Friday, October 14, 2011

क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!






क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!

मिस्र की जन क्रांति के अभी कसीदे गढे जा ही रहे थे कि इस आवामी एक जुटता को तोडने और उसे नेस्तेनाबूद करने की खबरे आने लगी, हालांकि मुबारक सरकार के गिरते ही इन घटिया हरकतों की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन अब मिस्र के मूलनिवासी जो कोप्टिक चर्च के अनुयायी है, जिनका इतिहास चौथी शताब्दी (४०० ऐ.डी.) पुराना है जिनकी संख्या कुल मिस्र की आठ करोड आबादी का कोई १० प्रतिशत है, दुनिया के सबसे पुराने चर्चों में उनका शुमार होता है, उनके धर्म स्थानों और अनुयाईयों पर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा हमले संगठित रुप से किये जा रहे हैं. अभी तक इन संघर्षों में कई चर्च हिंसा के शिकार हुए हैं और सैंकडों काप्टिक ईसाईयों की जाने जा चुकी हैं कल ही काहिरा में हुई हिंसा में २५ लोगों के मरने की खबर है.
ध्यान रहे, मिस्र की क्रांति जिसने चार दशक पुराने मुबारक के ताकतवर पुलिस-स्टेट को अपनी शानदार एकता के चलते ध्वस्त किया था, इस जन क्रांति में पूरे देश की जनता एकजुट होकर लडी थी जिनका सिर्फ़ एक ही मकसद था मुबारक सरकार को उखाडना और उसके स्थान पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को बनाना. इस क्रांति की तीन प्रमुख धारायें थी, फ़ेसबुक एक्टिवीस्ट नौजवान समुदाय, कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले किसान, मजदूर नौजवान और तीसरा मुस्लिम उग्रवादी विचारधारा से लैस ब्रदरहुड, जिसे जन सैलाब में शिरकत करने का फ़ैसला लेने में ४ दिन लगे. यही वह संगठन है जिसे मुबारक सरकार में न केवल मुख्य विपक्ष की भूमिका भी मिली और रियायतें भी, इस संगठन से सहमति रखने वाले मुबारक सरकार में मंत्री भी थे, यही वह राजनीतिक दल भी है जिसके पास अपना एक कारगर संगठन है. जाहिर है इस संगठन का मूल उद्देश्य मिस्र में इस्लामी शासन, शरिया कानून को ही सख्ती से लागू करना है और मिस्र में फ़तह का झण्डा गाड कर पूरे दुनिया में इस्लामी हकुमत स्थापित करना इनका अगला स्वभाविक ऐजेण्डा होगा.
पिछले कई महीनों से मिस्र की जनता की एकता को तोडने और पूरे समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश वही करेगा जिसे इसका कुछ माह बाद होने वाले चुनावों में फ़ायदा होगा. मौजूदा अंतरिम सरकार यदि पिछले कई महीनों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के अभियुक्तों को पकड पाती, उन्हें नंगा कर पाती तो स्थिती दूसरी होती, लेकिन मौजूदा अंतरिम सरकार में न तो वह इच्छा शक्ति है और न वह इतनी सक्षम कि इस राजनीतिक पहेली को हल कर सके.
कितनी अजीब बात है, सभी धर्म शांति- शांति स्थापित करने की बात करते हैं और वह शांति पिछले ३-४००० सालों में कभी स्थापित नहीं हुई. धर्म हत्या और हिंसा को मानो वैधानिक रुप देने के लिये शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार बन चुका है जिसका इस्तेमाल वह अपने हितों की रक्षा करने में कितनी भी निर्ममता से कर सकता है और ऐसा किया गया हर कार्य विधिसम्मत ठहरा दिया जाता है. हम भारतीयों से अधिक इसका भुक्त भोगी और कौन होगा? अपने पौराणिक इतिहास से लेकर २००२ के गुजरात के दंगों तक, इसको जायज और नाजाएज बताने के असंख्य तर्क धार्मिक दृष्टिकोण से दिये जा सकते हैं.
मिस्र में आज जो नज़ारा दिखाई दे रहा है, वह इस बात का क्या स्पष्ट प्रमाण नही कि धर्म समाज में सांमजस्य स्थापित करने में पूरी तरह विफ़ल रहा है इसके विपरीत इसकी उपस्थिती मात्र से ही जनता के संघर्षों और उसकी एकता को एक झटके में तोडा जा सकता है. जिस आठ करोड आबादी ने अभी अपने सिर से मुबारक का जुआ उतार फ़ेंका है वही जनता अपने मूलभूत धार्मिक अंतर्विरोधों के कारण अपनी एकता की बलि दे रही प्रतीत होती है.
क्या यह उप्युक्त समय नहीं कि धर्म को हम व्यक्ति का बेहद निजी विषय घोषित करते हुए उसके सामाजिक-राजनैतिक सवरुप को खारिज करें? क्या यह सही वक्त नहीं कि दुनिया में जहां जहां धर्म आधारित राज्य हैं उनकी सदस्यता सयुंक्त राष्ट्र संघ से खारिज करने का दबाव बनाया जाये? क्या ऐसे राष्ट्रों पर लोकतंत्र स्थापित करने का दबाव न डाला जाये? क्या इन देशों का आर्थिक, राजनीतिक बहिष्कार न किया जाये? क्या इस बात पर अब भी बहस की कोई गुंजाईश है कि मज़हब जब आपके घर की दहलीज़ पार करता है तब वह धर्म नहीं वरन राजनीति बन जाता है? क्या धर्म के नाम पर होने वाले तमाम जलसे जुलूस समाज में विभिन्न धर्मावलंबियों के मध्य प्रतिद्वंदिता को जन्म नहीं दे रहे? क्या आज भी इस गांधीवादी बकवास पर यकीन किया जाये कि एक अच्छा हिंदू या एक अच्छा मुस्लिम बनने से समाज में वैमनस्य स्माप्त हो जायेगा? क्या ऐसा अभी तक हुआ है या अभी तक समाज एक अच्छा हिंदू अथवा मुस्लिम बना ही नही सका? अगर अभी तक बना नहीं सका तो आगे कितने हजार वर्षों की प्रतीक्षा हमें करनी होगी कि एक सभ्य समाज बने? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच में, अथवा हमारे तथाकथित स्वर्ण सिद्धांतों में ही कोई खोट न हो?
धर्म के अंतर्विरोध को जिन समाजों ने हल कर लिया है वहां प्रगति हुई है. क्या यह कहना अनुचित होगा कि आज पूरी दुनिया में वही समाज विकास की दौड़ में पिछडे हुए हैं जहां-जहां धर्म उनके समाज में जीवन-रक्त बन कर दौड़ रहा है. पूरा अफ़्रीका, मध्यपूर्व और दक्षिणी एशिया में धर्म के नाम पर गदर मचा हुआ प्रतीत होता है और आश्चर्य होता है यहीं विकास की चिंता भी गौंण है और इन्हीं तथाकथित धर्मपरायण देशों के न केवल शासक बल्कि जनता भी सबसे भ्रष्ट है. हमें अभी कितनी और शहादतें देनी हैं कि हम इस नतीजे पर पहुंचे कि जो अब तक किया वह धर्म नहीं बल्कि राजनीति थी, वह भी मध्यकालीन राजनीति..धर्म के फ़ूल भी रोजी-रोटी के प्रश्न को हल करने के बाद ही खिलते हैं, उसकी सुबास, उसकी रंगत तब कुछ और ही होगी और वह सर्वथा इस हथियारनुमा धर्म से भिन्न होगा जिसके लिये हत्यायें करना आसान था, हत्याओं का प्रयोजन ढूंढना सरल और संभव था लेकिन मनुष्य को इंसान बनाना मुश्किल.
 
 

Sunday, October 9, 2011

फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....




फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....

पिछले दिनों पाकिस्तानी फ़िल्म बोल देखी, कई दिनों से बोलने की सोच रहा था, आखिर ये उकसाने वाली फ़िल्म है शौयब मंसूर की, जिसे उन्होंने लिखा भी और निर्देशित भी खुद किया..साहित्य समाज का दर्पण होता है और फ़िल्में समाज का अक्स, दुनिया में जैसे ड्रामे पाकिस्तान में लिखे जाते है शायद और कही नहीं लिखे जाते, उसकी वजह है कि वहां का लेखक अभी भी जमीन से जुडा है. दुनिया में सबसे भौंडी फ़िल्में अगर कहीं बनती हैं (तादात के मुताबिक) तो शायद भारत में क्योंकि यहां लेखक फ़िल्म लिखता ही नहीं जो फ़िल्म लिखता है वह लेखक नहीं है (आमतौर पर) लिहाजा विषय की गुणवत्ता और भारतीय हिंदी फ़िल्में एक दूसरे की तरफ़ कमर किये खडी हैं.
बोल फ़िल्म, इसका विषय-चयन और कहानी कहने का ढंग निराला है, हमारे यहां ऐसी विषयवस्तु १९७० के दशक तक फ़िल्मों में बहुदा देखी गयी, अभी पाकिस्तान को इसका सामना है, नया तबका हिल्लोरे ले रहा है और इस्लाम के नाम पर पुरानी रिवायतों को ज़िन्दा रखने की मशक्कत भी है. फ़िल्म एक हकीम और उसके परिवार की कहानी है जो १४ बच्चे पैदा करता है ६ जीवित बचते हैं सभी लडकियों में एक लडका है वह भी लडकियों जैसा जिसे किन्नर कहते हैं. बहनों की कोशिश है कि वह मर्द बने. पढाई- लिखाई में इस मज़हबी हकीम का कोई यकीन नहीं लिहाजा दर्जे ४-५ के बाद कोई स्कूल नही जाता, इस लडके को लोक लाज की वजह से स्कूल भी नहीं भेजते..बहनें इसे काम पर भेजने की कोशिश करती है तो बाहर समाज में लडकों से सेक्स के भूखे गिद्धों को ये "टाईट माल" लगता है सो मौका मिलते ही नौंच लेते हैं इसे. बाप को पता चलता है तो वह इस्तखारा देख कर; अल्लाह का हुक्म समझ कर, अपने बेटे की कत्ल कर देता है. इसी कशमकश में बडी लडकी जो तलाकयाफ़्ता है से, बाप के ताल्लुकात खराब हो जाते हैं और बेटी अपने बाप की हत्या का कारण बन जाती है.
जेल जाती है, फ़ांसी की सजा होती है क्योंकि वह अपना कोई बचाव नही करती, बस मरने से पहले अपनी कहानी मीडिया को सुनाती है और कहानी लौट लौट कर फ़ांसी के तख्ते पर जाती है.
शौयब मंसूर ने कई मसले बडे करीने से एक साथ गूंथ दिये, मुस्लिम समाज में हीजडों की जगह, मुस्लिम समाज में औरत का व्यवहारिक स्थान, मुस्लिम समाज में लडकियों की शिक्षा का स्थान, मुस्लिम समाज में तवायफ़ें और उनका स्थान...कई मसलों पर ये फ़िल्म सिर्फ़ बोलती नहीं बल्कि बेतहाशा चीखती है, आखिर चीखे भी क्यों नहीं? अल्लाह के नाम पर लगातार बच्चे पैदा करने वाले मुस्लिम समाज पर यह निश्च्य ही एक कडा प्रहार करती है और इस बेहूदा प्रचलन पर एक प्रश्नचिन्ह भी लगाती है. पाकिस्तान को इस्लाम के नाम पर बनाने वाले ठेकेदारों ने पिछले ६० सालों में आखिर आवाम को दिया भी क्या? कुछ भी तो नहीं...वही भूख, वही गैरबराबरी, वही बे इंसाफ़ी, वही मुख्तारा बाई के मसले..और साथ ही साथ हर साल बढता मज़हबी जुनून..बस पिछले ६० सालों में मुल्क में दाढियां बढी है या इधर उधर से जुगाड कर बनाया है बम. बाकि सारे सामाजिक और आर्थिक मसले जस के तस है, कहावत है कि कीचड में ही कवंल खिलते हैं..अभी तक कीचड ही कीचड देखी, बोल देख कर लगा कि कंवल भी जरुर खिलेगा, जिस दिन यहां कंवल खिला उसी दिन दुनिया के सबसे बडे झूठ-फ़रेब और सियासी बेइमानी से भी नकाब उठ जायेगा..जिसके बूते इस स्थान का नाम पाक (पवित्र) रखा मानो बाकी संसार अपवित्र हो, ये अलग बात है कि आज पाकिस्तान को बाहरी दुनिया सिर्फ़ अपनी अपवित्र हरकतों और अमल के नाम से ही जानती हो.
....फ़िल्म देखते हुये एक कमी खलती है, लगता है जैसे ड्रामा देख रहे हों, ठीक ऐसा ही "खुदा के लिये" देखते हुए भी लगा था, स्क्रीन प्ले पर अभी काम करने की बहुत जरुरत है, काश कि बजट भी बेहतर होता मंसूर के पास तो और खूबसूरत बन सकती थी फ़िल्म. शफ़क़त चीमा ने भडुवे का रोल ज़बरदस्त किया है बाकी हकीम की भूमिका में मंज़र सहबाई, इमान अली ने तवायफ़ और हुमैमा मलिक ने मेन लीड, बडी लडकी के रोल में अच्छा काम किया है.आतिफ़ असलम बस चाकलेटी हीरो है, उनके रोल में कोई गुंजाइश भी नहीं थी.एक बार जरुर देखने के लायक है ये फ़िल्म, कई बार रुलाती है और पीछे छोड़ती है सुलगते सवाल, जिन पर तवज्जो देने की फ़ौरन ज़रुरत है.

छाया संकलन" गूगल

Friday, August 5, 2011

रमज़ान: मेरे लिये ज़िल्लतों का महीना क्यों हुआ करता था..?




रमज़ान का महीना जारी है और कहा जाता है कि शैतान बन्द होते हैं, इंसान बदी से बचता है और इस अस्थायी जीवन के बाद जो स्थायी जीवन मरणोपरांत आरंभ होगा, वह सफ़ल हो, उसमें कोई दिक्कत न हो, जन्नत मिले, हूरें मिले, गिलमान मिलें, शराबें, शहद और अपरिमित, इन्द्रयातीत सुख मिले..इसलिये रमज़ान में इबादत करना..रोज़ा रखना, चोरी न करना, झूठ न बोलना, किसी को सताना नहीं, गलत सोहबत न करना, व्याभिचार न करना, पाँचों वक्त की नमाज़ पढना, (तरावी के साथा) यह सब पूरे एक महीने का सालाना कार्यक्रम पिछले १४०० सालों से जारी है. इसके क्या नतीजे निकले, इस मिशन में किसको क्या मिला..जो मर चुके उन्हें क्या क्या मिला? इसका न कोई प्रमाण है न यह कोई अनुसंधान का विषय है.
उपरोक्त उद्देशयों (जीवनोत्तर नहीं) के प्रति किसी को क्या बैर होगा? शैतान को एक महीने के लिये ही क्यूँ बंद रखा जाये? अगर इस एक महीन की कसरत के कोई आध्यात्मिक पहलू हैं तब इसे मनुष्य की कीमिया ही बदल देनी चाहिये थी ताकि यह सात्विकता की चिप ता उम्र आपको बुरे काम से बचा कर सदकर्म की तरफ़ ले जाती रहे, क्या ऐसा हुआ है? शायद नहीं..बल्कि इसके बरक्स इस्लाम की तारीख की बडी बडी फ़ौजी कार्यवाहियां रमज़ान के महीने में हुई हैं, हत्यायें हुई हैं और यह सिलसिला अब तक जारी है, शासकवर्ग ने इस महीने का जम कर इस्तेमाल किया है, मिसाल के तौर पर, सीरिया में असद की फ़ौजें और उनके टैंक आंदोलनरत जनता पर इस वक्त भी आग बरपा रहे हैं. पिछले साल दो नौजवानों को पाकिस्तानी पंजाब के एक कस्बें में जनता ने लाठी-ईंटो से मार कर कुएं पर लटका दिया था, मरने वालों में एक हाफ़िज था, दोनों रोज़े से थे और मारने वाले भी रोज़दार थे और उन्हें मार कर इस पृथ्वी का नरक साफ़ करने का दैवीय कर्म कर रहे थे. क्या रमज़ान के महीने में पाकिस्तान के सरकारी मुलाज़िम रिश्वत नहीं लेते? क्या इस महीने में सुऊदी शेख अय्याशियां बन्द कर देते? क्या दुबई-शारजाह में शराब और देह व्यापार बंद हो जाता?
एक सबसे बडा प्रपंच इस महीने में जो होता है, जिसका मैं बहुत शिकार हुआ हूँ वह यह कि जो ये सब कर्मकांड करता है, वह एक अजीब से फ़ख्र के गुमान में जीता है, वह यह तस्सव्वुर करता है कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है और सर्वोपरि भी और जो व्यक्ति यह सब क्रियायें नहीं करता उसे वह दुनिया का सबसे निकृष्ट, नीच और बेकार, काबिले दार व्यक्ति समझता है. उसे बेपनाह हिकारत की नज़र से देखा जाता है, है न अजीब अन्तर्विरोध?
इस बात को सभी मुसलमान जानते हैं कि मुसलमानों का एक बडा वर्ग रोज़ा नहीं रखता और उन्हें जाने अंजाने में इन रोज़दारों की सांस्कृतिक हिंसा और व्याभिचार का सामना होता है. उन्हें अगर खाना खाना है तो यह अहसास दिलाने से नहीं चूका जाता कि यह गुनाह है. अगर वह नमाज़ नही पढने जाता तो उसे बार बार जाकर याद दिलाना और तौंसना नहीं भूलते..शायद ऐसा करने का उनके पास धार्मिक दण्डसंहिता से अधिकार मिला है क्योंकि इस्लाम में असहमति का कोई रास्ता ही नहीं है. एक हिंदू या अन्य धर्म का अनुयायी बाप इस बात को जितनी सहजता के साथ स्वीकार कर लेता है कि उसका बेटा मंदिर नहीं जाता या पूजा पाठ नहीं करता लेकिन मुसलमान बाप के लिये यह प्रश्न जीने-मरने का सवाल बन जाता है. मुसलमान बाप इस विषय पर आमतौर पर सहज रह ही नहीं सकता यदि उसकी औलाद उसके धर्म का अनुनयन न करें.
रमजान के महीने में मुस्लिम होटल अगर बंद न हो तो उनके दरवाजों पर पर्दे टंग जाते हैं, क्यों? आखिर असहमति का इतना सामाजिक बहिष्कार क्यों? ये चौदहवी सदी का सामाजिक प्रारुप आखिर कब तक चलेगा? इन असहमतियों को सामाजिक स्पेस अगर इस सदि में नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा?
मैं और मेरा दोस्त इशरत जब अपने छात्र जीवन में नये नये कम्युनिस्ट हुये तब रोज़े नहीं रखने का फ़ैसला किया..हमारे घरों में दोपहर को चूल्हा न चढता था, रोज़दार दोपहरी में पडे सोते और हम मारे भूख के इधर उधर टटोलते..उसकी अम्मी मरहूम आपा हज्जन जिन्हें मैं कहता..पता नहीं कहां से आती और चुपके से दुबारी में आकर हमें हाथ में रोटियां थमा जाती जिसमें सालन लिपटा होता या चंगेरी थमा जाती, जिसे वह अपने दुपट्टे में या चादर में छुपा कर लाती, हम दोनों भूखे उन रोटियों पर टूट पडते जो सहरी की बनी होती. आपा हज्जन चुपके से कह कर जाती.."भैय्या बुरी बात है, रमजान रखा करो" लेकिन अगले दिन अगर हमें दुबारी में देखती तो उनका सीना पसीजता और हमें खाना नसीब होता.
भूख के प्रति आपकी संवेदना जाग्रत हो, इस लिये रोज़े का महत्व था, कि समाज भूखा है, तुम भी भूखे रहो कुछ दिन..खाद्यान्न कम थे, उनका समायोजन भी रहा होगा, लेकिन कोई जाविया अगर कर्मकांड बन जाये तब उसकी आत्मा मर जाती है और हम मरे हुए नियमों की लाशे ढोते हैं, यही कारण है कि इस मध्यपूर्वी देशों में अन्न का जितना अपमान इस महीने में होता है शायद कभी नहीं होता? जो लोग वहां रह रहे हैं, रहे हैं वह इसकी पुष्टी करेंगे. रमज़ान के नाम पर पूरे एक महीने सरकारी काम एकदम ठप्प पड जाता है, अरबी १० बजे आता और १ बजे चला जाता, प्राईवेट कम्पनी में ३ बजे सब बंद हो जाता, सब दबा कर सोते...अगर इनके पास कोई उद्योग इंडेक्स हो तो पता चल जायेगा कि इस महीने में उत्पादन कितना गिर जाता है? हां खाद्यान्नों की सेल बढ जाती क्योंकि अगर आपकी ग्रोसरी का मासिक खर्च ५०० रु० है तो यह इस महीने में १००० रु० से ज़्यादा होगा, यह है नतीजा..इस्लामी कमखर्ची का. आजकल इफ़्तारी का चलन चल पडा है, जिसके जितनी औकात उससे ज़्यादा खर्च करता, समाज में रुतबा स्थापित करने का एक प्रयाय बन चुका है जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अश्लीतता ही कहा जा सकता है.
मेरे कस्बे में एक बुजुर्ग रहते थे, कहां से आये, कहां के थे कुछ पता नहीं था, बस एक मस्जिद की कोठरी सी थी जिसमें खाट भी न आती थी...पूरे रमज़ान उससे बाहर न निकलते थे, बस रोज़ा-नमाज़-तिलावत...मुझे इसलिये पता है उनका कि मेरे वालिद मुझ से कई बार वहां खाना भिजवाया करते थे. अब किरदार की जगह दिखावे ने ले ली है, न वो बुजुर्ग रहे न मेरी आपा हज्जन जो बेहतर इंसान थी, बिना किसी दिखावे के, बिना किसी इतराहट के वो हम जैसे असहमति रखने वालों को भी वाजिब जगह देती थी. आपको रोज़ा नमाज करना है, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जो नहीं करना चाहते, उनका अगर स्म्मान नहीं कर सकते तो कम से कम अनादर करना बंद करो.
आपसे भी गुजारिश है, मेरे तरह अगर आपके घर में खाने की इंतज़ार में बैठा हो, उसकी सुध लीजिये, यकीन कीजिये आपका रोज़ा सही अर्थों में और पुख्ता होगा. असहमतियां सिर्फ़ विरोध नहीं होती, आपको आगे बढने के लिये वह प्रेरक होती है, चाहे दर्शन हो, या राजनीति अथवा व्यवसाय. जिन समाजों ने जितनी जल्दी यह जान लिया, उनती ही जल्दी उन्होंने प्रगति की.

Wednesday, March 16, 2011

बहरीन में विदेशी फ़ौजी दख़ल: सऊदी/वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकाक्षाऐं



बहरीन में विदेशी फ़ौजी दख़ल: सऊदी/वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकाक्षाऐं

फ़ेसबुक पर मेरी ६ मार्च की पोस्ट से उद्धरत:- "राजा अब्दुल्लाह इसे आवामी जन विद्रोह को शिया विद्रोह- इरानी षडयन्त्र के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन कर दे."

आज जब इस वक्त मैं यह लिख रहा हूँ, बुधवार की रात को पर्ल चौक बहरीन पर सऊदी सैनिकों की उपस्थिती में एक नीम फ़ौजी कार्यवाही करके वहां गत दो माह से चल रहे जन विद्रोह को दबा देने की
एक और कोशिश की जा रही है, इससे पहले फ़रवरी मध्य में भी ऐसी ही कार्यवाही के बाद पर्ल चौक खाली कराया गया था.

मेरी पिछली पोस्ट और इस लेख के मध्य कई बडी घटनायें हुई..लीबिया में गद्दाफ़ी को हारा हुआ माना जा रहा था लेकिन उसके बरअक्स, गद्दाफ़ी की सत्ता पर पकड मजबूत होती गयी, उसके सैनिकों ने एक के बाद एक विद्रोहियों के इलाके से जवाबी कार्यवाही करके उन्हें मुक्त कराया या ऐसा ऐलान किया. जापान में भयंकर भूकंप और सुनामी (११ मार्च) से दस हजार लोगों की जाने गयी, परमाणु विकिरण पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान जैसे ही गया, राजा अब्दुलाह ने अपने छुटभैय्ये राजाओं के गुट के परचम तले (जी.सी.सी. सऊदी, यमन, कतर, बहरीन, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात) १५०० फ़ौजी, अमेरिकी हथयारों से लैस बहरीन में दाखिल हो गये (मार्च १४). योजना बद्ध तरीके से इस पूरे कार्यक्रम को सजाया गया. बुध की रात फ़ौजी कार्यवाही, गुरुवार को सफ़ाई-धुलाई और जुमे के दिन राजा बहरीन की फ़तह का
ऐलान...सऊदी राजा अब्दुल्लाह अपने पडौस में खून बहाकर अपने पूर्वी प्रांतो में चल रहे जनांदोलनों को दबा देना चाहता है. दक्षिणी यमन पर सऊदी बमवर्षकों ने शिया अलगाव वादी ताकतों के विरुद्ध यमन के राष्ट्रपति सालेह के हक में न केवल एक सैन्य सहायता को चिन्हित करता है वरन वह अपनी शिया आबादी को भी अपने लोहे के बारुद भरे दांत दिखाना जैसा है.

अरब जागरण, जिसकी शुरुआत ट्यूनीसिया से एक जन क्रांति के रुप में शुरु हुई उसका स्वरुप सऊदी आते आते शिया- सुन्नी कर देने का पूरा इन्तेजाम कर दिया गया है. राजा अब्दुल्लाह का यह तुरुप का पत्ता, बहरीन में सऊदी फ़ौजी हस्तक्षेप के माध्यम से अब खुल चुका है. बहरीन के जन विद्रोह को इरानी साजिश और शिया षडयंत्र की आड़ में क्रूरतापूर्वक दबा कर सऊ
दी शासक न केवल अपनी जनता को यह संदेश दे रहे हैं कि वह मुबारक या ज़ेन अली नहीं जिसे आसानी से हटाया जा सके. सत्ता के अधिकरण और उसके हिंसक बचाव का जो रास्ता गद्दाफ़ी ने चुना है वही रास्ता राजा अब्दुल्लाह और उसके समर्थक अन्य राजा क्यों नही चुन सकते? सऊदी अरब का सबसे मुखर साथ संयुक्त अरब अमीरात ने दिया है, यह याद रहे कि इन दोनों देशों में जनता का एक बडा वर्ग सरकारी सहायता पर जीवन बसर करके परजीवी बन चुका है, समाज के इस तबके ने न समाज को अभी तक कोई रचनात्मक सहयोग दिया है और न वह भविष्य में ऐसा कर सकता है, अपने स्वभाव से वह शुद्ध रुप से प्रतीक्रियावादी है और राजाशाही का प्रबल हामी भी हैं, जिन्हें अच्छी कारें, अच्छे घर, अच्छी औरतें और तमाम तरह के अय्याशी के साधन आसानी से मुहैय्या हैं, इनकी सफ़ेद इमारतों, कारों और कपडों के नीचे से किसी विद्रोह के फ़ूटने की आशा करना व्यर्थ है. प्राय: दोयम दर्जे के कबीलों से बनी फ़ौज पर सऊदी और खलीज के अन्य राजाओं की सेनाओं का स्वरुप कमोबेश एक सा ही है. बडी तनख़्वायें और सुख
सुविधायें फ़ौज के इस वर्ग को किसी भी आर्थिक तनाव से बचाये रखने में सक्षम हैं, राजाओं का कबीला आमतौर पर दूसरे कबीलों से समर्थन खरीद ही लेता है और सत्ता को किसी प्रकार की मिलने वाली चुनौती से महफ़ूज़ रखता है. तेल की कमायी का एक बडा हिस्सा इन्ही वफ़ादारियों को खरीदने में बखूबी तौर पर, एक निवेश के रुप में राजाओं ने भलिभांति लगाया है.

सऊदी शासकों के इस कदम का रद्देअमल इरान ने बडे तीखे बयानों के माध्यम से व्यक्त किया है, इरानी नेताओं ने सार्वजनिक रुप से बहरीन में विदेशी सेनाओं की भर्तस्ना की है और उसके घरेलू मामलों में बाहरी हस्तक्षेप बताया है. सऊदी फ़ौजी बूटों की धमक लेबनान तक सुनी गयी, हिज़्बोल्लाह ने कड़े शब्दों में सऊदी फ़ौजी हस्तक्षेप की निन्दा की है, जाहिर है इरान और हिज़्बोल्लाह की इसी तीखी प्रतिक्रिया का इंतेज़ार सऊदी शासकों और उसके सहयोगियों को भी रहा होगा, इरान और उसके सहयोगियों के बयानों से सऊदी शासकों, वहाबियों द्वारा खाडी के देशों में चल रहे असंतोष को शिया षडयंत्र बता कर खारिज करने वाले तर्कों को पुष्ट करने का मौका मिलेगा.

जाहिर है, खाडी के देशों में बदल रहे तेजी से इस घटनाक्रम को पूरी दुनि

या का मुसलमान गौर से देख रहा है, मुस्लिम देशों के वैचारिक भतभेद उभर कर सामने आये हैं. इस्लाम के नाम पर चल रही दो समानान्तर व्यवस्थायें (सुन्नी बहुल खाडी देशों के राजा अथवा तानाशाह बनाम शिया विचारधारा के वाहक इरान और लेबनान में उसका समर्थक हिज्बोल्लाह) अपने अपने प्रतिक्रियावादी स्वरुप को स्पष्ट रुप से दिखा चुकी है. दोनों व्यवस्थायें जन विरोधी और अलोकतांत्रिक हैं. खाडी के देशों का किस्म किस्म का इस्लामी समाजवाद सबने देखा है. अब बहरीन में सीधी कार्यवाही के बाद वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षायें भी स्पष्ट रुप से देखी जा सकती है. इरानी छाप इस्लाम का छद्दम जनवाद खुमैनी के ज़माने से देखा जा रहा है जिसके परख़च्चे गत वर्ष हुये राष्ट्रपति के चुनावों के बाद पैदा हुए जनरोष और इरानी सत्ता द्वारा किये गये उसके दमन को पूरा विश्व देख चुका है. इरान के लेबनान में हस्तक्षेप और हमस के साथ उसका गठजोड को पूरी दुनिया जानती है. इरान खुद इरान की सीमाओं के बाहर शिया समुदायों को पैसा, हथियार देने में मुलव्विस रहा है (लेबनान के हिज्बुल्लाह, हमस-फ़लस्तीन,अफ़गानिस्तान के शिया समुदाय, पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रान्त में शिया समुदाय आदि) अथवा उसके पास सऊदी अरब के बहरीनी हस्तक्षेप के विरुद्द ब्यान बाजी करने का कोई नैतिक आधार नहीं है.इरान ने अपने इस्लामी जनतंत्र के चलते, अल्पसंख्यकों खासकर बलोच आंदोलन का क्या हश्र किया है सभी जानते हैं. महिला अधिकारों, अन्य जन अधिकारों, मज़दूर यूनियनों आदि पर उसका रुख सर्वविदित है. सऊदी पैसे के बूते देश के बाहर इस्लामी क्रांती का जिम्मा वहाबियों ने मदरसों के जरिये जितना किया है उतना ही काम इरान ने भी किया है. बडे अचरज की बात है कि सऊदी राजा के इस फ़ैसले पर भारत और पाकिस्तान के उलेमाओं ने कुछ ब्यान बाजी नहीं की, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि किसका पक्ष लें? दोनों ही फ़िरके सहमें हुये किसी एक पक्ष की निश्चित जीत का इंतज़ार कर रहे हैं. भारत में ये दोनों फ़िरके अपने अपने ब्राण्ड के इस्लाम की जीत और उसके संघर्षों, सफ़लताओं के कसीदे पढ़ने से नही थकते जबकि सच यह है कि दोनों व्यवस्थायें २१ वीं सदी की किसी भी चुनौती के समक्ष कोई भी सफ़ल माडल प्रस्तुत नहीं कर पायी.

अरब जन जागरण को यदि इस्लामी जागरण का नाम देने अथवा उसे इस दिशा में ले जाने की कोई कोशिश की गयी तब इसके दुष्परिणाम न केवल इस खित्ते की आबादी को झेलने होंगे वरन इस्लाम का जुनून विश्व राजनीति को नये सिरे से ध्रुवीकृत करने में कोई कसर नहीं छोडेगा. किसी भी तरह के इस्लामी ब्राण्ड की सफ़लता भारत जैसे देश पर अपने राजनैतिक दुष्प्रभाव जरुर छोड़ेगी, मुस्लिम कट्टरवाद को मिली सफ़लता, भारत के हिंदु दक्षिणपंथी ताकतों को एक नया बल देगा.

जनवादी ताकतों के समक्ष अरब जन जागरण को समझने और उसमें हिस्से दारी का प्रश्न निश्चय ही दुधारी तलवार का सफ़र होगा. ब्रदरहुड, हमस, हिज़्बुल्लाह जैसी ताकतें जनता के बीच रह कर उनकी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल, अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिये सदा से भलि भांति करती रही है और आगे भी करेगी, यदि इन ताकतों में से किसी की भी ताकत सत्ता के शीर्ष तक पहुँची तब इनका सबसे पहला हमला, समाज की जनवादी शक्तियों को क्रूरता पूर्व रौंदना ही होगा.

सऊदी अरब के नेतृत्व में बहरीन में फ़ौजी दखल अंदाजी अब दिलचस्प मोड़ पर पहुँच गयी है. अमेरिका द्वारा सऊदी अरब के इस कदम से खुद को कूटनीतिक रुप से दूर रखना भी नया रुख है. भारत सरकार इस पर क्या रवैय्या अपनाती है? सऊदी सैनिक क्या वहां अमन कायम कर पायेंगे? क्या इरान अपने समर्थकों की कत्लोगारत चुपचाप देखेगा या कुछ और करेगा..अगले कुछ सप्ताह बडे दिलचस्प होंगे. भविष्य में हुए किसी भी रक्तपात पर अरब नज़रिया क्या सुन्नी बनाम शिया के चश्में से लाशें गिनेगा अथवा कोई जनवादी शक्ति इन दोनों रंगों के इस्लाम को इतिहास के कूडेदान में डाल कर कोई नयी, समायानुकूल व्यवस्था बनाने की दिशा में कदम उठायेगी? कुल मिलाकर खाडी की राजनैतिक बिसात पर सभी पक्षों के दाव लग चुके है, निरिह जनता चुपचाप देख रही है, निरिह आधुनिक युग के गुलाम प्रवासी कामगार और तिजारती मूक दर्शक बने हैं, कोई भी रंग का इस्लाम इनके बुनियादी हकों की बात करता दिखाई नहीं देता. बहरीन में राजा हमाद ने पाकिस्तानी सुन्नी समुदाय के प्रवासी कामगारों का इस्तेमाल भाडे के सैनिकों की तरह करने, उनके जरिये आंदोलनकारियों पर संगठित रुप से हमले करवाने की भी खबरें हैं.प्रवासी कामगारों की चुप्पी बडी आश्चर्यजनक है, उनकी आबादी का अनुपात व्यापक है, यदि इस समुदाय की तरफ़ से कोई नीतिगत पहल इस अरब जागरण के दौर में हुई तब इसके व्यापक परिणाम होंगे. इतिहास के इस निर्णायक मोड पर प्रवासी कामगार, और धन्धेबाज क्या करेंगे या इस घडी को फ़िजूल में जाने देंगे यह बडा प्रश्न है, इनकी तरफ़ से कोई भी बडी भागी दारी पूरे इलाके के राजनैतिक समीकरणों में उलट पलट कर सकते हैं. फ़िलहाल यह समाजिक समुह अपनी दशा-दिशा सुधारने से बेखबर खामोश बैठा है, बहरीन में बहुत अधिक संख्या में भारतीयों की नौकरी जा चुकी है और वह अपना सामान बांधे हारे हुये बदहवासों की भांति वापस जाने प्रतीक्षा कर रहे हैं..शायद स्पार्टकस के इंतज़ार में.
चित्र सौजन्य: गूगल

Tuesday, August 10, 2010

Age of marriage and Mu'tah-Problem of Islam



To the editor,
New Age Islam-Delhi
In reference to Mr. Chaoudhry’s article (in NEW AGE ISLAM) which try to discuss and debate M’utah (concept of temporary marriage in Islam) and its validity. Mu’tah is actually a result of Shiite jurisprudence in Islam and on the other hand we can find equally debatable concept i.e. age of marriage. The number of age is significant, i.e. nine years and in both cases it’s related to Prophet and his wife Ayesha whom he supposedly married when she was six year old and had sex with her when she was nine year old.
My take is that various teaching and practice of Islam were based upon the wisdom of that period and we hardly give it rational thoughts that Islamic jurisprudence came into being during the period of Abbasid which is divided in various school of thoughts and Imamat. Each had its own significance and relevance and vested interest at the time of creation. Actually Islam did not ever imagined that its tenets will be debated some other day from every corner of the planet, it was beyond its imagination and comprehension of the world. Same problem is with every religion as the globe is getting shrinked with the prevalence and practice of technology. The age of black ignorance and so-called renaissance is over and they are no more in a situation to keep hold on to the truth. The theory of absolutism and finalism is really on the real test now onward.
The problem of Islam in particular is that it believes and professes on a certain book and idolize a certain character to propagate its message, more and more we peep into its past and its practice, it seems to be coming under clouds, for example, the question of marriage and having sex with a nine year old girl constitute to be a heinous crime in modern society. I am sure neither Manzur ul Haq nor Me or Shahin Shahib would allow their own daughter to be married off at such age and in case, under any situation it happens will definitely report this case to the authority to book the culprit. WHY? Because modern science told us the tender female body is not well prepared to have such encounter, medically and scientifically. We all know that human physiology was same 1400 years ago too and those who allowed such practice were not well informed.
This could be a model case to test the validity and acceptance of old practice of Islam, if this norm could be challenged how other could be accepted without giving a second thought? This is the problem for Islam and its proponents why they can’t reject the practice of Prophet? Is they does so, will amount that he was not a complete person? If it does so, will put more question on its book like many intellectual has already started demanding abrogation of certain Quranic verses (like jihad/Kafir etc) under changed situation. This is the dilemma before Islamic intellectuals what to accept and what to reject? If they allow any amendment in their book, then it will not remain a divine book anymore. They are simply caught between modernity and ancient practice.
Do we have any way out? Frankly speaking..there is no way..this is end of the dead road. Era of ignorance and iron fist is over, we are really moving into the era of knowledge where divine intellect hardly matches with practical empirical methods of knowledge. This is end of enforced religion and its tyranny for sure, sooner or later they will have to concede defeat. This is end of final theory and absolutism of Islam or any other religion.
Sincere regards

Monday, May 24, 2010

Question of Ayaan Hirsi and Islam


I am aware of Ayaan Hirsi since she created ripples in Holland though I am not aware of her writing and her approach, how she is defining Islam? She is not the only one who reject divinity of the book, there were several intellectual and scholars who did the same and paid hefty prices, some of them lost their lives as well. Islam is the only religion who successfully propagated a false notion that there is no any Prophet after Mohammed and Quran is the book of Allah, divine and thus above from any amendments. It has been a bone of contention for the intellectuals and has been debating the issue, IRON fisted Govt in the name of Islam has been instrumental to implement this dogma as it was in their favour. Islam failed within 30 years of its inception, Prophet's body was allowed to lay in desert for seven hours as different factions remained to sort out the leadership issue. Mohammed was the shrewdest politician who created such a system, particularly to control Bedouin (Arab Tribe) with a iron hand and designed a system which if fool proof of any kind of dissention. And he was utterly successful in his efforts. The total period of Four so-called rightly guided Caliphs ended in 30 years which was faced with various problems, civil wars and many Caliphs was brutally murdered still, Islam survived just because of the fact that KING understood is properly and implemented it successfully. Islam was mainly divided in two camps, one for rulers who did not adhere to any of its teaching and did whatever suits them and lived a lavish life and second was for masses. Sharia was created during the rule of Abbasids so it has all such ingredients which are necessary for a KING to rule safe.
Now the problem is that due to that 1400 years old system which Islamic states has created has become a force to reckon with. What we see now a days, a critical wave against Islam is actually a latest phenomenon, its post 9/11 phenomenon. They only started crying when West felt the first burnt. Otherwise, whole US administrations, Pentagon were behind creating a Islamic resistance against progressive movements in third world countries and some states as well. They continued to ignore all human right violation in entire Middle Eastern states in order to make sure safe and sound supply of Oil and make money thru their MNCs working that part of the world. Middle Eastern countries also created one state two systems for the Westerners, a US, UK citizen is still being treated like their God father in entire gulf region so they did not faced any problem. Entire gulf states are being run on the basis of South Asian immigrants and these states do not take any responsibility for them. Its a separate issue, but West kept close their eyes on such issues. Why question of Ayaan is so prominent now? Why west really waited to worsening this situation? Their conscience is not clean and clear.
There is no dearth of Muslims who believes in critical Islam, who wants to see its growth with the science? How can we forget the Turkey was the country who burnt Veils on its squares under Pasha in 1920 when we as Indian were demanding Ottoman Empire to be restored under Gandhi (Khilafat Movement)? How we can forget that there was a great wave of support in south asian sub-continent for progressive Muslims? How we can forget that Muslim community contributed a long line of progressive leadership in Muslims, right from Sajjad Zahir to Faiz Ahamd Faiz, Muzaffar Ali, Z A Ahmed and many more in different walk of life. Who created that atmosphere that we are forced to forget them and now there is a literal vacuum of progressive Muslim leadership. How can we forget that George Habbas, Leila Khalid were the iconic faces in the entire middle east during 1970s, they were all who rejected the Islam which was enforced by the King and its lackeys i.e. Mullas.
Situation is really very critical, the was Ayaan Hirsi is being projected will not yield desired result. We need to have a comprehensive approach toward the problem and force Western powers to pressurise Gulf states to change their characters, Only restoration of a democratic governments and nullification of kingdom ship will help to people to have an alternative in their lives i.e. political system, theories, religion etc. The present system of governance in Middle Eastern countries has turned their people into parasites (Kuwait, UAE, Qatar and large section of Saudi population) etc. Local people don’t give any shit to anything since they gets best material and life to support them without doing nothing. Five times prayers are just a ritual, cultural practice for them and donning white ‘Choga/Kandoora’ just to make a visible difference between them and expatriates otherwise they are not worried about anything. They will remain like this for another 200 years unless; west don’t put pressure to bring some internal changes in these countries.
The present scenario is really not very favourable for Muslim intellectuals, they are under threats, they are not in a position to defend Salman Rushdie, Tasleema Nasrin or Ayaan but it does not means that they don’t like change? They all believe the absolutist and finalist agenda of Islam either? They are under pressure of their own circumstances, their objective conditions are pathetic. But, still some people are fighting tooth and nail by risking their lives, just have a look of http://www.newageislam.com/ and you can come to know what they are doing? See Tarek Fatah and his group in States and Netherland and see what they are doing? Things are really not very encouraging for New Light Muslims but some of them are really doing a good job:
I will conclude my comment with a Urdu couplet:
“Kyun Zulmat-e-Firak se Ghabra Raha Dil,
Ho jayegi saher bhi, gar sham hui hai”

Wednesday, May 19, 2010

On Maulana Maudoodi-Comments on New Age Islam Dt 19,2010

Dear Editor,
Please accept my gratitude for the selection of article of Raziq on Maudoodi. I have been reading various articles on the same subject on this site in the past by various notable authors. Maudoodi is a definite phenomenon of our sub-continent since it has been his world of learning, evolution of his thoughts and their implementation and now we are debating the repercussions of the existence of Maudoodi’s thoughts in India, Pakistan and Bangladesh.
One important aspect I used to miss while assessing Maudoodi that it do not include the analysis of historical conditions which determine and shape the thinking process of an individual, neither the writers evaluate his contemporary national situation nor his personal desires or contribution. Maudoodi was born in Aurangabad Sep 25,1903 to a cleric of Chishtiya silsila. He founded Jamat-e-Islami (Lahore) on August 26,1941 after various topsy turvy routes of his career. 1941 was a time when not only India was boiling but the whole world was witnessing most gruesome act of human history. The backdrop of second world war was very important and we are not surprised that why communal mind(s) of India like RSS and Jamat-E-Islami, Muslim Brotherhood supported Hitler? Maudoodi was trying to search for his place in the fast changing situation of not only then India but as a whole world and thus he crafted a new path for him which, according to him was absolute way as a ‘trooper of God’. His evaluation but be done with his contemporaries of RSS in Indian perspective like Guru Golwarkar (Nagpur,1906-1973)the second chief of RSS after K.B. Hedgewar (Nagpur,1889-1940) who founded most lethal Hindu rightist organisation in India in 1925. The distance between Aurangabad and Nagpur is about 500 kilometre but both cities has one thing in common, they produced ideologues of a sinister ideology which divided mankind and sowed such venomous seeds that we still have to weed them out. Germany has taught a lesson to the proponents of Hitler but we have yet to teach the lesson to the lackeys of Hitler from our sub-continent.
Hope, the quest will continue and I am sure, I can see the writing of the wall, their end is imminent. I met an encounter on Facebook with some Pakistani friends who Called Jamat-e-Islami as Jamat-e-Harami or JH instead of JI. Only they (Pakistani) can bury the ghost of Maudoodi since they are the worst sufferer of this heinous ideology which is based upon the crime against humanity.
Regards