों के खजाने भरने में लगायी जाये. बंगलादेश, पाकिस्तान, सूडान, इथोपिया, सोमालिया और भारत जैसे गरीब देशों से हज यात्रा पर जाते देख किसी को अगर प्रसन्नता होती है तो यह उसकी मूढ़ता का सबसे बडा उदाहरण ही है जिसे धर्म के कर्मकाण्ड ने मुंह छिपाने की आसान जगह दे दी है. पारलौकिक सुख की भूख ने उसे इतना खुदगर्ज भी बना दिया कि वह मरने के बाद अपनी खुशहाली के लिये उर्जा भी खर्च कर रहा है और धन भी, लेकिन जीते जी इंसान और समाज की वह मदद नहीं करेगा जिससे मानवजाति के गरीबी जैसे कोढ़ को काटा जा सकता है. तीस अरब डालर कोई छोटी रकम नहीं, बहुत से ऐसे देश है जिनकी गरीबी एक झटके में एक ही साल में दूर की जा सकती है.

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रचनाकाल: अक्टूबर २०,२०१२

फ़ोटो: गूगल

Tuesday, October 9, 2012

कौन है मलाला यूसुफ़ज़ई का दुश्मन??


हराम-टुकडखोर पाकिस्तानी तालेबान ने १४ साला मलाला यूसुफ़ज़ई पर कातिलाना हमला करने की ज़िम्मेदारी लेकर दुनिया भर के मुस्लिमों को अपना बदसूरत चेहरा दिखाया है, यह कोई पहला और आखिरी हमला नहीं. यह कोई नई वजह भी नहीं, बस उन्हें औरतों के बीच तालीम का कोई नया उभरता हुआ सितारा गवारा नहीं. हाल में इरान की मुल्लाह हकूमत ने भी विज्ञान, साहित्य, इंजीनियरिंग विषयों के अध्ययन पर महिलाओं के खिलाफ़ पाबंदी लगा दी थी. यह भी कोई न पहला मसला है न आखिरी.

दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर मुल्लाहों की इस गुण्डागर्दी का विरोध कब होगा? १४०० साल से औरत पर हो रहे इस एक तरफ़ा हमले का अंत कब होगा? आखिर कब तक जदीद सोच रखने वालों के खिलाफ़ गज़-गज़ भर दाढी रखने वाले मज़हबी डकैत अपना कब्ज़ा जमाये रखेंगे? आखिर कब तक मुसलमानों में दूसरी ख़तीजा को पैदा होने से रोका जाता रहेगा? आखिर पृथ्वी का यह खित्ता जिस पर कथित इस्लाम का प्रभाव अभी है अथवा रहा है उस पर इल्म की रोशनी का सूरज कब तक बस दूर ही दूर से मुँह चिढाता रहेगा?

पाकिस्तान के जनक जिन्नाह ने इस मुल्लाह नस्ल का मुकाबला बहुत कडे अंदाज़ में किया था, अपनी बहन फ़ातिमा का दाखिला जब उन्होंने बंबई के प्रतिष्ठित स्कूल में कराया था तब बडी दाढि़यां बिदकी थी खासकर उन्हें अपने फ़ैसले से आगाह कराने के लिये जिन्नाह ने फ़ातिमा को स्कूल जाने-आने के लिये घोडों की एक बग्गी बनवाई थी, मुल्लाह के विरोध को जिन्नाह ने अपने फ़ैसले के घोडों तले रौंदा था. आज उसी पाकिस्तान में दाढ़ियों का आतंक सर्वव्यापी हो गया है और जिन्नाह के चाहने वाले अपनी सोच और कर्म की दुकड़ियों में दुबके बैठे हैं, कभी बेनजीर के मरने का इंतज़ार कर रहें तो कभी सलमान तासीर के तो कभी मलाला..

क्या यह प्रश्न सिर्फ़ पाकिस्तान के मुसलमानों भर का है? अगर कोई ऐसा सोचता है तो गलत है, वह उस कबूतर की मानिंद है जो बिल्ली को देख कर आँख बंद कर लेता है यह सोच कर कि बिल्ली चली गयी, बिल्ली जाती जरुर है, लेकिन कबूतर की गर्दन उसके मुँह में साथ होती है.

इस्लाम के अंदर सफ़ाई की कई मुहीमें बडे बडे दानिश्वरों ने चलायी लेकिन आज जो सामने दिखाई दे रहा है उससे साफ़ जाहिर है कि अब न केवल रणनीति ही बदलनी होगी वरन हथियार भी बदलने होंगे, इस कबायली इस्लाम के कैंसर का इलाज अब एक सफ़ल आप्रेशन ही है, आज नहीं तो कल, हम खुद करें या कोई और, इसको पालने पोसने का वक्त चला गया है अब इससे छुटकारा पाना ही होगा.
 
फ़ोटो: तारिक फ़ातेह की वाल से

Saturday, May 26, 2012

भटकल सेंड्रोम से ग्रस्त भारतीय शिक्षित मुस्लिम समाज



१३ जौलाई २०११ भारत में आतंकी कार्यवाही का एक बदसूरत पन्ना है, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में इस दिन एक के बाद एक कई धमाके हुए थे, २७ निरिह, निर्दोष जानें गयीं- कोई १५० राहगीर घायल भी हुए. मुंबई ए टी एस ने अब यह केस क्रैक करने का दावा अपनी ४८०० पेजों की चार्ज शीट में किया है. अब तक ५-६ मुजरिम पकडे गये हैं, करीब इतने ही फ़रार हैं. तफ़शीश में कर्नाटक-महाराष्ट्र बार्डर पर बसे भटकल कस्बे का बडा जिक्र हुआ है. इस कायरतापूर्ण हमले की साजिश रचने वालों में कई कथित मोहरे इसी भटकल के बताये जा रहे हैं. इस कस्बे से भारी मात्रा में मुसलमान मध्य पूर्वी एशियाई देशों में रोज़गार के लिये गये हैं. मुंबई हमलों की इस साजिश में पाकिस्तान की खुफ़िया ऐजेन्सी पर भी नुक्ताचीनी की गयी है. यह मामला मुंबई पुलिस ने अब कोर्ट के समक्ष रख दिया है. अब साक्ष्यों के आधार पर यह मुकदमा अपनी किसी न्यायिक परिणिती पर पहुँचेगा या सबूतों के अभाव में यह ४८०० पेज का पुलिंदा किसी मुंबईय्या छाप फ़िल्म की पटकथा साबित होगा? यह भविष्य तय करेगा. भारतीय पुलिस खासकर सी.बी.आई की कन्विक्शन रेट कोई १० प्रतिशत भी नहीं है लिहाजा ९०% मामलों में सब फ़र्जीवाडा साबित होता है. देश की अदालतों, पुलिस, अखबारों, टी.वी और पाठकों/दर्शकों का वक्त बर्बाद जो होता है उसका कोई हिसाब नहीं. आंध्र प्रदेश की मस्जिद में हुए बम धमाके वाली आतंकी घटना में करीब एक दर्जन मुस्लिम नवयुवकों को आतंकवादी प्रचारित-प्रसारित कर उन्हें जेलों में ठूँस कर प्रताडित भी किया गया था. बाद में पता चला कि उसके पीछे हिंदु अतिवादियों का हाथ है. कौन जाने कल मुंबंई पुलिस के आज किये जाने वाले दावे चूं-चूं का मुरब्बा साबित हों तो मुझे इस पर जरा भी हैरत न होगी. उन आंध्र प्रदेश के मासूम नौजवानों को राज्य ने न कोई हर्जाना दिया है न माफ़ी मांगी, क्योंकि भारत सरकार में इस स्तर की संवेदना का आभाव सर्वव्यापी है शायद १०-२० साल अभी और लग जायें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कि अगर राज्य जनता के विरुद्ध गलत काम करे तो उसकी भरपाई करना भी उसका नैतिक फ़र्ज हो, इस लिहाज़ से भारतीय न्याय व्यवस्था अभी आदिम युग में प्रतीत होती है. क्या कभी बटला हाऊस में हुई कथित मुठभेड़ के सच को राज्य साहस के साथ बता पायेगा, सत्ता के वर्तमान स्वरुप के चलते यह शायद ही संभव हो.

१३/७ के मुंबई हमलों को लेकर मेरी चिंता का विषय जरा हट कर है जिसका उल्लेख न मीडिया करता है, न सरकार की उस पर निगाह है और न अदालतों की. वह शायद इसलिये कि वे किसी न किसी रुप में इस भ्रष्ट्रचार के खुद एक पात्र हैं. मैं पाठकों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि भटकल में जिस तेजी से मस्जिदों, मदरसों का विस्तार हुआ है उसके पीछे प्रवासी मुस्लिम समुदाय की बडी भूमिका है. मज़दूरी करने वालों से लेकर प्रोफ़ेशनल्स तक, पढे लिखे अथवा अनपढ मुसलमानों में एक मुद्दे पर व्यापक समानता है कि कोई उनसे मदरसा/मस्जिद के लिये पैसे मांगे तो वह खुद भी देगा और पडौसी से भी लाकर देगा. आमतौर पर यह चंदा ज़कात के नाम पर मांगा जाता है जो इस्लाम के मूलभूत पांच स्तंभों में से एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसकी अवहेलना शायद ही कोई करे. इन दिनों (रमज़ान पूर्व) ज़कात इकठ्ठा करने वाले मुल्लाह-व्यापारी वर्ग द्वारा मध्य पूर्व एशिया के कई मुल्कों में दौरे होते हैं, और ये लंबी लंबी दाढी वाले लोग बेशुमार दौलत चंदे के नाम पर एकत्र करके लाते हैं जिसका एक हिस्सा इन मदरसों/मस्जिदों में लगता है. एक बात स्पष्ट करता चलूँ कि धर्म का मनोविज्ञान एक ही है, चाहे हिंदू हो या मुसलमान. कौन नहीं जानता कि प्रवासी हिंदू समाज ने राम मंदिर के नाम पर अरब देशों, उत्तरी अमेरिका और यूरोप से कितना धन भारत की प्रमुख फ़िरकापरस्त पार्टी को दिया है? इसी धन के बूते पर पूरे देश में जिस नफ़रत का कारोबार किया गया, जिसमें व्यापक दंगे हुये और न जाने कितनी मासूम जानों के साथ अपार संपदा की क्षति हुई? यह सब इतिहास में दर्ज हो चुका है.

सबसे दुखद बात यह है कि ज़कात-दान देने वाला कभी यह नहीं सोचता कि उसके पैसे का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है? उन मदरसों में पढाये बच्चों का भविष्य कैसा होगा? क्या मुस्लिम समाज को उसी धार्मिक शिक्षा की आज इस दौर में भी जरुरत है जिसका प्रचलन सदियों पहले किया गया था? जाहिर है, मुल्लाह की तरबियत यह है कि तुम "यहां इतना दोगे तो अल्लाद तुम्हे वहां इतना देगा" जैसी अदावतों के चलते दानकर्ता इस पचडे में पडता ही नहीं, उसने दान देकर मरने के बाद अपनी जिंदगी संवारने का मसला हल कर लिया है. वह नहीं जानता कि इस दुनिया को नर्क बना कर अगर वह कब्र में गया तो उसका नतीजा क्या होगा? वह अपने पीछे आने वाली नस्लों को कौन सा समाज देकर जा रहा है? क्या अभी उचित समय नहीं आ गया है ज़कात देने के हम दूसरे विकल्पों पर गौर करें? क्या यह सही वक्त नहीं है कि हम यह विचार करें कि अब तक ज़कात के नाम पर जितना फ़्राड इस मुल्लाह ने किया है उसकी जांच हों? क्या वक्त नहीं आ गया है कि इन्हीं मदरसों का उपयोग अब वैज्ञानिक-व्यवसायिक शिक्षा देकर करें (कुछ जगह यह काम हो भी रहा है, लेकिन बहुत कम) ताकि इनमें पढे लोग समाज की मुख्यधारा से जुड सकें, रोजगार पाकर बेहतर जीवन जी सके और उत्तरोत्तर देश की, अपने समाज में खुशहाली लाने में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकें? क्या यह जरुरी नहीं कि इन मौजूदा शिक्षण संस्थाओं जिनमें अलीगढ/जामिया जैसे इदारे भी शामिल हैं अपने खास नज़रिये के चलते समाज में एक खास अलगाव के बीज बो रहे हैं? क्या यह जरुरी नहीं कि इस्लाम की उन तथाकथित सर्वश्रेष्ठवादी संस्कारों/शिक्षाओं का परित्याग किया जाये जिसके वहम के चलते अमन के धागे कमज़ोर हो रहे हैं? क्या यह वाजिब समय नहीं है कि हम सदियों से पिलायी जा रही जहनी घुट्टी को त्याग दे जिसमें पूरी दुनिया पर इस्लाम के वलवले का जिक्र है? क्या हम कभी हकीकत पसंद होकर इस बात को खारिज करेंगे कि दौरे खलीफ़ा फ़िर आयेगा और दुनिया के तमाम मसाईल सुलझा देगा? जाहिर है अगर इन बातों पर किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही विचार प्रणाली के माध्यम से किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, दुर्भाग्य से, इन पंक्तियों को लिखे जाते वक्त मुसलमानों का कथित पढा लिखा तबका कथावाचक ज़ाकिर नायक जैसे छद्दम विचारों में अपनी मुक्ति और शांति की राह तलाश रहा है या जन्नम में अपना मुकाम दर्ज करवा रहा है.

अफ़सोस की बात है कि यही वह तबका है जो कथावाचक जाकिर नायक को दुबई में सुनने के लिये हजारों की संख्या में पहुँच जाता है. आजकल उसे सुनने वालों में एक नया तबका और जुड़ गया है जिसे अंग्रेजी आती है या जो प्रोफ़ेशनल डिग्री लिये है. जाकिर नायक से पहले ये जलसे, मजलिसे, तब्लीगें आम तौर पर मजदूर पेशा लोगों की पहचान हुआ करती थी लेकिन किसी इंजीनियर/डाक्टर/एम.बी./आई.टी वाला आदि को अगर ज़ाकिर नायक की बातें अच्छी लगने लगें तब निसंदेह हमें विचार करना होगा कि ऐसी कौन सी जड़ता का फ़ार्मूला इनके जहनों में मौजूद है कि ४-५ साल या उससे अधिक भी, विज्ञान की पढाई करने के बाद इनके चिंतन को विज्ञान छू कर भी नहीं गुजरता? चाहे इंजीनियर हो या डाक्टर, अगर वो अपने काम को करने से पहले किसी अवैज्ञानिक क्रिया को करे तो मुझे उसकी बुद्धी पर तरस ही नहीं आता वरन गुस्सा भी आता है कि इस शख्स ने अपने जड विचारों (धर्म) के चलते पूरी व्यवस्था और उसके संसाधनों को अपने काम में लगा लिया.

पढे लिखे मुस्लिम तबके में धार्मिक कट्टारता ९/११ की घटना के बाद तेजी से बढी है. अधकचरा दिमाग इस परिघटना का कोई वैज्ञानिक परीक्षण करने में असर्मथ रहा है. वहीं इंटरनेट, मोबाईल, टी.वी. जैसे वैज्ञानिक संसाधनों के जरिये अल कायदा/वहाबी/सलफ़ियों/हिज्बुल/हमस/ब्रदरहुड जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने इस तबके को तेजी से अपनी गिरफ़्त में लिया है. आज इन संगठनों की फ़ेहरिस्त में दिन ब दिन इज़ाफ़ा हो रहा है और इनके कार्यकर्ता कुदाल-फ़ावडे चलाने वाले मज़दूर नहीं, वे कम्पयुटर, मोबाईल चलाने वाले कथित शिक्षित तत्व हैं. दुनियाभर में चल रही इस्लाम के नाम पर विध्वसंक गतिविधियां किन्हीं अनपढों के जरिए संभव नहीं हैं. ये पढे लिखे लोग ही हैं जो नौजवानों को बेतुके तर्कों के आधार पर मानव बम बनाने को प्रेरित कर रहे हैं और रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखते हैं. हर बडी आतंकी कार्यवाही में कोई न कोई प्रोफ़ेशनल ही जुडा पाया गया है. जाहिर है विज्ञान पढ कर भी अगर कोई अवैज्ञानिक नज़रिये का गुलाम है तो वह मूलत: धार्मिक व्यक्ति ही है. ये तत्व भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचुरता में पाये जाते हैं. कहीं इनका रंग हरा है तो कहीं भगुवा, ये दोनों एक दूसरे के दुश्मन जरुर प्रतीत होते हैं लेकिन बुनियादी रुप से एक दूसरे के सहयोगी ही हैं.

एक बात पर अब व्यापक सहमति बनाने की जरुरत है, कि धर्म के जरिये शांति नहीं कायम की जा सकती. आज धर्म विध्वंस का प्रर्याय बन चुका है. भारत में धर्म सार्वजनिक जीवन में अतिक्रमण का एक प्रमुख अस्त्र बन चुका है. अब यह अस्त्र प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा भी किसी न किसी रुप में प्रयोग किया जा रहा है जिसके चलते राज्य की विभिन्न संस्थायें-निकाय भी इससे प्रभावित हो रही हैं. अभी उचित समय आ गया है कि धर्म के सार्वजनिक उपयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगे. देश के सभी धार्मिक संस्थानों में जमा संपत्ति का तत्काल राष्टीयकरण किया जाये. धार्मिक शिक्षण संस्थानों पर तत्काल प्रतिबंध लगाने से पूर्व राज्य बेसिक शिक्षा (१२वीं तक) की जिम्मेदारी अनिवार्य रुप से अपने कंधों पर ले, देश भर में एक जैसी शिक्षा पद्धति लागू की जाये जिसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी किसी भी धर्म की शिक्षा न दी जाये. धर्म सिर्फ़ विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल किया जाये.

किसी भी किस्म के कट्टरपंथी को एक बात समझ लेनी चाहिये कि भले ही कितनी भी नफ़रत के हमले वह एक दूसरे पर करते रहें, तब भी उन्हें एक दूसरे के साथ ही रहना होगा. नफ़रत के कई झंझावत भारत ने भुगते हैं, बंटवारे भी हो चुके लेकिन इस मसले का हल नहीं हुआ. शायद हमारी राजनीतिक सोच ही गलत थी, हमारे कवि, हमारे नेता, हमारे धार्मिक लोग हमसे झूठ बोलते रहे, हमें शब्दजाल के मलहम लगाते रहे लेकिन हमारे घाव लगातार गहरे होते गये. अभी वक्त आ गया है कि इस नासूर को पहचान लिया जाये. धर्म नाम के इस नासूर में हमें छ्द्दमता का वह आवरण दिया जिसके नीचे जो भी चला वही स्वंय को उच्चतर समझने लगा. विचार के इस सूक्ष्म बिंदू में इस नफ़रत, हत्याओं और हमलों का भेद छुपा हुआ है. इससे पहले कि मानवजाति को और खूनखराबा देखना पडे (जिसके लिये वह रात दिन तैयारी कर रहे हैं) आओ इसको समूल नष्ट करें. धर्म को सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यक्तिगत विषय बना दें उसके किसी भी समाजिक क्रिया का बहिष्कार करें क्योंकि सामाजिक स्वीकार्यता ही आगे बढ़कर उसके लिये राजनीतिक आवरण का आधार तैयार करती है. राज्य से धर्म की पूर्ण निरपेक्षता ही हमें किसी शांतिपूर्ण जीवन का रास्ता दिखा सकती हैं. पहले अपना घर ठीक कर ले फ़िर धर्म आधारित राज्यों का बहिष्कार करना दूसरा चरण होगा जिसका चरित्र अंतरार्ष्ट्रीय होगा.

Tuesday, March 27, 2012

और हम चुप क्यों हैं?

और हम चुप क्यों हैं?


(सावधान: कुछ दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं)

कल से पडौसी मुल्क की तिजारती राजधानी में हालत-ए-खाना-ए-जंगी है, मार काट चल रही है, दुकानें, गाडियाँ, मकान फ़ूँके जा रहे हैं कराची में- मुसलमान मुसलमानों को मार रहे हैं, अब तक ८ के मरने की खबर है (पिछले साल ये आंकडा कोई १००० के करीब था)..लेकिन कोई खबर नहीं बनती, न चर्चा होती न कोई पोस्ट बनती...पाकिस्तानी सेना बलोचियों की नस्ल कुशी करे कोई हरकत नहीं होती...तालेबानी पठान, पाकिस्तानी फ़ौजियों और उनके सहायकों को लाईन में खडा कर के जानवरों की तरह मार दे, कोई खबर नहीं बनती..इस्लामी दहशतगर्द सूफ़ियों की कब्रें बमों से उडा दें- कोई कुछ नहीं बोलता?

और थोड़ा दूर चलें..इराक में शिया मुसलमानों के धार्मिक उत्सव के दौरान कोई खुद को बम से उडा ले, दर्जनों साथ में ले मरे..कोई परवाह नही करता? मुद्दतों से कुर्द आज़ादी के लिये लड़ रहे हैं- इरानी, इराकी और तुर्की फ़ौजें कभी भी बम बरसा दें.. पकड़ लें, फ़ांसियां दे दें, गोली मार दें...सब स्वीकार हो जैसे? मोरक्को के कब्ज़े से मुक्ति के लिये आधुनिक युग का सबसे बड़ा वेस्टर्न सहारा में पोलिसारियो का आंदोलन किस तरह देखते ही देखते इस्लामी राजा द्वारा समूल नष्ट किया जा रहा है...लेकिन हम चुप हैं, कोई पत्ता तक नहीं हिलता..न किसी खबर से और न ही यू.एन.ओ. में कोई प्रस्ताव आता है. इण्डोनेशियाई सरकार के वर्दीधारी दरिंदों ने ईस्ट टाईमोर पर २४ साल तक क्या कहर ढाया था..इस पर हम चुप थे...सऊदी हवाई हमले दक्षिणी यमन में फ़ूल नहीं, बम बरसातें हैं, उसमें पहाड़ियां नहीं टूटती...उसमें भी जीते जागते इंसान मरते हैं, सऊदी फ़ौजी बहरीन में बलवा शांत करने के लिये बिरयानी लेकर नहीं गये..जदीद हथियारों के साथ वहां गये हैं...असद सरकार सीरिया में अब तक ८००० लोगों की हत्यायें कर चुकी है, मुबारक ने और गद्दाफ़ी ने क्या किया आप जानते ही हैं..

बोको हराक जैसे इस्लामी संगठन इस्लाम के नाम पर नाईजीरिया में हत्या, दमन और वसूली का कारोबार चलाये हैं, अल शादाब सोमालिया में कितनी गैर इंसानी हरकतों में मुल्लव्विस हैं इस पर हम मुजरिमाना तरीके से खामोश हैं? इरानी जेलों में पडे कैदियों पर हो रहे तशद्दुत पर, इरान में जन आंदोलनों के दमन पर, जन-नेताओं की हत्याओं/फ़ांसियों पर हम चुप हैं..क्यों?

इस्राईल के बम फ़लस्तीनियों पर जब पडें, अमरीकियों की तोपें जब अफ़गानिस्तान, इराक में गरजें..भारतीय फ़ौजियों की गोली जब कश्मीर में चलें सिर्फ़ तभी इंसान नहीं मरते. मुसलमान हकुमतों के गुनाहों पर चुप्पी कब तक साधेंगे? इस्लामी औपनिवेशिक प्रवृतियों के खिलाफ़ बोलना अपराध नहीं है...इंसाफ़ और हक की आवाज़ सेलेक्टिव नहीं होती. मज़हबी किताब फ़ाड़ने से पूरा अफ़गानिस्तान सड़क पर था, अमेरिकी सिपाही ने जब अफ़गान गांव में घुस कर १६ नागरिक मार डाले थे..तब इतना बडा मसला बना कि ओबामा ने माफ़ी मांगी...ये मुसलमान हकुमतें कभी यमन में, कभी बहरीन, कभी कुर्दिस्तान में कभी बलोचिस्तान में अनगिनत लोगों की हत्यायें हर रोज़ कर रही है...बलोच आज़ादी के लडाकुओं को मार कर उनके बदन पर चाकू से "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" खोद कर हेलीकोप्टर से नीचे पहाडियों पर, जगंलों में उनके शव फ़ेंक दिये जाते हैं...और हम क्यों चुप हैं?






चित्र सौजन्य: गूगल