Saturday, May 26, 2012

भटकल सेंड्रोम से ग्रस्त भारतीय शिक्षित मुस्लिम समाज



१३ जौलाई २०११ भारत में आतंकी कार्यवाही का एक बदसूरत पन्ना है, देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में इस दिन एक के बाद एक कई धमाके हुए थे, २७ निरिह, निर्दोष जानें गयीं- कोई १५० राहगीर घायल भी हुए. मुंबई ए टी एस ने अब यह केस क्रैक करने का दावा अपनी ४८०० पेजों की चार्ज शीट में किया है. अब तक ५-६ मुजरिम पकडे गये हैं, करीब इतने ही फ़रार हैं. तफ़शीश में कर्नाटक-महाराष्ट्र बार्डर पर बसे भटकल कस्बे का बडा जिक्र हुआ है. इस कायरतापूर्ण हमले की साजिश रचने वालों में कई कथित मोहरे इसी भटकल के बताये जा रहे हैं. इस कस्बे से भारी मात्रा में मुसलमान मध्य पूर्वी एशियाई देशों में रोज़गार के लिये गये हैं. मुंबई हमलों की इस साजिश में पाकिस्तान की खुफ़िया ऐजेन्सी पर भी नुक्ताचीनी की गयी है. यह मामला मुंबई पुलिस ने अब कोर्ट के समक्ष रख दिया है. अब साक्ष्यों के आधार पर यह मुकदमा अपनी किसी न्यायिक परिणिती पर पहुँचेगा या सबूतों के अभाव में यह ४८०० पेज का पुलिंदा किसी मुंबईय्या छाप फ़िल्म की पटकथा साबित होगा? यह भविष्य तय करेगा. भारतीय पुलिस खासकर सी.बी.आई की कन्विक्शन रेट कोई १० प्रतिशत भी नहीं है लिहाजा ९०% मामलों में सब फ़र्जीवाडा साबित होता है. देश की अदालतों, पुलिस, अखबारों, टी.वी और पाठकों/दर्शकों का वक्त बर्बाद जो होता है उसका कोई हिसाब नहीं. आंध्र प्रदेश की मस्जिद में हुए बम धमाके वाली आतंकी घटना में करीब एक दर्जन मुस्लिम नवयुवकों को आतंकवादी प्रचारित-प्रसारित कर उन्हें जेलों में ठूँस कर प्रताडित भी किया गया था. बाद में पता चला कि उसके पीछे हिंदु अतिवादियों का हाथ है. कौन जाने कल मुंबंई पुलिस के आज किये जाने वाले दावे चूं-चूं का मुरब्बा साबित हों तो मुझे इस पर जरा भी हैरत न होगी. उन आंध्र प्रदेश के मासूम नौजवानों को राज्य ने न कोई हर्जाना दिया है न माफ़ी मांगी, क्योंकि भारत सरकार में इस स्तर की संवेदना का आभाव सर्वव्यापी है शायद १०-२० साल अभी और लग जायें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कि अगर राज्य जनता के विरुद्ध गलत काम करे तो उसकी भरपाई करना भी उसका नैतिक फ़र्ज हो, इस लिहाज़ से भारतीय न्याय व्यवस्था अभी आदिम युग में प्रतीत होती है. क्या कभी बटला हाऊस में हुई कथित मुठभेड़ के सच को राज्य साहस के साथ बता पायेगा, सत्ता के वर्तमान स्वरुप के चलते यह शायद ही संभव हो.

१३/७ के मुंबई हमलों को लेकर मेरी चिंता का विषय जरा हट कर है जिसका उल्लेख न मीडिया करता है, न सरकार की उस पर निगाह है और न अदालतों की. वह शायद इसलिये कि वे किसी न किसी रुप में इस भ्रष्ट्रचार के खुद एक पात्र हैं. मैं पाठकों का ध्यान इस ओर दिलाना चाहता हूँ कि भटकल में जिस तेजी से मस्जिदों, मदरसों का विस्तार हुआ है उसके पीछे प्रवासी मुस्लिम समुदाय की बडी भूमिका है. मज़दूरी करने वालों से लेकर प्रोफ़ेशनल्स तक, पढे लिखे अथवा अनपढ मुसलमानों में एक मुद्दे पर व्यापक समानता है कि कोई उनसे मदरसा/मस्जिद के लिये पैसे मांगे तो वह खुद भी देगा और पडौसी से भी लाकर देगा. आमतौर पर यह चंदा ज़कात के नाम पर मांगा जाता है जो इस्लाम के मूलभूत पांच स्तंभों में से एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जिसकी अवहेलना शायद ही कोई करे. इन दिनों (रमज़ान पूर्व) ज़कात इकठ्ठा करने वाले मुल्लाह-व्यापारी वर्ग द्वारा मध्य पूर्व एशिया के कई मुल्कों में दौरे होते हैं, और ये लंबी लंबी दाढी वाले लोग बेशुमार दौलत चंदे के नाम पर एकत्र करके लाते हैं जिसका एक हिस्सा इन मदरसों/मस्जिदों में लगता है. एक बात स्पष्ट करता चलूँ कि धर्म का मनोविज्ञान एक ही है, चाहे हिंदू हो या मुसलमान. कौन नहीं जानता कि प्रवासी हिंदू समाज ने राम मंदिर के नाम पर अरब देशों, उत्तरी अमेरिका और यूरोप से कितना धन भारत की प्रमुख फ़िरकापरस्त पार्टी को दिया है? इसी धन के बूते पर पूरे देश में जिस नफ़रत का कारोबार किया गया, जिसमें व्यापक दंगे हुये और न जाने कितनी मासूम जानों के साथ अपार संपदा की क्षति हुई? यह सब इतिहास में दर्ज हो चुका है.

सबसे दुखद बात यह है कि ज़कात-दान देने वाला कभी यह नहीं सोचता कि उसके पैसे का इस्तेमाल कैसे किया जा रहा है? उन मदरसों में पढाये बच्चों का भविष्य कैसा होगा? क्या मुस्लिम समाज को उसी धार्मिक शिक्षा की आज इस दौर में भी जरुरत है जिसका प्रचलन सदियों पहले किया गया था? जाहिर है, मुल्लाह की तरबियत यह है कि तुम "यहां इतना दोगे तो अल्लाद तुम्हे वहां इतना देगा" जैसी अदावतों के चलते दानकर्ता इस पचडे में पडता ही नहीं, उसने दान देकर मरने के बाद अपनी जिंदगी संवारने का मसला हल कर लिया है. वह नहीं जानता कि इस दुनिया को नर्क बना कर अगर वह कब्र में गया तो उसका नतीजा क्या होगा? वह अपने पीछे आने वाली नस्लों को कौन सा समाज देकर जा रहा है? क्या अभी उचित समय नहीं आ गया है ज़कात देने के हम दूसरे विकल्पों पर गौर करें? क्या यह सही वक्त नहीं है कि हम यह विचार करें कि अब तक ज़कात के नाम पर जितना फ़्राड इस मुल्लाह ने किया है उसकी जांच हों? क्या वक्त नहीं आ गया है कि इन्हीं मदरसों का उपयोग अब वैज्ञानिक-व्यवसायिक शिक्षा देकर करें (कुछ जगह यह काम हो भी रहा है, लेकिन बहुत कम) ताकि इनमें पढे लोग समाज की मुख्यधारा से जुड सकें, रोजगार पाकर बेहतर जीवन जी सके और उत्तरोत्तर देश की, अपने समाज में खुशहाली लाने में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकें? क्या यह जरुरी नहीं कि इन मौजूदा शिक्षण संस्थाओं जिनमें अलीगढ/जामिया जैसे इदारे भी शामिल हैं अपने खास नज़रिये के चलते समाज में एक खास अलगाव के बीज बो रहे हैं? क्या यह जरुरी नहीं कि इस्लाम की उन तथाकथित सर्वश्रेष्ठवादी संस्कारों/शिक्षाओं का परित्याग किया जाये जिसके वहम के चलते अमन के धागे कमज़ोर हो रहे हैं? क्या यह वाजिब समय नहीं है कि हम सदियों से पिलायी जा रही जहनी घुट्टी को त्याग दे जिसमें पूरी दुनिया पर इस्लाम के वलवले का जिक्र है? क्या हम कभी हकीकत पसंद होकर इस बात को खारिज करेंगे कि दौरे खलीफ़ा फ़िर आयेगा और दुनिया के तमाम मसाईल सुलझा देगा? जाहिर है अगर इन बातों पर किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही विचार प्रणाली के माध्यम से किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, दुर्भाग्य से, इन पंक्तियों को लिखे जाते वक्त मुसलमानों का कथित पढा लिखा तबका कथावाचक ज़ाकिर नायक जैसे छद्दम विचारों में अपनी मुक्ति और शांति की राह तलाश रहा है या जन्नम में अपना मुकाम दर्ज करवा रहा है.

अफ़सोस की बात है कि यही वह तबका है जो कथावाचक जाकिर नायक को दुबई में सुनने के लिये हजारों की संख्या में पहुँच जाता है. आजकल उसे सुनने वालों में एक नया तबका और जुड़ गया है जिसे अंग्रेजी आती है या जो प्रोफ़ेशनल डिग्री लिये है. जाकिर नायक से पहले ये जलसे, मजलिसे, तब्लीगें आम तौर पर मजदूर पेशा लोगों की पहचान हुआ करती थी लेकिन किसी इंजीनियर/डाक्टर/एम.बी./आई.टी वाला आदि को अगर ज़ाकिर नायक की बातें अच्छी लगने लगें तब निसंदेह हमें विचार करना होगा कि ऐसी कौन सी जड़ता का फ़ार्मूला इनके जहनों में मौजूद है कि ४-५ साल या उससे अधिक भी, विज्ञान की पढाई करने के बाद इनके चिंतन को विज्ञान छू कर भी नहीं गुजरता? चाहे इंजीनियर हो या डाक्टर, अगर वो अपने काम को करने से पहले किसी अवैज्ञानिक क्रिया को करे तो मुझे उसकी बुद्धी पर तरस ही नहीं आता वरन गुस्सा भी आता है कि इस शख्स ने अपने जड विचारों (धर्म) के चलते पूरी व्यवस्था और उसके संसाधनों को अपने काम में लगा लिया.

पढे लिखे मुस्लिम तबके में धार्मिक कट्टारता ९/११ की घटना के बाद तेजी से बढी है. अधकचरा दिमाग इस परिघटना का कोई वैज्ञानिक परीक्षण करने में असर्मथ रहा है. वहीं इंटरनेट, मोबाईल, टी.वी. जैसे वैज्ञानिक संसाधनों के जरिये अल कायदा/वहाबी/सलफ़ियों/हिज्बुल/हमस/ब्रदरहुड जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने इस तबके को तेजी से अपनी गिरफ़्त में लिया है. आज इन संगठनों की फ़ेहरिस्त में दिन ब दिन इज़ाफ़ा हो रहा है और इनके कार्यकर्ता कुदाल-फ़ावडे चलाने वाले मज़दूर नहीं, वे कम्पयुटर, मोबाईल चलाने वाले कथित शिक्षित तत्व हैं. दुनियाभर में चल रही इस्लाम के नाम पर विध्वसंक गतिविधियां किन्हीं अनपढों के जरिए संभव नहीं हैं. ये पढे लिखे लोग ही हैं जो नौजवानों को बेतुके तर्कों के आधार पर मानव बम बनाने को प्रेरित कर रहे हैं और रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखते हैं. हर बडी आतंकी कार्यवाही में कोई न कोई प्रोफ़ेशनल ही जुडा पाया गया है. जाहिर है विज्ञान पढ कर भी अगर कोई अवैज्ञानिक नज़रिये का गुलाम है तो वह मूलत: धार्मिक व्यक्ति ही है. ये तत्व भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचुरता में पाये जाते हैं. कहीं इनका रंग हरा है तो कहीं भगुवा, ये दोनों एक दूसरे के दुश्मन जरुर प्रतीत होते हैं लेकिन बुनियादी रुप से एक दूसरे के सहयोगी ही हैं.

एक बात पर अब व्यापक सहमति बनाने की जरुरत है, कि धर्म के जरिये शांति नहीं कायम की जा सकती. आज धर्म विध्वंस का प्रर्याय बन चुका है. भारत में धर्म सार्वजनिक जीवन में अतिक्रमण का एक प्रमुख अस्त्र बन चुका है. अब यह अस्त्र प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा भी किसी न किसी रुप में प्रयोग किया जा रहा है जिसके चलते राज्य की विभिन्न संस्थायें-निकाय भी इससे प्रभावित हो रही हैं. अभी उचित समय आ गया है कि धर्म के सार्वजनिक उपयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगे. देश के सभी धार्मिक संस्थानों में जमा संपत्ति का तत्काल राष्टीयकरण किया जाये. धार्मिक शिक्षण संस्थानों पर तत्काल प्रतिबंध लगाने से पूर्व राज्य बेसिक शिक्षा (१२वीं तक) की जिम्मेदारी अनिवार्य रुप से अपने कंधों पर ले, देश भर में एक जैसी शिक्षा पद्धति लागू की जाये जिसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भी किसी भी धर्म की शिक्षा न दी जाये. धर्म सिर्फ़ विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल किया जाये.

किसी भी किस्म के कट्टरपंथी को एक बात समझ लेनी चाहिये कि भले ही कितनी भी नफ़रत के हमले वह एक दूसरे पर करते रहें, तब भी उन्हें एक दूसरे के साथ ही रहना होगा. नफ़रत के कई झंझावत भारत ने भुगते हैं, बंटवारे भी हो चुके लेकिन इस मसले का हल नहीं हुआ. शायद हमारी राजनीतिक सोच ही गलत थी, हमारे कवि, हमारे नेता, हमारे धार्मिक लोग हमसे झूठ बोलते रहे, हमें शब्दजाल के मलहम लगाते रहे लेकिन हमारे घाव लगातार गहरे होते गये. अभी वक्त आ गया है कि इस नासूर को पहचान लिया जाये. धर्म नाम के इस नासूर में हमें छ्द्दमता का वह आवरण दिया जिसके नीचे जो भी चला वही स्वंय को उच्चतर समझने लगा. विचार के इस सूक्ष्म बिंदू में इस नफ़रत, हत्याओं और हमलों का भेद छुपा हुआ है. इससे पहले कि मानवजाति को और खूनखराबा देखना पडे (जिसके लिये वह रात दिन तैयारी कर रहे हैं) आओ इसको समूल नष्ट करें. धर्म को सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यक्तिगत विषय बना दें उसके किसी भी समाजिक क्रिया का बहिष्कार करें क्योंकि सामाजिक स्वीकार्यता ही आगे बढ़कर उसके लिये राजनीतिक आवरण का आधार तैयार करती है. राज्य से धर्म की पूर्ण निरपेक्षता ही हमें किसी शांतिपूर्ण जीवन का रास्ता दिखा सकती हैं. पहले अपना घर ठीक कर ले फ़िर धर्म आधारित राज्यों का बहिष्कार करना दूसरा चरण होगा जिसका चरित्र अंतरार्ष्ट्रीय होगा.

Tuesday, March 27, 2012

और हम चुप क्यों हैं?

और हम चुप क्यों हैं?


(सावधान: कुछ दृश्य आपको विचलित कर सकते हैं)

कल से पडौसी मुल्क की तिजारती राजधानी में हालत-ए-खाना-ए-जंगी है, मार काट चल रही है, दुकानें, गाडियाँ, मकान फ़ूँके जा रहे हैं कराची में- मुसलमान मुसलमानों को मार रहे हैं, अब तक ८ के मरने की खबर है (पिछले साल ये आंकडा कोई १००० के करीब था)..लेकिन कोई खबर नहीं बनती, न चर्चा होती न कोई पोस्ट बनती...पाकिस्तानी सेना बलोचियों की नस्ल कुशी करे कोई हरकत नहीं होती...तालेबानी पठान, पाकिस्तानी फ़ौजियों और उनके सहायकों को लाईन में खडा कर के जानवरों की तरह मार दे, कोई खबर नहीं बनती..इस्लामी दहशतगर्द सूफ़ियों की कब्रें बमों से उडा दें- कोई कुछ नहीं बोलता?

और थोड़ा दूर चलें..इराक में शिया मुसलमानों के धार्मिक उत्सव के दौरान कोई खुद को बम से उडा ले, दर्जनों साथ में ले मरे..कोई परवाह नही करता? मुद्दतों से कुर्द आज़ादी के लिये लड़ रहे हैं- इरानी, इराकी और तुर्की फ़ौजें कभी भी बम बरसा दें.. पकड़ लें, फ़ांसियां दे दें, गोली मार दें...सब स्वीकार हो जैसे? मोरक्को के कब्ज़े से मुक्ति के लिये आधुनिक युग का सबसे बड़ा वेस्टर्न सहारा में पोलिसारियो का आंदोलन किस तरह देखते ही देखते इस्लामी राजा द्वारा समूल नष्ट किया जा रहा है...लेकिन हम चुप हैं, कोई पत्ता तक नहीं हिलता..न किसी खबर से और न ही यू.एन.ओ. में कोई प्रस्ताव आता है. इण्डोनेशियाई सरकार के वर्दीधारी दरिंदों ने ईस्ट टाईमोर पर २४ साल तक क्या कहर ढाया था..इस पर हम चुप थे...सऊदी हवाई हमले दक्षिणी यमन में फ़ूल नहीं, बम बरसातें हैं, उसमें पहाड़ियां नहीं टूटती...उसमें भी जीते जागते इंसान मरते हैं, सऊदी फ़ौजी बहरीन में बलवा शांत करने के लिये बिरयानी लेकर नहीं गये..जदीद हथियारों के साथ वहां गये हैं...असद सरकार सीरिया में अब तक ८००० लोगों की हत्यायें कर चुकी है, मुबारक ने और गद्दाफ़ी ने क्या किया आप जानते ही हैं..

बोको हराक जैसे इस्लामी संगठन इस्लाम के नाम पर नाईजीरिया में हत्या, दमन और वसूली का कारोबार चलाये हैं, अल शादाब सोमालिया में कितनी गैर इंसानी हरकतों में मुल्लव्विस हैं इस पर हम मुजरिमाना तरीके से खामोश हैं? इरानी जेलों में पडे कैदियों पर हो रहे तशद्दुत पर, इरान में जन आंदोलनों के दमन पर, जन-नेताओं की हत्याओं/फ़ांसियों पर हम चुप हैं..क्यों?

इस्राईल के बम फ़लस्तीनियों पर जब पडें, अमरीकियों की तोपें जब अफ़गानिस्तान, इराक में गरजें..भारतीय फ़ौजियों की गोली जब कश्मीर में चलें सिर्फ़ तभी इंसान नहीं मरते. मुसलमान हकुमतों के गुनाहों पर चुप्पी कब तक साधेंगे? इस्लामी औपनिवेशिक प्रवृतियों के खिलाफ़ बोलना अपराध नहीं है...इंसाफ़ और हक की आवाज़ सेलेक्टिव नहीं होती. मज़हबी किताब फ़ाड़ने से पूरा अफ़गानिस्तान सड़क पर था, अमेरिकी सिपाही ने जब अफ़गान गांव में घुस कर १६ नागरिक मार डाले थे..तब इतना बडा मसला बना कि ओबामा ने माफ़ी मांगी...ये मुसलमान हकुमतें कभी यमन में, कभी बहरीन, कभी कुर्दिस्तान में कभी बलोचिस्तान में अनगिनत लोगों की हत्यायें हर रोज़ कर रही है...बलोच आज़ादी के लडाकुओं को मार कर उनके बदन पर चाकू से "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" खोद कर हेलीकोप्टर से नीचे पहाडियों पर, जगंलों में उनके शव फ़ेंक दिये जाते हैं...और हम क्यों चुप हैं?






चित्र सौजन्य: गूगल

Monday, February 20, 2012

उर्दू: जहरीला तिलिस्म-हसीं ख़्वाब

उर्दू: जहरीला तिलिस्म-हसीं ख़्वाब
 (२१ फ़रवरी,बंगलादेश शहीदी दिवस/ अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष)

उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत पसंद की जाने वाली जुबानों में से एक है जिसका अभुदय भारत में  मुस्लिम शासन के लगभग ८०० सालों की हकुमत के दौरान हुआ, मुस्लिम हकुमत के अंतिम १००-१५० सालों में (१८०० के आते आते और उसके बाद) इसका प्रचार प्रसार लेखन में अभिव्यक्ति के बतौर इतिहास में दर्ज किया जाने लगा. मुस्लिम हकुमत के दौरान मध्य एशिया के विभिन्न देशों से आये सैनिकों जिनमें तुर्क, मंगोल, इरान और अरब के सैनिकों की संख्या अधिक थी, इन्हीं अहम नस्लों की फ़ौजी छावनी में एक मिश्रित भाषा अपने सहज-मानवीय व्यवहार के दौरान बनी जिसका नाम उर्दू है. उर्दू ज़ुबान को छावनी से निकल कर महल और सत्ता के गलियारों से संबंध रखने वाले समाजी तबके में अपना असर महसूस कराने में काफ़ी वक्त भी लगा और मेहनत भी. ज़ाहिर है मुग़लिया हकुमत के दौरान फ़ारसी ही राज्य भाषा थी जिसके समानान्तर या यूं कहें कि इसकी छत्रछाया में उर्दू ने अपने पैरों पर चलना सीखा. यह कहना ऐतिहासिक रुप से सच नहीं होगा कि उर्दू शुद्ध रुप से भारतीय भाषा है या इसका मुसलमानों से कोई वास्ता नहीं. यह भाषा शुद्ध रुप से भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों के आगमन के पश्चयात ही विकसित हुई जिसमें कालान्तर में देवनागरी के शब्दों का प्रचलन-संमिश्रण भी वैसे-वैसे बढ़ा जैसे-जैसे इसका असर और रसूख समाज के दूसरे इदारों में बढ़ा और इसे समाजिक स्वीकृति मिली.
ज़ाहिर है, उर्दू का विकास क्योंकि छावनी में हुआ और उसका फ़ैलाव सत्ता से जुडे सामाजिक तबके में ही हुआ लिहाज़ा यह जन भाषा कभी नहीं बन सकी. राजा के दरबार में साहित्य, काव्य अथवा राजा से जुडे उसके मनसबदार, नवाब, सूबेदार, फ़ौज के अफ़सर, शासन चलाने वाले हाकिम, मालगुज़ारी वसूलने वाले और ज़मीनदारों के बीच ही इसका प्रचलन बढा. सामंती समाज में इसी तबके के पास पढ़ने लिखने, काव्य और मौसिकी के लिये वक्त था तब इनके मानसिक मनोरंजन या विलासिता के लिये जिस बाज़ार का निर्माण तत्कालीन समाज में हुआ उसे उर्दू से पूरा किया. जाहिर है इस तबके को स्थानीय भाषा अथवा उसके कवियों से उस सुख की अनुभूति स्वभाविक रूप से नहीं मिल सकती थी जिनका खून उन्हें चूसना था...जिनसे उन्हें लगान वसूलना था या जिन पर उन्हें शासन करना था. भला ब्रज भाषा, भोजपुरी, अवधि, खड़ी बोली में उनकी सत्ता के मद का रस भला कैसे व्यक्त किया जा सकता था? स्थानीय भाषाओं का दर्द उनके वर्गीय चरित्र के अनुरूप था जबकि मलाईदार सामंती-कुलीन तबकों को अपनी मानसिक संतुष्टी (ऐय्याशी) के लिये जिस सुरमई फ़ाहे की जरुरत थी, वह रुहानी फ़ाहा फ़राहम कराने का काम उर्दू भाषा ने पूरा किया, इसके मिठास पर चर्चा करने वाले, उस पर रात-दिन एक करने वाले अदीब भारतीय इतिहास के इस करुणामय  तथ्य को भूल जाते हैं कि आम जनता के लिये उस कठिन समय में इस मिठास का लुत्फ़ लेने वालों के हाथ कोहनियों तक और पैर घुटनों तक खून में रंगें हैं. ज़मीन पर विदेशी हुकमरानों का कब्ज़ा हुआ था, जिनकी ज़मीनें थी वही देशज भाषी जोतदार-गुलाम बनें और उर्दू बोलने वाले उनके राजा, हाकिम- लगान वसूलने वाले बने. निसंदेह उर्दू का इतिहास बताने वाले इस भाषा के कुलीन-सामंती चरित्र पर हमला किये बगैर ही इसका महिमामंडन यदि करते हैं तब उनके वर्गीय चरित्र का मूल्यांकन करना जरुरी होगा. दूसरी एक वजह, इस भाषा का मुसलमानों से संबंधित होने के कारण इसके राजनैतिक रुप से संवेदनशील होना भी है जिसके चलते इस भाषा के वर्गीय चरित्र पर ऐतिहासिक मीमांसा ऐसे नहीं हुई जैसी होनी चाहिये थी. इतिहास के किसी क्रम और उससे जुडे़ अनाचार को भुलाकर किसी भाषा की समीक्षा करना न केवल एकांगी कृत्य होगा वरन यह इतिहास के साथ निर्मम धोखाधड़ी भी होगी. भारत के संदर्भ में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है, संस्कृत, पाली, अवधि, ब्रज, तामिल, तेलगू आदि से लेकर उर्दू तक हमें इन भाषाओं के वर्गीय चरित्र और इनके सामाजिक आधार की समीक्षा जरुर करनी होगी तभी  हम किसी न्यायसंगत नतीजे पर पहुँचा सकते हैं.
सामंती चरित्र की विशेषतायें विलक्षण हैं, सामंत अपना घर, अपनी बैठक, खेत खलिहान, पेड़ पौधे, खाना-पीना, कपडे, तलवार, हत्यार, बैंत, जूती, धर्म, संस्कार, तौर-तरीके, मूंछ का बाल, यहां तक की नाई-धोबी-लोहार-दर्जी आदि पर ही न केवल अपनी दबंगई छाप छोड़ता है बल्कि उससे भी अधिक उसे अपनी भाषा पर घमंड होता है. सामंती सोच की इस कमजोरी को, या यूं कहें कि इस लक्षण को उर्दू ने बखूबी अपने काम में लगाया. इस भाषा ने, न केवल भारत के सामंती तबके की वैचारिक नज़ाकत को प्रश्रय दिया बल्कि इस वर्ग के साथ खुद को जोड़ कर अपनी विशिष्टता बनाये रखने में भी कामयाब हुई. नवाब-सामंत-हाकिम भी इससे संतुष्ट था कि उसकी ज़ुबान की नज़ाकत सिर्फ़ उसे ही समझ में आती है. आम कामगार, खेत मज़दूर अथवा श्रमिक उसकी भाषा से अनभिज्ञय है, इससे उसके व्यक्तिगत दंभ को भी बल मिलता. यह दंभ दोनों को एक दूसरे की हिफ़ाज़त करने में मददगार साबित हुआ, लिहाज़ा उर्दू भारत के मुस्लिम शासक वर्ग की ज़ुबान बन गयी जबकि ज़मीनी स्तर पर जनता की ज़ुबान इलाकाई भाषायें ही रही, लेकिन मुसलमान शासक वर्ग दिल्ली, कलकत्ता, मैसूर, हैदराबाद जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी एक ही ज़ुबान मज़बूती से बोलता दिखा.
भारत पर अंग्रेज हकुमत के दौरान और उससे निजात पाने की जुस्तजु यानि आज़ादी की लडाई के दौरान उर्दू के सामंती चरित्र पर थोड़ी चोट लगी. आज़ादी की लडाई लड़ रहे सैनानियों जिसमें मुसलमान तबका भी शामिल था; अब आम जनता से बातचीत करने को तैयार दिखा, लिहाजा उर्दू की किताबें, इश्तहार और देशभक्ति के तरानों के माध्यम से उर्दू किसी हद तक आम जनता के घरों में आ पहुंची. हिंदी- हिन्दु- हिन्दुस्तान जैसे नारे का चलन १९२०-३० की दहाई से शुरु हो जाने के कारण उर्दू को मुस्लिम और हिन्दी को हिन्दू जैसे सख़्त लबादे ओढ़ने पर मजबूर होना ही था. धर्म के आधार पर जंगे आज़ादी की लडाई जब तकसीम हुई तब उर्दू को मुकम्मिल तौर पर मुसलमानों के आंगन तक ही सिकुडना था जोकि तर्कसंगत भी था. दार्शनिक, लेखक, कवि इकबाल ने मुसलमानों को एक मुक्कमिल राष्ट्र की अवधारणा के रूप में व्याखित कर ही दिया था, मौहम्मद अली जिन्नाह ने इसी आधार पर द्विराष्ट्र सिद्धांत की रचना की और एक स्वतंत्र मुसलमान राज्य की स्थापना करने में जुट भी गये, १९४४ में गांधी को लिखे एक पत्र में जिन्नाह ने खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता मानते हुए कुछ यूं कहा, " हम १० करोड़ लोगों के एक मुकम्मिल राष्ट्र हैं, हम अपनी विशिष्ट संस्कृति, सभ्यता, भाषा, साहित्य, कला, भवन निर्माण कला, नाम, उपनाम, मूल्याँकन की समझ, अनुपात, कानून, नैतिक आचार संहिता, रिवाज, कलैण्डर, इतिहास, परंपरा, नज़रिया, महत्वकाँक्षाओं के चलते एक राष्ट्र हैं. संक्षेप में हमारा इंसानी जीवन पर और जीवन के बारे में एक विशिष्ट नज़रिया है लिहाजा किसी भी अंतर्राष्ट्रीय नियम कायदे कानूनों के मद्दे नज़र हम एक राष्ट्र हैं." (जोर हमारा) इस व्यक्तव्य से भाषा के महत्व और उसकी गंभीरता को समझा जा सकता है.
१९२४ में भगत सिंह द्वारा लिखे एक महत्वपूर्ण लेख (पंजाबी की भाषा और लिपि की समस्या) से यह पता चलता है कि उर्दू-पंजाबी भाषा में टकराव पंजाब में काफ़ी पहले से था, पंजाबी की लिपी क्या हो इस प्रश्न को लेकर ये दोनों समुदाय आमने सामने थे, इस लेख का उद्धर्ण यहाँ प्रासंगिक होगा, भगत सिहं लिखते हैं- "पंजाब की भाषा अन्य प्रांतों की तरह पंजाबी ही होनी चाहिये थी, फ़िर क्यों नहीं हुई? यह प्रश्न अनायास जी उठता है, परन्तु यहाँ के मुसलमानों ने उर्दू को अपनाया. मुसलमानों में भारतीयता का सर्वथा अभाव है, इसीलिए वे समस्त भारत में भारतीयता का महत्व न समझकर अरबी लिपि तथा फ़ारसी भाषा का प्रचार करना चाहते हैं. समस्त भारत की एक भाषा और वह भी हिंदी होने का महत्व उन्हें समझ में नहीं आता. इसीलिए वे तो अपनी उर्दू की रट लगाते रहे और एक ओर बैठ गए." उर्दू के मुसलमान अलमबरदारों की व्याख्या करते हुए वह इसी लेख में आगे  अत्यंत सारगर्भित आंकलन करते हुए लिखते हैं.
"वे उर्दू के कट्टर पक्षपाती है. इस समय पंजाब में इसी भाषा का जोर भी है. कोर्ट की भाषा भी यही है, और फ़िर मुसलमान सज्जनों का कहना यह है कि उर्दू लिपि में ज़्यादा बात थोड़े स्थान पर लिखी जा सकती है. यह सब ठीक है, परन्तु हमारे सामने इस समय सबसे मुख्य प्रश्न भारत को एक राष्ट्र बनाना है. एक राष्ट्र बनाने ले लिये एक भाषा होना आवश्यक है, परन्तु यह एकदम नहीं हो सकता. उसके लिये कदम-कदम चलना पड़ता है. यदि हम अभी भारत की एक भाषा नहीं बना सकते तो कम से कम लिपि तो एक बना देनी चाहिए. उर्दू लिपि तो सर्वांगसम्पूर्ण नहीं कहला सकती, और फ़िर सबसे बडी बात तो यह है कि उसका आधार फ़ारसी भाषा पर है. उर्दू कवियों की उड़ान, चाहे वे हिंदी (भारतीय) ही क्यों न हों, इरान की साकी और अरब की ख़जूरों को ही जा पहुँचती हैं. काज़ी नज़र-उल-इस्लाम की कविता में तो धूरजटी, विश्वामित्र और दुर्वासा की चर्चा बार-बार है, परन्तु हमारे पंजाबी हिंदी-उर्दू कवि उस ओर ध्यान तक भी न दे सके. क्या यह दु:ख की बात नहीं? इसका प्रमुख कारण भारतीयता और भारतीय साहित्य से उनकी अनभिज्ञता है. उनमें भारतीयता आ ही नहीं पाती, तो फ़िर उनके रचित साहित्य से हम कहाँ तक भारतीय बन सकते हैं? केवल उर्दू जैसी साहित्यिक भाषा मे उन ग्रंथों का अनुवाद नहीं हो सकता, परन्तु उसमें ठीक वैसा ही अनुवाद हो सकता है, जैसा कि एक ईरानी को भारतीय संबंधी ज्ञानोपार्जन के लिये आवश्यक हो"
उर्दू के तत्कालीन समाचार पत्रों पर टिप्पणी करते हुए वह लिखते हैं.
"उर्दू के कट्टरपक्षपाती मुसलमान लेखकों की उर्दू में फ़ारसी का ही आधिक्य रहता है. "ज़मींदार" और "सियासत" आदि मुसलमान- समाचार पत्रों में तो अरबी का जोर रहता है, जिसे एक साधारण व्यक्ति समझ भी नहीं सकता. ऐसी दशा में उसका प्रचार कैसे किया जा सकता है? हम तो चाहते हैं कि मुसलमान भाई भी अपने मज़हब पर पक्के रहते हुए ठीक वैसे ही भारतीय बन जायें जैसे कि कमाल टर्क हैं. भारतोद्धार तभी हो सकेगा. हमें भाषा आदि के प्रश्नों को धार्मिक समस्या न बनाकर खूब विशाल दृष्टिकोण से देखना चाहिये".
भगत सिंह के उपरोक्त कथन और भाषा संबंधी मीमांसा, खासकर उर्दू और उसके पैरोकारों के संदर्भ में  एक सशक्त समझ को रेखांकित करती है जिससे तत्कालीन समाज और राजनीति में भाषा के प्रश्न से जुड़े तापमान को  भलिभांति भांपा जा सकता है. भारत की आज़ादी और पाकिस्तान बनने के बाद उर्दू के लिये हुए संघर्ष को समझने के लिये हमें पाकिस्तान के इतिहास को ही टटोलना होगा. पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा उर्दू ही होगी, यह पहले ही मुस्लिम लीग ने स्पष्ट कर दिया था लेकिन भविष्य में इस प्रश्न को लेकर कितना गंद-गुबार छिपा है इसे कौन जानता था? बंटवारे से पहले जिन्नाह १० करोड़ मुसलमानों के स्वयंभू नेता थे, लेकिन जो पाकिस्तान उन्हें मिला, दुर्भाग्य से उसमें अधिसंख्यक ४.५ करोड़ बंगाली मुसलमान थे जिन्हें अपनी भाषा और संस्कृति से बेहद प्यार था. जो तर्क जिन्नाह ने भारत के बंटवारे से पहले अपने लिये दिये थे, उन्हीं तर्कों के आधार पर बंगाली समाज अपने हिस्से का "पाउण्ड आफ़ फ़्लेश" मांग रहा था जिसे मुस्लिम लीगी सामंती नेतृत्व अपने  दंभ के चलते देने को तैयार नहीं था. नवनिर्मित पाकिस्तान में बंगाली मुसलमानों का बहुमत होते हुए भी इसके दंभी नेतृत्व ने उर्दू को राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया. पृथ्वी पर बने पहले नवजात मुस्लिम राष्ट्र को सबसे पहले भाषा के सवाल पर ही चुनौती झेलनी पडी. पूर्वी पाकिस्तान (ईस्ट बंगाल) में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिये जाने पर वह गहरे विक्षोभ में डूब गया, इसी विरोध के मद्दे नज़र जिन्नाह ने ढाका विश्वविद्यालय के लार्ड कर्जन हाल में २१ मार्च १९४८ को अपने भाषण में कहा:
"मुझे आपके सामने यह स्पष्ट कर देना है कि पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा उर्दू होगी. जो भी इस संदर्भ में आपको गुमराह करने की कोशिश करेगा वह असल में पाकिस्तान का दुश्मन है. बिना एक राष्ट्रीय भाषा के कोई भी देश मजबूती के साथ एकजुट नहीं रह सकता और न ही कार्य कर सकता है. दूसरे देशों का इतिहास देखो इसीलिये जहाँ तक पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा का प्रश्न है, वह उर्दू ही होगी"
पूरा हाल  इस व्यक्तव्य के बाद "नो" से गूँज गया, राष्ट्र पिता (क़ायदे आज़म) जिन्नाह को अपने ही नौनिहाल देश में यह पहले सार्वजनिक विरोध और उसकी नीतियों को इंकार का सामना था. सितंबर ११,१९४८ को जिन्नाह की मृत्यु के बाद लियाकत अली ख़ान ने अपने भरपूर सामंती स्वरुप में उर्दू की वकालत जारी रखी जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप बंगाली मुसलमानों में बंगाली भाषा के लिये मोह भी साथ-साथ बढ़ता गया. पाकिस्तानी हुकमरानों ने इस विवाद से निपटने के लिये एक भाषा समिति भी बनायी जिसकी वाहियात सिफ़ारिशें गुप्त रखी गयी. बंगाली भाषा को सार्वजनिक रुप से हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाली भाषा बता कर (क्योंकि उसका आधार संस्कृत है) उसका शुद्धिकरण करने जैसी तकमीलें निकाली गयी. रवीन्द्र संगीत, नज़रुल गीती को हिंदु संस्कृति का वाहक घोषित किया गया जिसके चलते गैर-मुस्लिम बंगाली समाज में भी असुरक्षा का भाव लगातार गहराता गया. भाषा के मसले पर सभायें, धरना प्रदर्शन होने से लगातार बंगाल का राजनैतिक माहौल गर्माता रहा जिसे उर्दू के पैरोकारो-सामंतो-नेताओं ने पाकिस्तान के विरुद्ध चल रही साजिश बताया. इसी महौल में २१ फ़रवरी १९५२ को ढाका में एक प्रदर्शन के दौरान  पाकिस्तान हकुमत ने गोली चला दी जिसमें सैंकडों जख्मी हुये और विश्वविद्यालय के  चार छात्रों की मौत हुई जिनके नाम रफ़ीक, जब्बार, सलाम और बरक़त थे. इस घटना को बंगलादेश के इतिहास में "एकुशे" त्रासदी के नाम से जाना जाता है, इन्हीं चार लोगों की स्मृति में ढाका की शहीद मिनार बनायी गयी और इन्हीं चारों शहीदों को बंगाल राष्ट्र के अग्रज नेताओं के रुप में आज भी जाना जाता है. १९५२ से लेकर १६ दिसंबर १९७१ के १९ वर्षों के इतिहास में वेस्ट पाकिस्तान को बंगाल पर एक औपनिवेशिक ताकत और उनके ज़ुल्मों सितम में कोई ३० लाख बंगालियों की हत्यायें इसी उर्दू अदब के प्रेमियों, दंभियों, फ़ासिस्ट ताकतों ने अपनी नाजाएज़ संतान जमाते इस्लामी जैसे संगठन, फ़ौज, पुलिस, खुफ़िया इदारों आदि के जरिये करवायी. उर्दू भाषी अल्पसंख्यक होते हुए भी, अपने अहंकारी-दंभी संस्कारों के चलते पूरे पाकिस्तान पर इस भाषा को थोपने का नतीजा यह हुआ कि अपने जन्म के कुल २४ वर्ष के भीतर इसे पूर्वी पाकिस्तान से हाथ धोना पडा. इन २४ सालों में यदि बंगाली समुदाय का संसद, फ़ौज, सरकारी नौकरियाँ, पुलिस आदि में अनुपातिक प्रतिनिधित्व देखें तब यह स्पष्ट हो जाता है कि पश्चिमी पाकिस्तान के हुकमरान इन्हें कितने संदेह की दृष्टि से देखते थे. भाषा के साथ-साथ ईस्ट बंगाल से जुडे अन्य राजनैतिक प्रश्नों/कारणों पर यहाँ टिप्पणी करना न तो प्रासंगिक है न ही यथोचित होगा. आज़ाद बंगलादेश के लिये ऐकुशे फ़रवरी एक राष्ट्रीय पर्व बन गया है, राष्ट्र भक्ति और बंगला भाषा के प्रेम से ओतप्रोत कई मधुर काव्यरचनायें की गयी हैं, हर साल उन चारों शहीद छात्रों को भावभीनी श्रद्धांजलि पूरे बंगला देश वासियों द्वारा अर्पित की जाती है.
भारत में उर्दू भाषा का चरित्र मूलत: कुलीन वर्गीय ही रहा, खासकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जिसकी स्थापना का मूल उद्देश्य भारतीय मुस्लिम सामंतों, नवाबों और मध्य-उच्च वर्ग के  मुस्लिम बच्चों को अंग्रेज़ी तालीम देना था (सर्व साधारण मुसलमानों के लिये नहीं) लिहाज़ा वहां तालीम लेने गये कुलीन मुस्लिम नौजवानों ने इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को भलि भांति निभाया. इसी विश्वविद्यालय के पढ़े सूरमाओं के एक बड़े वर्ग ने सबसे पहले उसी मुल्क को तोडने का वैचारिक आधार पैदा किया जहां वह पले बढ़े, आज भी यह विश्वविद्यालय उन देश भंजक कवियों और उर्दू भाषा के नाम पर सीना ठोक ठोक कर दंभ मारने वालों के कसीदे पढ़ने में कोई कोताही नहीं बरतता बल्कि उनके लिये सालाना जलसों का आयोजन भी होता है.(ज़रा भगत सिंह के व्यक्तव्यों को यहां फ़िर दोहरायें- आज भी उतने ही सार्थक हैं) इसी विश्वविद्यालय के पढ़े दानिश्वरों ने पाकिस्तान में जुबान को मज़हब से जोड़ने वाली अमरनाल की संचरना की जिसके चलते, न केवल भाषा को ही नुकसान उठाना पडा बल्कि पूरे इतिहास को सिरे से खारिज करने की मंशा में एक पूरी पीढी को विषाक्त किया जिसे अपने अतीत के सही अर्थों का मान नहीं रहा और न ज्ञान. आज इन्हीं उर्दू के दंभियों द्वारा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाने वाली पंजाबी ज़ुबान जिसकी पैदाइश भारतीय है, उसकी नयी लिपि फ़ारसी-अरबी के आधार पर विकसित की जा रही है. जिस विषैली मानसिकता के चलते उन्होंने बंगला भाषा के शुद्धीकरण का प्रयास १९५० के दशक में किया था, उसी दूषित मानसिकता के चलते पंजाबी की इबारत लिखने में ,उल्टे हाथ से शुरु करने और उसका गुरुमुखी प्रभाव समाप्त कर उसे अरबी-फ़ारसी लिपि देने से साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि ये किस मानसिकता से ग्रस्त तबका है. उर्दू से जुड़े मज़हबी कूपमंडूपों के चलते पाकिस्तान में आज भी कोई प्रोफ़ेशनल कोर्स (डाक्टरी, इंजीनियरिंग, कम्प्युटर साईंस आदि) उर्दू भाषा में नहीं पढाया जा सका और न ही इसकी वैज्ञानिक शब्दावली विकसित हो सकी जबकि रुस, चीन, जापान, जर्मनी जैसी और कई मिसालें इतिहास में मौजूद थी. इन देशों ने अपनी मादरी ज़ुबान में विज्ञान, दर्शन, गणित जैसे विषय पढ़- पढ़ा कर दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की थी, उर्दू के कंधे पर बैठ कर पाकिस्तान द्वारा यह सफ़र आसानी से तय कर लिया जाना चाहिये था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ, बल्कि हुआ इसके विपरीत, अज़ादी से पूर्व अगर कुछ चुनिंदा अदीबों को लें (इकबाल, फ़ैज़, अहमद अली, इब्ने इंशा, फ़राज़ आदि) जिनका उर्दू ज़ुबान में अपना मुकाम है तो वह इस लिये नहीं कि उन्होंने इस भाषा का ज्ञान अर्जित किया, वरन इसलिये कि इन दानिश्वरों ने दुनिया भर की दूसरी ज़ुबानों (खासकर अंग्रेज़ी,जर्मन) में फ़ैले पड़े ज्ञान को इकठ्ठा करके उर्दू के पाठकों  में बांटा और उन्हें संवर्धित किया.  समकालीन पाकिस्तानी दानिश्वरों की फ़ेहरिस्त में मुझे ऐसा कोई नाम नहीं दिखाई देता जिसने सिर्फ़ उर्दू के बूते पर कोई किला फ़तह किया हो, क्या डा. अब्दुस सलाम को भौतिकी का नोबिल पुरुस्कार इसके लिये मिला? परवेज़ हूदभाई, अब्दुल कादिर, आयशा सिद्दिका, अकबर स. अहमद, तारिक फ़ातेह, तारिक अली जैसे अंतरार्ष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पाकिस्तानी विद्वानों की जहनी और तालीमी बुनियादों में उर्दू की भूमिका तलाशना भुस के कोठे में सूईं ढूँढ़ने जैसा है और इस तर्क पर कोई मूर्ख ही यकीन करेगा कि आज इस युग में ज्ञान के शिखर पर पहुँचने के लिए  उर्दू भाषा को उसके अनुगामियों ने किसी ऐसे मुकाम पर पहुँचा दिया है कि उससे गुज़रे बिना यह संभव नहीं.
यह, भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पड़ी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें खायी थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बायें बाजु के इन तमाम दानिश्वरों, शायरों, अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दी है. १९४३ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (अधिकारी लाईन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर खुली मान्यता दी और बाकायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान  में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिये भेजा गया, सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेट्री भी बने, उनके बाद फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मकसद से नहीं हटे. दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बड़ा ज़मीनी आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी कुलीन-सामंती निज़ाम, ज़ुबान, उसूलों और रस्मों-रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से ’किताबी और काफ़ी इंकलाब’  पाश कालोनी के कुछ मकानों में तो जरुर हुआ लेकिन सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरुस्कार जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ तो हासिल हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस इन्हें न मिल सका. आज भी कमोबेश यही हकीकत हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान के शायर/लेखक टेलीवीज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते  तो देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकाण्ड आदि पर जावेद अख्तर-गुलज़ार कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहा अरुंधति राय उन्हें पटखनी देती नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी सड़क पर उतरे जबकि उसके कातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से किसी कौमी हीरो जैसा सम्मान मिला.
उर्दू का भविष्य पाकिस्तान में भी दिन ब दिन अंधेरे की गर्त में घुसता प्रतीत हो रहा है, जिन हालात से पाकिस्तान आज बावस्ता है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ये मुल्क एक बार फ़िर टूटन के कगार पर है. अमेरिका की मौजूदगी, उसके साथ टकराव और पाकिस्तानी समाज के मूलभूत आंतरिक अंतर्विरोध उसे फ़िर तोड़ से दें तो ताज़्ज़ुब न होगा. बलोचिस्तान की स्वतंत्रता के बाद स्वाभाविक रूप से पंजाब, सिंध अपनी अपनी राष्ट्रीयताओं की तरफ़ तेज़ी से बढ़ेगें जैसे नार्थ वेस्ट प्रोविन्स में पठान बढे़ हैं, इस राज्य में पश्तु ज़ुबान राज्य भाषा हो ही चुकी है, पंजाबी अपनी ज़ुबान लेंगे, सिंधी अपनी और  बलोच अपनी ही भाषा को महत्व देंगे...बचे मुहाजिर, जिनकी हकीकत से आज पूरी दुनिया दो चार है, उनका नेता  अल्ताफ़ हुसैन लंदन में बैठा तकरीरे करता है और दिल्ली में आकर मुहाजिरों की ख़ता माफ़ करने और उन्हें वापस हिंदुस्तान में पनाह देने की ख्वाईश का ऐलान पहले ही कर चुका है, ऐसे हालात में उर्दू का यह  डगमगाता जहाज़ कितनी दूर और आगे परवाज़ करेगा यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन कयासा लगाया ही जा सकता है.
भारत में उर्दू ज़ुबान पर मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने अपनी रोटियाँ सेक-सेक कर इसे शुद्ध रुप से सांप्रदायिक प्रश्न बना दिया है, जितना प्रचार उर्दू के नाम पर किया जाता है उससे अधिक गति से "हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान" शहर, कस्बों और गांवों की दीवारों पर पुता दिखाई देता है. बिहार, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडू (मद्रास)  आदि जगह ज़मीनी स्तर पर उर्दू के प्रचार-प्रसार के संजीदा काम हुए हैं, मदरसों से पढे हुए छात्र आमतौर पर धार्मिक इदारों में ही खप कर रह जाते हैं जिनका व्यापक समाज के हित में कोई रचनात्मक भूमिका न के बराबर है, लेकिन सियासी मसले पर यह तबका आंदोलित होकर जब सड़क नापता है तब उसकी प्रतिक्रिया आवश्यक रुप से ज़बरदस्त होती है. मदरसे में मिली तालीम का उद्देश्य भी मात्र उर्दू के विस्तार, प्रचार के लिये नहीं हुआ वरन अरबी भाषा की प्रास्तावना रचने के लिये उर्दू भाषा को सिखाना अनिवार्य समझा गया ताकि इस भाषा में रचा मज़हबी साहित्य छात्रों को पढ़ाया जा सके, इसका मूल मकसद भी इस्लाम की तालीम, जिसे अरबी भाषा के बिना अधूरा माना जाता है, के लिये ही किया गया. मदरसा चलाने वाले तबके का चरित्र मियां जी, शेख जी, खां साहबों आदि की जूतियों की हिफ़ाज़त करना ही अधिक रहा है क्योंकि इन्हीं के चंदे की बुनियाद पर मदरसे चलते हैं और यदा कदा जब भी खां साहब, शेख जी, मियाँ जी को इनके सियासी समर्थन की जरुरत होती तब मदरसे के उस्ताद से लेकर तालीबे इल्म तक सब सड़क पर आते, उर्दू के प्रश्न पर इस तबके का सियासी इस्तेमाल भारतीय उपमहाद्वीप में अफ़गानिस्तान से लेकर बंगलादेश तक पिछले १०० सालों में बहुत कायदे से देखा जा सकता है. अशरफ़ मुसलमानों के इस राजनैतिक चरित्र की व्याख्या अलग से की जानी चाहिये, चाहे उर्दू का प्रश्न हो या पाकिस्तान का, इस अल्पसंख्यक तबके ने अपने मुफ़ाद के लिये बहुसंख्यक मुसलमानों का ज़बरदस्त सियासी, समाजी और ज़हनी इस्तेमाल (शोषण) किया है. भाषा हो या मज़हब, समाज के ज़हन में अलगाव की बुनियाद डालने का काम सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी अशरफ़ तबके ने किया है जिसका खमियाज़ा सबसे ज़्यादा अजलफ़ मुसलमानों को भुगतना पड़ा है.
मज़हब की आड़ में चला भाषा का अस्त्र, भारतीय उपमहाद्वीप में प्रतिगामी शक्तियों का एक अभेध अस्त्र साबित हुआ है, इसे धर्म के साथ जोड़ कर प्राय: तमाम तर्क और विवेक की रोशनियों को अपने क्रूर इरादों के कठोर पैरों तले कुचलने के प्रयास किये गये हैं. ये प्रतिक्रियावादी ताकतें यह भूल जाती हैं कि मानव इतिहास के क्रम में, इंसान ने कई बार अलग अलग भाषाओं का चोला ओढ़ा है, देशकाल के प्रभाव में धर्म, भाषा, संस्कार आमतौर पर आते-जाते रहे हैं लेकिन फ़िर भी इंसानी जीवन की किलकारियाँ पृथ्वी के कोने-कोने पर घटित हुई, इंसान ने बार-बार मिट कर फ़िर-फ़िर फ़ुदकना, चहकना, बोलना शुरु किया, यह सिलसिला अभी थमा नहीं है. यह कोई जरुरी नहीं कि जो आज बहुत अपना है, कल लुप्त न होगा? प्रतिकूल परिस्थितियों में सिर्फ़ वही बचेगा जिसमें बदलते माहौल के मुताबिक खुद में बदलाव करने की क्षमता होगी. काश पाकिस्तान के हुक्मरानों ने अपने अंहकार के चलते उर्दू को राजकीय भाषा बनाने से पहले किसी प्रकार का जनमत संग्रह करा लिया होता और वही करते जिसे जनता अपना मत देती, तब इतिहास आज कुछ और ही होता. निसंदेह वह उस भाषा के हामियों से मात खा गये जिसका पहला उपन्यास " करुना ओ फुलमोनिर बीबारन" १८५२ में लिखा गया था जबकि उर्दू में डिप्टी नज़ीर अहमद का लिखा पहला नाविल सौलह साल के बाद -" मिरत अल उरुस" १८६८ में छपा. दंभ इंसान को सच नहीं देखने देता, अक्सर उसे मुँह की खानी पड़ती है, यही कडुवा सबक इतिहास ने हमें सिखाया है, अफ़सोस कि आज भी कुछ लोग उसी मज़हबी, ज़हनी कैफ़ियत से दो चार हैं जिसका प्रदर्शन १९५२ में देखने को मिला था, परन्तु इतिहास इन्हें फ़िर  पहले से भी अधिक कडुवा सबक सिखाने के लिये सीना ताने खड़ा है. 
उर्दू भाषा को सच्ची राह और दिशा हिंदुस्तान के गली कूचों से ही मिलेगी, इस भाषा का प्रचार जितना जड़ों में होगा उतना ही इसके सिर से सामंति बोझ कम होगा, जितनी भी यह जन भाषा होगी उतनी ही सरस और सहज होगी. (गांधी ने जिस भाषा को "हिंदुस्तानी" नाम दिया था- वह यही थी) जब-जब इसे महारानी बना कर पेश किया जाता रहेगा तब-तब इसके वंश और खानदान की पड़ताल होगी, इसके खिलाफ़ साजिशें होंगी, इसे हुक्मरान की नज़र से देखा जाता रहेगा जिसका नतीजा हम देख ही चुके हैं, जिस दिन यह दूसरी भाषाओं की बहन बन गयी, तभी से इसकी हिफ़ाज़त का जिम्मा स्वत: सभी ले लेंगे (आज भी इस सोच के लोग है जो इसी जज़्बे के चलते इसे न केवल सम्मान देते हैं बल्कि उसे अपने कुनबे की समझ कर इसकी सेवा करते हैं), सभी इसकी सेहत का, दाने-पानी का, इसके मिलने जुलने वालों को वही तवज्जों देंगे जैसे बहनों को मिली है, उन्हें दी जाती है, इसे भी दी जायेगी..शर्त यह है कि इसे महारानी के दंभी तख्तोताज़ से उतरना होगा जहां इसे नाजायज़ तरीके से कुंठित, दूषित, मानसिक तौर पर दिवालिया सियासी लोगों ने जबरन बैठा दिया है.
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शमशाद इलाही शम्स
टोरोंटो, कनैडा
  

Tuesday, January 10, 2012

मुल्लाह-नेता और नागरिक स्वतंत्रता.......सलमान रुश्दी की भारत यात्रा का विरोध

सलमान रुश्दी को एक लेखक संघ में शिरकत करने के लिये राजस्थान आना था, कि दरुल उलूम के कर्ता-धर्ता मौलाना नोमानी ने उनकी भारत यात्रा पर प्रतिबंध लगाने के लिये, भारत सरकार से बजरिये मीडिया फ़रमाईश कर दी है. साथ ही साथ मुलायम के साथ लगा सियासी मुल्लाह आज़म खां ने भी बांग से बांग मिलायी. सब को पता है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, नेता कैसे-कैसे हथकंडे अपना कर इन मुल्लाहों का इस्तेमाल करते और अपनी सियासी हांडी पकाते, इस फ़िराक़ में कि शायद सत्ता का सालन इस बार उनका ही होगा. हर चुनावों के पहले मुल्लाह-मौलवी पार्टी की जैसे बन ही जाती. कोई २८ बरस पूर्व लिखी रुश्दी की किताब "शैतानी आयतें" जिसे एक अन्य मुल्लाह (इमाम खुमैनी-इरान) ने बिना पढे़ ही इसके लेखक को मौत के घाट उतारने का फ़तवा दे दिया था. अब यह भारतीय जनतंत्र में फ़तवा देने का अधिकार, वह भी किसी व्यक्ति के नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों को कुचलने का ठेका जैसे इन्हीं के हाथ में हो? ये अधिकार इन्हें कहां से प्राप्त हुये? कौन सा चुनाव लड़ कर ये मुसलमानों के बिहाफ़ पर एकाधिकार से बोलते हैं? अगर ये इतने ताकतवर है कि बाज़ारु नेता इनके तलवे चाटते फ़िरें तब ये मौलाना/दारुल उलूम ही अपना दल बना कर चुनाव क्यों नहीं लड़ लेते? ये इमाम बुखारी पुरानी दिल्ली से ही चुनाव क्यों नहीं जीत लेते?

जाहिर है, जहां धर्म का मसला हो तब शिखंडी नेता गणों की रीढ़ की हड्डी लकुवाग्रस्त हो जाती है, चंद वोटों के लालच में ज़ुबान सच के ज़ायके से महरुम हो जाती है और लोकतंत्र, उसकी मर्यादायें पडौस के आंगन में बच्चों की तरह खेलने चली जाती है. अशोक वाजपई, मौलाना वहीदुद्दीन खां जैसे लोगों ने नोमानी के बयान की आलोचना कर के हिम्मत का काम किया है, मैं उनके जज़्बे का एहतराम करता हूँ और सलमान रुशदी का भारत अथवा दुनिया के किसी भी कोने में स्वागत करता हूँ, क्योंकि कलम का जवाब कलम होता है, कलम का जवाब अगर तलवार हो जाये तब सत्ता में समझो कोई नादिर ही बैठा है भले ही उसका नाम इस्लाम हो या तूफ़ान...

Sunday, December 18, 2011

हज-ईद अल अधाह (बकर ईद): एक आलोचनात्मक अध्ययन



इस्लाम धर्म के पांच स्थायी फ़र्ज़ों में अंतिम फ़र्ज़ (धार्मिक कर्तव्य) है हज जो इस वर्ष २०११ के ६ नवंबर को सऊदी में मनाया जायेगा और ७ नवंबर को भारत सहित अन्य दक्षिणी ऐशियाई देशों में. यह दिन सालाना हज का अंतिम दिन होता है, इसे ईद -अल- अधाह, ज़ुहा, बड़ी ईद भी कहा जाता है यानि कुर्बानी का त्यौहार, बलिदान पर्व. ६३१ में पैगंबर मौहम्मद के नेतृत्व में दसियों हजार मुसलमानों ने मदीने से मक्का की यात्रा कर हज किया था, इस सफ़ल, हिंसा रहित हज का इस्लामी इतिहास में अपना एक महत्व है, इसी दिन पैगंबर साहब की हिजरत खत्म हुई थी, इसी हज के दौरान मक्का के परिसर की सफ़ाई की गयी कोई ३०० बुतों को निकाल फ़ेका गया इस संदेश के साथ कि अल्लाह एक है. इस हिसाब से यह १३८० वां हज है (कुछ एक सालों को छोड़कर जब हज सम्पन्न न हो सका), जाहिर है यह सफ़र कोई नया नहीं एक लंबा समय गुजर चुका है और बीता हुआ हर लम्हा अपने अच्छे बुरे असर पीछे छोड़ जाता है. कोई भी आंदोलन और उसका स्वरुप वही नहीं रहता जैसा  वह अपने प्रारंभ में हो, इस्लाम भी उससे अछूता नहीं है जिसमें आज की तारीख तक कोई ३८० मत जन्म ले चुके हैं, आज हम सिर्फ़ हज और उससे जुडी विद्रूपताओं पर ही चर्चा करेंगे.

हज यात्रा दुनिया भर से शुरु हो कर मक्का में ख़त्म होती है, मक्का में शुरु होने वाले कर्मकाण्ड इस्लामी कलेंण्डर के अंतिम माह दुह अल हिजाह के ८ वें दिन से शुरु होकर १२वें दिन को समाप्त होते हैं, अधिकतर मुसलमानों को यह भ्रांति है कि हज सिर्फ़ इस्लामी पर्व है, यह सालाना समारोह मक्का में इस्लाम के उदभव पूर्व हजारों साल से होता आ रहा है जिसमें इसाई और विभिन्न पगान अरब समुदाय अपने-अपने ईष्ट देवता की मूर्ति समक्ष शिरकत करते आ रहे थे, इसी धार्मिक जमावडे के चलते न केवल मक्का उक्त भूभाग का एक प्रमुख व्यवसाय केन्द्र बना बल्कि चढ़ावे के रुप में भारी रकम हर साल मक्का में जमा होती जिस पर पैगंबर मौहम्मद के कबीले का पुश्तैनी कब्ज़ा था. हज से जुडी एक पुरानी कथा है, जिसे इस्लाम में बडे कायदे से सजा लिया गया है, कथा के मुताबिक ईसा से २००० पूर्व पैगंबर इब्राहम की खुदा ने परीक्षा ली और उनके इकलौते बेटे इस्माईल को भेंट में मांग लिया,इब्राहीम अपने इकलौते बेटे को कुर्बान करने को तैय्यार हो गये और उसका गला काटने ही वाले थे कि उन्हें तत्कालीन परमात्मा ने बता दिया कि यह एक परीक्षा थी जिसमें वह उत्तीर्ण हो गये है लिहाजा उन्हें भेड़, बकरी, मेंढे इत्यादि जैसे विकल्प दिये गये कि बेटे की जगह आप इन पशुओं का वध करके बलिदान कर सकते हैं. यह सिलसिला तभी से चला आ रहा है न कि ६३१ ई० से. एक अन्य कथा के मुताबिक इब्राहीम के इसी नवजात पुत्र इस्माईल द्वारा अपनी ऐढी जमीन पर पटकने के कारण मक्का में जल स्रोत बना जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है, इन घटनाओं का जिक्र यहूदी और इसाई धर्म ग्रंथो में है जिसे कुरान शरीफ़ में भी दोहरा दिया गया है.

ईष्ट देव को खुश करने के लिये पशुओं का वध करना सिर्फ़ इस्लाम तक महदूद नहीं है, ग्रीक, रोमन,यहूदी, ईसाई और अन्य ओरियटल धर्मों में पशुवध सामान्य रुप से प्रचलित है, मुसलमानों में इसे कुर्बानी कहा जाता है, यह शब्द हीब्रू भाषा के शब्द कोर्बान से आया है जिसका अर्थ है चढावा, यहूदियों के धर्मस्थल पर बाकायदा कुबार्नी दी जाती थी. विडंबना यह है कि इस्लाम अपने समय से पहले के समय को दौरे जाहिलिया घोषित करता है लेकिन इसी जहालत के दौर की हज जैसी न जाने और कितने किस्से कहानियां नये सिरे से गढ़ कर जनता को परोसने से नहीं चूकता. जाहिर है इस्लाम के इस अंतिम फ़र्ज को लागू करने में राजनीतिक और आर्थिक कारण अधिक प्रभावी थे और है जिन्हें मात्र धर्म और कर्मकाण्ड की चादर तले ढक दिया गया है. इस सालाना मेले के बूते मक्का और मदीने की अर्थव्यवस्था  पिछले १४०० साल से चल रही है इन शहरों को भूख से मुक्ति का यह पैगंबर मुहम्मद द्वारा दिया गया सबसे बडा वरदान है. इन दोनों जगह के ऊपर नियंत्रण करने के संघर्षों को देख कर यही स्थापित होता है कि यह प्रसंग शुद्ध रूप से आर्थिक राजनैतिक था और आज भी है. आज राजा सऊद खानदान ने इसे एक बेहतर पर्यटन उद्योग की तरह विकसित किया है और अरबों डालर खर्च करके इन धार्मिक स्थलों का आधुनिकीकरण भी किया है. कई ऐतिहासिक धरोहरों (तुर्की किला) को गिरा कर सात सितारे होटल और चकाचौंध कर देने वाले शापिंग माल खोल दिये गये हैं, होटलों में हर  नस्ल की लडकियों द्वारा वैश्यावृति की सेवायें उपलब्ध हैं. खास लोगों को शराब भी मिल जाती है.

उपरोक्त भूमिका के मद्देनज़र अब मुख्य प्रश्न पर चर्चा करना सरल होगा, क्योंकि पाठकगण इसके बिना इस मौजू पर कोई राय बनाने में थोड़ा समय लेते. हज के अंतिम पडाव पर हर व्यक्ति को कुर्बानी देना अनिवार्य है, जिसे वह वहां भेड़, बकरी, मेंढे़, ऊँट,गाय, भैंस आदि खरीद कर देता, इस वर्ष दुनिया भर से कोई ३० लाख लोगों द्वारा हज करने के इमकान हैं, इस संख्या से आप वहां होने वाले रक्तपात का अनुमान लगा सकते हैं. व्यवहारिक कर्मकाण्ड की विद्रूपता यह है कि मक्का में कुर्बानी करने वाला हाजी इस पशु का गोश्त खा ही नही पाता, बस सुन्नत के नाम पर गुर्दे, कलेजी निकाल कर पका ली जाती हैं और बाकी गोश्त सरकार की चैरिटी को दान कर दिया जाता है जिसे कहा जाता है कि गरीब मुल्कों में भेजा जाता है, ध्यान रहे यह व्यवस्था ८-१० साल पहले तक नहीं थी..तब यह तमाम गोश्त रेगिस्तान में दफ़ना दिया जाता था.

पैगंबर के ज़मानें में पशुवध इस लिये जायज़ हो सकता था कि इस पर्व के दौरान हजारों गरीब गुर्बों को इस बहाने खाने को गोश्त मिल जाता (दूसरे पशुपालन का काम करने वाली जातियों के पशु हर साल अच्छी कीमतों में बिक जाते, जो आज भी चालू है) क्योंकि कुल गोश्त को तीन हिस्सों में बाँटते, एक हिस्सा घर, दूसरा खानदान और तीसरा हिस्सा गरीबों का, लेकिन जब कर्मकाण्ड चेतना पर कब्ज़ा कर ले तब कोई कूढमगज़ ही पशु की कुर्बानी उसके गोश्त को दबाने के लिये करेगा. हाजियों की बडी संख्या कुर्बानी के इस कर्मकाण्ड को बजाये मक्का के अपने गृह राज्य में भी करने लगी हैं, लेकिन फ़िर भी, मक्का में होने वाले इस विश्व के सबसे बडे पशुवध मेले को आज की परिस्थितियों में स्वीकार किया जाना एक मुजरिमाना कार्यवाही है, न केवल संवेदना के स्तर पर बल्कि दुनिया भर में इतनी बडी खाद्य सामग्री के अपमान के कारण भी इस पर तत्काल प्रतिबंध लगे और कुर्बानी करने वाले धर्मभीरुओं को दुनिया का वह हिस्सा दिखाया जाना चाहिये जहां अकाल पडा है और अरबों लोगों के पास खाना ही नहीं पीने का पानी भी नसीब नहीं है, जब एक अरब इंसान इस पृथ्वी पर भूखा हो तब ३० लाख आदमी मक्का में कुर्बानी कर के अपने गुनाहों की माफ़ी मांगता है, है न विडंबना..इंसान की भी और उसके इश्वर की भी. धर्म अगर एक घंधा न बन गया होता तो यही हाजी और उनका हज संचालन करवाने वाले राजा, क्या इस गोश्त का निर्यात पिछले ४०-५० साल से इथियोपिया, सोमालिया, सूडान, कांगों, बांगलादेश जैसे देशों में नहीं कर सकते? क्या अब तक सऊदी अरब के आस पास के देशों की भूख की समस्या हल नहीं हो गयी होती? क्या यह जरुरी है कि पशुओं की कुर्बानी दी जाये...क्या इस पशु के मूल्य के बराबर पानी, दवा, खाद्यान्न आदि नहीं भेजा जा सकता? आज दुनिया इतनी छोटी बन चुकी है अगर इच्छा शक्ति हो, संवेदना हो, परोपकार की भावना हो तो बहुत से विकल्प हैं लेकिन कुरान शरीफ़ के अंतिम सत्य से आगे देखने का साहस कौन करे?

मक्का में हज के अतिरिक्त पूरी दुनिया के करीब १.५ अरब मुसलमान इस पर्व पर अपनी हैसियत के मुताबिक कुर्बानी जरुर करते है, भारत जैसे मुल्क में इस कुर्बानी का न कोई धार्मिक अर्थ रह गया है न गरीबों के प्रति किसी संवेदना का. तीन दिन तक जी भर कर जानवर काटे जाते और कुर्बानी करने वाले घरों में गोश्त इतना इकट्ठा हो जाता कि उसे रखने की जगह न रहती, कुर्बानी करने वाले परिवार ही आपस में एक दूसरे के घरों से आने वाले गोश्त का विनिमय करते रहते और जिन्हें इस गोश्त की वाकई जरुरत होती वह फ़िर भी इससे महरुम ही रहते. बलि दिये गये जानवरों की खालों को आमतौर पर मदरसों-मस्जिदों को दान कर दिया जाता जिसे वह बाज़ार भावों के मुताबिक बेच कर पैसा कमाते, हफ़्ते दस दिन तक मुल्लाह-इमाम-हाफ़िज की दाढि़याँ सालन की चिकनाई में तर रहती, उन्हें लगता कि देखों इस्लाम अपने उरुज़ की तरफ़ किस कदर तेज़ी से बढ़ रहा है. नव धनाढ्य मुस्लिम कई लाख-लाख रुपये का बकरा खरीद कर उसकी कुर्बानी करके समाज में अपने रुतबे का फ़ाहशी दिखावा करेंगे और न कोई मुल्लाह बोलेगा न कोई इमाम.

मुस्लिम मज़हबी नेतृत्व अपनी आत्ममुग्धता और सर्वश्रेठवादी विचार के चलते लगभग अंधा हो चुका है, जिस वर्ग के विश्वास को संचालित करने की डोर १४०० वर्ष पुरानी सोच हो उससे भला यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मुसमानों के इस व्यवहार का इस पृथ्वी के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड रहा है? एक अनुमान के मुताबिक बंगलादेश जैसे गरीब देश से धनपति एक लाख मुसलमान इस वर्ष हज और कुर्बानी करने के लिये लगभब ५० करोड अमेरिकी डालर खर्च कर के अपने देश के अमूल्य संसाधनों को नष्ट कर के और गरीबी की दलदल में धंस जायेगा, हर वर्ष २ से ३ अरब डालर हज पर खर्च किये जाते हैं..अभी वक्त आ गया है कि मुस्लिम समाज इन सभी सवालों पर कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करे. आखिर इन पंक्तियों के लेखक ने अपने अल्प जीवन में ही १९७५-७६ में दस रुपये प्रति किलो बकरे के गोश्त, ५ रु० किलो भैंस/कटडे का, २०-२५ रु० की मुर्गी खरीदी है जो आज क्रमश:३००.००/१००.००/१५०.०० प्रति किलो पहुंच गया है क्यों? क्या सिर्फ़ इसके लिये मुद्रा स्फ़ीति ही जिम्मेदार है? २५ साल पहले मुर्गी का गोश्त सबसे मंहगा था जो आज उसी अनुपात के अनुसार सबसे महंगा होना चाहिये था, लेकिन ऐसा इसलिये नहीं हुआ क्योंकि पोल्ट्री फ़ार्म्स के आने से उसकी सप्लाई बढ गयी...आज पशुपालन के क्षेत्र में भारत बहुत पिछडता जा रहा है जिसका प्रमुख कारण है कि इसे खाने वालों का अनुपात, पालने वालों से अधिक बढा, इसी कारण दूध के मूल्यों में भी बेहताशा वृद्धि पिछले २० वर्षों में ही हुई है. क्यों नहीं आज कोई फ़तवा दिया जाता कि एक बकरा वही काटे जो पहले पांच बकरे पाले? भैंस को पालने वाला ही उसके कटडे को कुर्बानी दे सकने का हकदार हो? क्यों नहीं कुर्बानी के बराबर धनराशी का इस्तेमाल शिक्षा फ़ण्ड बना कर किया जा सकता? क्यों नहीं एक इमाम हर  साल इसी एकत्रित धन से कोई इंजीनियरिंग अथवा वोकेशनल कालेज का उदघाटन कर सकता? आठ-आठ, दस-दस बार उमरा और हज करने वाले अपनी मुक्ति के लिये जितने आतुर दिखाई देते हैं,वह अपने आस-पास के समाज और उनसे जुडी समस्यायें के प्रति उतने ही अंधे क्यों हैं? क्यों धार्मिक नेतृत्व उन पर प्रतिबंध लगाता? क्यों न यह हर साल बर्बाद होने वाला पैसा समाज से गरीबी और अशिक्षा मिटाने के लिये किया जाये? क्या परलोकवादी इस्लाम से इस लोक के प्रश्न और उनके समाधान प्रस्तुत करने की दिशा में कोई उम्मीद की जानी चाहिये? क्या उन्हें यह बताने की जरुरत है कि इस त्यौहार के सात दिनों के बाद कोई गैर मुस्लिम मुसलमानों के गली मौहल्लों से बिना मुंह पर कपडा बांधे नहीं गुजर सकता? क्या इस त्यौहार पर जिस तरह गलियों में, नालियों में पशुओं का खून बहाया जाता है वह किसी शिष्ट संस्कृति का परिचायक है? क्या छोटे-छोटे मासूम बच्चों के सामने उसके बाप द्वारा बकरे,गाय, भैंस के गले पर छुरी फ़ेरना, उनका अनुकूलन करना नहीं है? क्या इस महीमा मंडित हिंसा को देखने वाले बाल ह्र्दय में हम कूट-कूट कर हिंसा नहीं भर देते? क्या यही धर्म है, यही आध्यात्मवाद है? हो सकता है इसकी जरुरत १४०० वर्ष पहले हो, लेकिन क्या आज भी इस मानसिक अत्याचार की कोई आवश्यकता है?

अभी समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बलिदान को वास्तविक अर्थों में समझ ले, बलिदान दें अपने आडंबरों का, बलिदान दें अपनी मूढ़ता को त्याग कर, बलिदान करें अपने समाज में व्याप्त जातिवाद को त्याग कर, कुर्बानी ही देनी है तो दहेज न ले, न दें जिसका कैंसर पूरे समाज को खा रहा है...नेता भी चुप है और मुल्लाह भी, बलिदान करें- गरीब घरों में अपने बच्चों की शादी करके, बलिदान करें..किसी गरीब के बच्चे को शिक्षा दिला कर, बलिदान करें किसी चलते हुए शिक्षण संस्थान में दान करके, बलिदान करें, अपने पर्यावरण की हिफ़ाज़त करके, बलिदान करें अपने आस पडौस में सफ़ाई करके, कुर्बादी देनी है तब पशु की कीमत के बराबर अपने आस पडौस में पेड़ लगा दें/किसी बीमार को दवा ला दें/किसी अनाथालय अथवा वृद्धाश्रम में दान दे दें, बलिदान करें इस समाज को शोषण से मुक्त करके, बलिदान करें अमन, भाई चारे को कायम करके..करने के लिये इतना कुछ है कि कई जीवन चाहियें, लेकिन जिन्हें सिर्फ़ जन्नत और हूरों के ख्वाब का चश्मा जन्म से मृत्यु तक चढा दिया जाता हो, वह इन सब मूल्यों के प्रति न केवल निष्पृह जो जाते है बल्कि अपने आने वाली पीढियों को भी एक अभूतपूर्व अंधकार में वह ढकेल जाते हैं.. जाते जाते सिर्फ़ कर्मकाण्ड और दिखावे की चुस्की उनके मुंह में लगी छोड़ देते हैं, इसी चुस्की को जाने वाला स्वंय जीवन भर चूसता रहता और इसी को आने वाले के मुंह में छोड़ जाता है...क्या यह सिलसिला कभी टूटेगा? क्या सिर्फ़ अपनी मुक्ति चाहने वाला  यह समाज  लगातार बढ़ रहे  विद्रूपताओं के कोढ़ से खुद को और समाज को मुक्त कर पायेगा? 

शमशाद इलाही अंसारी-टोरोंटो, कनैडा  

Friday, October 14, 2011

क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!






क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!

मिस्र की जन क्रांति के अभी कसीदे गढे जा ही रहे थे कि इस आवामी एक जुटता को तोडने और उसे नेस्तेनाबूद करने की खबरे आने लगी, हालांकि मुबारक सरकार के गिरते ही इन घटिया हरकतों की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन अब मिस्र के मूलनिवासी जो कोप्टिक चर्च के अनुयायी है, जिनका इतिहास चौथी शताब्दी (४०० ऐ.डी.) पुराना है जिनकी संख्या कुल मिस्र की आठ करोड आबादी का कोई १० प्रतिशत है, दुनिया के सबसे पुराने चर्चों में उनका शुमार होता है, उनके धर्म स्थानों और अनुयाईयों पर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा हमले संगठित रुप से किये जा रहे हैं. अभी तक इन संघर्षों में कई चर्च हिंसा के शिकार हुए हैं और सैंकडों काप्टिक ईसाईयों की जाने जा चुकी हैं कल ही काहिरा में हुई हिंसा में २५ लोगों के मरने की खबर है.
ध्यान रहे, मिस्र की क्रांति जिसने चार दशक पुराने मुबारक के ताकतवर पुलिस-स्टेट को अपनी शानदार एकता के चलते ध्वस्त किया था, इस जन क्रांति में पूरे देश की जनता एकजुट होकर लडी थी जिनका सिर्फ़ एक ही मकसद था मुबारक सरकार को उखाडना और उसके स्थान पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को बनाना. इस क्रांति की तीन प्रमुख धारायें थी, फ़ेसबुक एक्टिवीस्ट नौजवान समुदाय, कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले किसान, मजदूर नौजवान और तीसरा मुस्लिम उग्रवादी विचारधारा से लैस ब्रदरहुड, जिसे जन सैलाब में शिरकत करने का फ़ैसला लेने में ४ दिन लगे. यही वह संगठन है जिसे मुबारक सरकार में न केवल मुख्य विपक्ष की भूमिका भी मिली और रियायतें भी, इस संगठन से सहमति रखने वाले मुबारक सरकार में मंत्री भी थे, यही वह राजनीतिक दल भी है जिसके पास अपना एक कारगर संगठन है. जाहिर है इस संगठन का मूल उद्देश्य मिस्र में इस्लामी शासन, शरिया कानून को ही सख्ती से लागू करना है और मिस्र में फ़तह का झण्डा गाड कर पूरे दुनिया में इस्लामी हकुमत स्थापित करना इनका अगला स्वभाविक ऐजेण्डा होगा.
पिछले कई महीनों से मिस्र की जनता की एकता को तोडने और पूरे समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश वही करेगा जिसे इसका कुछ माह बाद होने वाले चुनावों में फ़ायदा होगा. मौजूदा अंतरिम सरकार यदि पिछले कई महीनों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के अभियुक्तों को पकड पाती, उन्हें नंगा कर पाती तो स्थिती दूसरी होती, लेकिन मौजूदा अंतरिम सरकार में न तो वह इच्छा शक्ति है और न वह इतनी सक्षम कि इस राजनीतिक पहेली को हल कर सके.
कितनी अजीब बात है, सभी धर्म शांति- शांति स्थापित करने की बात करते हैं और वह शांति पिछले ३-४००० सालों में कभी स्थापित नहीं हुई. धर्म हत्या और हिंसा को मानो वैधानिक रुप देने के लिये शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार बन चुका है जिसका इस्तेमाल वह अपने हितों की रक्षा करने में कितनी भी निर्ममता से कर सकता है और ऐसा किया गया हर कार्य विधिसम्मत ठहरा दिया जाता है. हम भारतीयों से अधिक इसका भुक्त भोगी और कौन होगा? अपने पौराणिक इतिहास से लेकर २००२ के गुजरात के दंगों तक, इसको जायज और नाजाएज बताने के असंख्य तर्क धार्मिक दृष्टिकोण से दिये जा सकते हैं.
मिस्र में आज जो नज़ारा दिखाई दे रहा है, वह इस बात का क्या स्पष्ट प्रमाण नही कि धर्म समाज में सांमजस्य स्थापित करने में पूरी तरह विफ़ल रहा है इसके विपरीत इसकी उपस्थिती मात्र से ही जनता के संघर्षों और उसकी एकता को एक झटके में तोडा जा सकता है. जिस आठ करोड आबादी ने अभी अपने सिर से मुबारक का जुआ उतार फ़ेंका है वही जनता अपने मूलभूत धार्मिक अंतर्विरोधों के कारण अपनी एकता की बलि दे रही प्रतीत होती है.
क्या यह उप्युक्त समय नहीं कि धर्म को हम व्यक्ति का बेहद निजी विषय घोषित करते हुए उसके सामाजिक-राजनैतिक सवरुप को खारिज करें? क्या यह सही वक्त नहीं कि दुनिया में जहां जहां धर्म आधारित राज्य हैं उनकी सदस्यता सयुंक्त राष्ट्र संघ से खारिज करने का दबाव बनाया जाये? क्या ऐसे राष्ट्रों पर लोकतंत्र स्थापित करने का दबाव न डाला जाये? क्या इन देशों का आर्थिक, राजनीतिक बहिष्कार न किया जाये? क्या इस बात पर अब भी बहस की कोई गुंजाईश है कि मज़हब जब आपके घर की दहलीज़ पार करता है तब वह धर्म नहीं वरन राजनीति बन जाता है? क्या धर्म के नाम पर होने वाले तमाम जलसे जुलूस समाज में विभिन्न धर्मावलंबियों के मध्य प्रतिद्वंदिता को जन्म नहीं दे रहे? क्या आज भी इस गांधीवादी बकवास पर यकीन किया जाये कि एक अच्छा हिंदू या एक अच्छा मुस्लिम बनने से समाज में वैमनस्य स्माप्त हो जायेगा? क्या ऐसा अभी तक हुआ है या अभी तक समाज एक अच्छा हिंदू अथवा मुस्लिम बना ही नही सका? अगर अभी तक बना नहीं सका तो आगे कितने हजार वर्षों की प्रतीक्षा हमें करनी होगी कि एक सभ्य समाज बने? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच में, अथवा हमारे तथाकथित स्वर्ण सिद्धांतों में ही कोई खोट न हो?
धर्म के अंतर्विरोध को जिन समाजों ने हल कर लिया है वहां प्रगति हुई है. क्या यह कहना अनुचित होगा कि आज पूरी दुनिया में वही समाज विकास की दौड़ में पिछडे हुए हैं जहां-जहां धर्म उनके समाज में जीवन-रक्त बन कर दौड़ रहा है. पूरा अफ़्रीका, मध्यपूर्व और दक्षिणी एशिया में धर्म के नाम पर गदर मचा हुआ प्रतीत होता है और आश्चर्य होता है यहीं विकास की चिंता भी गौंण है और इन्हीं तथाकथित धर्मपरायण देशों के न केवल शासक बल्कि जनता भी सबसे भ्रष्ट है. हमें अभी कितनी और शहादतें देनी हैं कि हम इस नतीजे पर पहुंचे कि जो अब तक किया वह धर्म नहीं बल्कि राजनीति थी, वह भी मध्यकालीन राजनीति..धर्म के फ़ूल भी रोजी-रोटी के प्रश्न को हल करने के बाद ही खिलते हैं, उसकी सुबास, उसकी रंगत तब कुछ और ही होगी और वह सर्वथा इस हथियारनुमा धर्म से भिन्न होगा जिसके लिये हत्यायें करना आसान था, हत्याओं का प्रयोजन ढूंढना सरल और संभव था लेकिन मनुष्य को इंसान बनाना मुश्किल.
 
 

Sunday, October 9, 2011

फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....




फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....

पिछले दिनों पाकिस्तानी फ़िल्म बोल देखी, कई दिनों से बोलने की सोच रहा था, आखिर ये उकसाने वाली फ़िल्म है शौयब मंसूर की, जिसे उन्होंने लिखा भी और निर्देशित भी खुद किया..साहित्य समाज का दर्पण होता है और फ़िल्में समाज का अक्स, दुनिया में जैसे ड्रामे पाकिस्तान में लिखे जाते है शायद और कही नहीं लिखे जाते, उसकी वजह है कि वहां का लेखक अभी भी जमीन से जुडा है. दुनिया में सबसे भौंडी फ़िल्में अगर कहीं बनती हैं (तादात के मुताबिक) तो शायद भारत में क्योंकि यहां लेखक फ़िल्म लिखता ही नहीं जो फ़िल्म लिखता है वह लेखक नहीं है (आमतौर पर) लिहाजा विषय की गुणवत्ता और भारतीय हिंदी फ़िल्में एक दूसरे की तरफ़ कमर किये खडी हैं.
बोल फ़िल्म, इसका विषय-चयन और कहानी कहने का ढंग निराला है, हमारे यहां ऐसी विषयवस्तु १९७० के दशक तक फ़िल्मों में बहुदा देखी गयी, अभी पाकिस्तान को इसका सामना है, नया तबका हिल्लोरे ले रहा है और इस्लाम के नाम पर पुरानी रिवायतों को ज़िन्दा रखने की मशक्कत भी है. फ़िल्म एक हकीम और उसके परिवार की कहानी है जो १४ बच्चे पैदा करता है ६ जीवित बचते हैं सभी लडकियों में एक लडका है वह भी लडकियों जैसा जिसे किन्नर कहते हैं. बहनों की कोशिश है कि वह मर्द बने. पढाई- लिखाई में इस मज़हबी हकीम का कोई यकीन नहीं लिहाजा दर्जे ४-५ के बाद कोई स्कूल नही जाता, इस लडके को लोक लाज की वजह से स्कूल भी नहीं भेजते..बहनें इसे काम पर भेजने की कोशिश करती है तो बाहर समाज में लडकों से सेक्स के भूखे गिद्धों को ये "टाईट माल" लगता है सो मौका मिलते ही नौंच लेते हैं इसे. बाप को पता चलता है तो वह इस्तखारा देख कर; अल्लाह का हुक्म समझ कर, अपने बेटे की कत्ल कर देता है. इसी कशमकश में बडी लडकी जो तलाकयाफ़्ता है से, बाप के ताल्लुकात खराब हो जाते हैं और बेटी अपने बाप की हत्या का कारण बन जाती है.
जेल जाती है, फ़ांसी की सजा होती है क्योंकि वह अपना कोई बचाव नही करती, बस मरने से पहले अपनी कहानी मीडिया को सुनाती है और कहानी लौट लौट कर फ़ांसी के तख्ते पर जाती है.
शौयब मंसूर ने कई मसले बडे करीने से एक साथ गूंथ दिये, मुस्लिम समाज में हीजडों की जगह, मुस्लिम समाज में औरत का व्यवहारिक स्थान, मुस्लिम समाज में लडकियों की शिक्षा का स्थान, मुस्लिम समाज में तवायफ़ें और उनका स्थान...कई मसलों पर ये फ़िल्म सिर्फ़ बोलती नहीं बल्कि बेतहाशा चीखती है, आखिर चीखे भी क्यों नहीं? अल्लाह के नाम पर लगातार बच्चे पैदा करने वाले मुस्लिम समाज पर यह निश्च्य ही एक कडा प्रहार करती है और इस बेहूदा प्रचलन पर एक प्रश्नचिन्ह भी लगाती है. पाकिस्तान को इस्लाम के नाम पर बनाने वाले ठेकेदारों ने पिछले ६० सालों में आखिर आवाम को दिया भी क्या? कुछ भी तो नहीं...वही भूख, वही गैरबराबरी, वही बे इंसाफ़ी, वही मुख्तारा बाई के मसले..और साथ ही साथ हर साल बढता मज़हबी जुनून..बस पिछले ६० सालों में मुल्क में दाढियां बढी है या इधर उधर से जुगाड कर बनाया है बम. बाकि सारे सामाजिक और आर्थिक मसले जस के तस है, कहावत है कि कीचड में ही कवंल खिलते हैं..अभी तक कीचड ही कीचड देखी, बोल देख कर लगा कि कंवल भी जरुर खिलेगा, जिस दिन यहां कंवल खिला उसी दिन दुनिया के सबसे बडे झूठ-फ़रेब और सियासी बेइमानी से भी नकाब उठ जायेगा..जिसके बूते इस स्थान का नाम पाक (पवित्र) रखा मानो बाकी संसार अपवित्र हो, ये अलग बात है कि आज पाकिस्तान को बाहरी दुनिया सिर्फ़ अपनी अपवित्र हरकतों और अमल के नाम से ही जानती हो.
....फ़िल्म देखते हुये एक कमी खलती है, लगता है जैसे ड्रामा देख रहे हों, ठीक ऐसा ही "खुदा के लिये" देखते हुए भी लगा था, स्क्रीन प्ले पर अभी काम करने की बहुत जरुरत है, काश कि बजट भी बेहतर होता मंसूर के पास तो और खूबसूरत बन सकती थी फ़िल्म. शफ़क़त चीमा ने भडुवे का रोल ज़बरदस्त किया है बाकी हकीम की भूमिका में मंज़र सहबाई, इमान अली ने तवायफ़ और हुमैमा मलिक ने मेन लीड, बडी लडकी के रोल में अच्छा काम किया है.आतिफ़ असलम बस चाकलेटी हीरो है, उनके रोल में कोई गुंजाइश भी नहीं थी.एक बार जरुर देखने के लायक है ये फ़िल्म, कई बार रुलाती है और पीछे छोड़ती है सुलगते सवाल, जिन पर तवज्जो देने की फ़ौरन ज़रुरत है.

छाया संकलन" गूगल