Sunday, December 18, 2011

हज-ईद अल अधाह (बकर ईद): एक आलोचनात्मक अध्ययन



इस्लाम धर्म के पांच स्थायी फ़र्ज़ों में अंतिम फ़र्ज़ (धार्मिक कर्तव्य) है हज जो इस वर्ष २०११ के ६ नवंबर को सऊदी में मनाया जायेगा और ७ नवंबर को भारत सहित अन्य दक्षिणी ऐशियाई देशों में. यह दिन सालाना हज का अंतिम दिन होता है, इसे ईद -अल- अधाह, ज़ुहा, बड़ी ईद भी कहा जाता है यानि कुर्बानी का त्यौहार, बलिदान पर्व. ६३१ में पैगंबर मौहम्मद के नेतृत्व में दसियों हजार मुसलमानों ने मदीने से मक्का की यात्रा कर हज किया था, इस सफ़ल, हिंसा रहित हज का इस्लामी इतिहास में अपना एक महत्व है, इसी दिन पैगंबर साहब की हिजरत खत्म हुई थी, इसी हज के दौरान मक्का के परिसर की सफ़ाई की गयी कोई ३०० बुतों को निकाल फ़ेका गया इस संदेश के साथ कि अल्लाह एक है. इस हिसाब से यह १३८० वां हज है (कुछ एक सालों को छोड़कर जब हज सम्पन्न न हो सका), जाहिर है यह सफ़र कोई नया नहीं एक लंबा समय गुजर चुका है और बीता हुआ हर लम्हा अपने अच्छे बुरे असर पीछे छोड़ जाता है. कोई भी आंदोलन और उसका स्वरुप वही नहीं रहता जैसा  वह अपने प्रारंभ में हो, इस्लाम भी उससे अछूता नहीं है जिसमें आज की तारीख तक कोई ३८० मत जन्म ले चुके हैं, आज हम सिर्फ़ हज और उससे जुडी विद्रूपताओं पर ही चर्चा करेंगे.

हज यात्रा दुनिया भर से शुरु हो कर मक्का में ख़त्म होती है, मक्का में शुरु होने वाले कर्मकाण्ड इस्लामी कलेंण्डर के अंतिम माह दुह अल हिजाह के ८ वें दिन से शुरु होकर १२वें दिन को समाप्त होते हैं, अधिकतर मुसलमानों को यह भ्रांति है कि हज सिर्फ़ इस्लामी पर्व है, यह सालाना समारोह मक्का में इस्लाम के उदभव पूर्व हजारों साल से होता आ रहा है जिसमें इसाई और विभिन्न पगान अरब समुदाय अपने-अपने ईष्ट देवता की मूर्ति समक्ष शिरकत करते आ रहे थे, इसी धार्मिक जमावडे के चलते न केवल मक्का उक्त भूभाग का एक प्रमुख व्यवसाय केन्द्र बना बल्कि चढ़ावे के रुप में भारी रकम हर साल मक्का में जमा होती जिस पर पैगंबर मौहम्मद के कबीले का पुश्तैनी कब्ज़ा था. हज से जुडी एक पुरानी कथा है, जिसे इस्लाम में बडे कायदे से सजा लिया गया है, कथा के मुताबिक ईसा से २००० पूर्व पैगंबर इब्राहम की खुदा ने परीक्षा ली और उनके इकलौते बेटे इस्माईल को भेंट में मांग लिया,इब्राहीम अपने इकलौते बेटे को कुर्बान करने को तैय्यार हो गये और उसका गला काटने ही वाले थे कि उन्हें तत्कालीन परमात्मा ने बता दिया कि यह एक परीक्षा थी जिसमें वह उत्तीर्ण हो गये है लिहाजा उन्हें भेड़, बकरी, मेंढे इत्यादि जैसे विकल्प दिये गये कि बेटे की जगह आप इन पशुओं का वध करके बलिदान कर सकते हैं. यह सिलसिला तभी से चला आ रहा है न कि ६३१ ई० से. एक अन्य कथा के मुताबिक इब्राहीम के इसी नवजात पुत्र इस्माईल द्वारा अपनी ऐढी जमीन पर पटकने के कारण मक्का में जल स्रोत बना जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है, इन घटनाओं का जिक्र यहूदी और इसाई धर्म ग्रंथो में है जिसे कुरान शरीफ़ में भी दोहरा दिया गया है.

ईष्ट देव को खुश करने के लिये पशुओं का वध करना सिर्फ़ इस्लाम तक महदूद नहीं है, ग्रीक, रोमन,यहूदी, ईसाई और अन्य ओरियटल धर्मों में पशुवध सामान्य रुप से प्रचलित है, मुसलमानों में इसे कुर्बानी कहा जाता है, यह शब्द हीब्रू भाषा के शब्द कोर्बान से आया है जिसका अर्थ है चढावा, यहूदियों के धर्मस्थल पर बाकायदा कुबार्नी दी जाती थी. विडंबना यह है कि इस्लाम अपने समय से पहले के समय को दौरे जाहिलिया घोषित करता है लेकिन इसी जहालत के दौर की हज जैसी न जाने और कितने किस्से कहानियां नये सिरे से गढ़ कर जनता को परोसने से नहीं चूकता. जाहिर है इस्लाम के इस अंतिम फ़र्ज को लागू करने में राजनीतिक और आर्थिक कारण अधिक प्रभावी थे और है जिन्हें मात्र धर्म और कर्मकाण्ड की चादर तले ढक दिया गया है. इस सालाना मेले के बूते मक्का और मदीने की अर्थव्यवस्था  पिछले १४०० साल से चल रही है इन शहरों को भूख से मुक्ति का यह पैगंबर मुहम्मद द्वारा दिया गया सबसे बडा वरदान है. इन दोनों जगह के ऊपर नियंत्रण करने के संघर्षों को देख कर यही स्थापित होता है कि यह प्रसंग शुद्ध रूप से आर्थिक राजनैतिक था और आज भी है. आज राजा सऊद खानदान ने इसे एक बेहतर पर्यटन उद्योग की तरह विकसित किया है और अरबों डालर खर्च करके इन धार्मिक स्थलों का आधुनिकीकरण भी किया है. कई ऐतिहासिक धरोहरों (तुर्की किला) को गिरा कर सात सितारे होटल और चकाचौंध कर देने वाले शापिंग माल खोल दिये गये हैं, होटलों में हर  नस्ल की लडकियों द्वारा वैश्यावृति की सेवायें उपलब्ध हैं. खास लोगों को शराब भी मिल जाती है.

उपरोक्त भूमिका के मद्देनज़र अब मुख्य प्रश्न पर चर्चा करना सरल होगा, क्योंकि पाठकगण इसके बिना इस मौजू पर कोई राय बनाने में थोड़ा समय लेते. हज के अंतिम पडाव पर हर व्यक्ति को कुर्बानी देना अनिवार्य है, जिसे वह वहां भेड़, बकरी, मेंढे़, ऊँट,गाय, भैंस आदि खरीद कर देता, इस वर्ष दुनिया भर से कोई ३० लाख लोगों द्वारा हज करने के इमकान हैं, इस संख्या से आप वहां होने वाले रक्तपात का अनुमान लगा सकते हैं. व्यवहारिक कर्मकाण्ड की विद्रूपता यह है कि मक्का में कुर्बानी करने वाला हाजी इस पशु का गोश्त खा ही नही पाता, बस सुन्नत के नाम पर गुर्दे, कलेजी निकाल कर पका ली जाती हैं और बाकी गोश्त सरकार की चैरिटी को दान कर दिया जाता है जिसे कहा जाता है कि गरीब मुल्कों में भेजा जाता है, ध्यान रहे यह व्यवस्था ८-१० साल पहले तक नहीं थी..तब यह तमाम गोश्त रेगिस्तान में दफ़ना दिया जाता था.

पैगंबर के ज़मानें में पशुवध इस लिये जायज़ हो सकता था कि इस पर्व के दौरान हजारों गरीब गुर्बों को इस बहाने खाने को गोश्त मिल जाता (दूसरे पशुपालन का काम करने वाली जातियों के पशु हर साल अच्छी कीमतों में बिक जाते, जो आज भी चालू है) क्योंकि कुल गोश्त को तीन हिस्सों में बाँटते, एक हिस्सा घर, दूसरा खानदान और तीसरा हिस्सा गरीबों का, लेकिन जब कर्मकाण्ड चेतना पर कब्ज़ा कर ले तब कोई कूढमगज़ ही पशु की कुर्बानी उसके गोश्त को दबाने के लिये करेगा. हाजियों की बडी संख्या कुर्बानी के इस कर्मकाण्ड को बजाये मक्का के अपने गृह राज्य में भी करने लगी हैं, लेकिन फ़िर भी, मक्का में होने वाले इस विश्व के सबसे बडे पशुवध मेले को आज की परिस्थितियों में स्वीकार किया जाना एक मुजरिमाना कार्यवाही है, न केवल संवेदना के स्तर पर बल्कि दुनिया भर में इतनी बडी खाद्य सामग्री के अपमान के कारण भी इस पर तत्काल प्रतिबंध लगे और कुर्बानी करने वाले धर्मभीरुओं को दुनिया का वह हिस्सा दिखाया जाना चाहिये जहां अकाल पडा है और अरबों लोगों के पास खाना ही नहीं पीने का पानी भी नसीब नहीं है, जब एक अरब इंसान इस पृथ्वी पर भूखा हो तब ३० लाख आदमी मक्का में कुर्बानी कर के अपने गुनाहों की माफ़ी मांगता है, है न विडंबना..इंसान की भी और उसके इश्वर की भी. धर्म अगर एक घंधा न बन गया होता तो यही हाजी और उनका हज संचालन करवाने वाले राजा, क्या इस गोश्त का निर्यात पिछले ४०-५० साल से इथियोपिया, सोमालिया, सूडान, कांगों, बांगलादेश जैसे देशों में नहीं कर सकते? क्या अब तक सऊदी अरब के आस पास के देशों की भूख की समस्या हल नहीं हो गयी होती? क्या यह जरुरी है कि पशुओं की कुर्बानी दी जाये...क्या इस पशु के मूल्य के बराबर पानी, दवा, खाद्यान्न आदि नहीं भेजा जा सकता? आज दुनिया इतनी छोटी बन चुकी है अगर इच्छा शक्ति हो, संवेदना हो, परोपकार की भावना हो तो बहुत से विकल्प हैं लेकिन कुरान शरीफ़ के अंतिम सत्य से आगे देखने का साहस कौन करे?

मक्का में हज के अतिरिक्त पूरी दुनिया के करीब १.५ अरब मुसलमान इस पर्व पर अपनी हैसियत के मुताबिक कुर्बानी जरुर करते है, भारत जैसे मुल्क में इस कुर्बानी का न कोई धार्मिक अर्थ रह गया है न गरीबों के प्रति किसी संवेदना का. तीन दिन तक जी भर कर जानवर काटे जाते और कुर्बानी करने वाले घरों में गोश्त इतना इकट्ठा हो जाता कि उसे रखने की जगह न रहती, कुर्बानी करने वाले परिवार ही आपस में एक दूसरे के घरों से आने वाले गोश्त का विनिमय करते रहते और जिन्हें इस गोश्त की वाकई जरुरत होती वह फ़िर भी इससे महरुम ही रहते. बलि दिये गये जानवरों की खालों को आमतौर पर मदरसों-मस्जिदों को दान कर दिया जाता जिसे वह बाज़ार भावों के मुताबिक बेच कर पैसा कमाते, हफ़्ते दस दिन तक मुल्लाह-इमाम-हाफ़िज की दाढि़याँ सालन की चिकनाई में तर रहती, उन्हें लगता कि देखों इस्लाम अपने उरुज़ की तरफ़ किस कदर तेज़ी से बढ़ रहा है. नव धनाढ्य मुस्लिम कई लाख-लाख रुपये का बकरा खरीद कर उसकी कुर्बानी करके समाज में अपने रुतबे का फ़ाहशी दिखावा करेंगे और न कोई मुल्लाह बोलेगा न कोई इमाम.

मुस्लिम मज़हबी नेतृत्व अपनी आत्ममुग्धता और सर्वश्रेठवादी विचार के चलते लगभग अंधा हो चुका है, जिस वर्ग के विश्वास को संचालित करने की डोर १४०० वर्ष पुरानी सोच हो उससे भला यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि मुसमानों के इस व्यवहार का इस पृथ्वी के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड रहा है? एक अनुमान के मुताबिक बंगलादेश जैसे गरीब देश से धनपति एक लाख मुसलमान इस वर्ष हज और कुर्बानी करने के लिये लगभब ५० करोड अमेरिकी डालर खर्च कर के अपने देश के अमूल्य संसाधनों को नष्ट कर के और गरीबी की दलदल में धंस जायेगा, हर वर्ष २ से ३ अरब डालर हज पर खर्च किये जाते हैं..अभी वक्त आ गया है कि मुस्लिम समाज इन सभी सवालों पर कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन करे. आखिर इन पंक्तियों के लेखक ने अपने अल्प जीवन में ही १९७५-७६ में दस रुपये प्रति किलो बकरे के गोश्त, ५ रु० किलो भैंस/कटडे का, २०-२५ रु० की मुर्गी खरीदी है जो आज क्रमश:३००.००/१००.००/१५०.०० प्रति किलो पहुंच गया है क्यों? क्या सिर्फ़ इसके लिये मुद्रा स्फ़ीति ही जिम्मेदार है? २५ साल पहले मुर्गी का गोश्त सबसे मंहगा था जो आज उसी अनुपात के अनुसार सबसे महंगा होना चाहिये था, लेकिन ऐसा इसलिये नहीं हुआ क्योंकि पोल्ट्री फ़ार्म्स के आने से उसकी सप्लाई बढ गयी...आज पशुपालन के क्षेत्र में भारत बहुत पिछडता जा रहा है जिसका प्रमुख कारण है कि इसे खाने वालों का अनुपात, पालने वालों से अधिक बढा, इसी कारण दूध के मूल्यों में भी बेहताशा वृद्धि पिछले २० वर्षों में ही हुई है. क्यों नहीं आज कोई फ़तवा दिया जाता कि एक बकरा वही काटे जो पहले पांच बकरे पाले? भैंस को पालने वाला ही उसके कटडे को कुर्बानी दे सकने का हकदार हो? क्यों नहीं कुर्बानी के बराबर धनराशी का इस्तेमाल शिक्षा फ़ण्ड बना कर किया जा सकता? क्यों नहीं एक इमाम हर  साल इसी एकत्रित धन से कोई इंजीनियरिंग अथवा वोकेशनल कालेज का उदघाटन कर सकता? आठ-आठ, दस-दस बार उमरा और हज करने वाले अपनी मुक्ति के लिये जितने आतुर दिखाई देते हैं,वह अपने आस-पास के समाज और उनसे जुडी समस्यायें के प्रति उतने ही अंधे क्यों हैं? क्यों धार्मिक नेतृत्व उन पर प्रतिबंध लगाता? क्यों न यह हर साल बर्बाद होने वाला पैसा समाज से गरीबी और अशिक्षा मिटाने के लिये किया जाये? क्या परलोकवादी इस्लाम से इस लोक के प्रश्न और उनके समाधान प्रस्तुत करने की दिशा में कोई उम्मीद की जानी चाहिये? क्या उन्हें यह बताने की जरुरत है कि इस त्यौहार के सात दिनों के बाद कोई गैर मुस्लिम मुसलमानों के गली मौहल्लों से बिना मुंह पर कपडा बांधे नहीं गुजर सकता? क्या इस त्यौहार पर जिस तरह गलियों में, नालियों में पशुओं का खून बहाया जाता है वह किसी शिष्ट संस्कृति का परिचायक है? क्या छोटे-छोटे मासूम बच्चों के सामने उसके बाप द्वारा बकरे,गाय, भैंस के गले पर छुरी फ़ेरना, उनका अनुकूलन करना नहीं है? क्या इस महीमा मंडित हिंसा को देखने वाले बाल ह्र्दय में हम कूट-कूट कर हिंसा नहीं भर देते? क्या यही धर्म है, यही आध्यात्मवाद है? हो सकता है इसकी जरुरत १४०० वर्ष पहले हो, लेकिन क्या आज भी इस मानसिक अत्याचार की कोई आवश्यकता है?

अभी समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बलिदान को वास्तविक अर्थों में समझ ले, बलिदान दें अपने आडंबरों का, बलिदान दें अपनी मूढ़ता को त्याग कर, बलिदान करें अपने समाज में व्याप्त जातिवाद को त्याग कर, कुर्बानी ही देनी है तो दहेज न ले, न दें जिसका कैंसर पूरे समाज को खा रहा है...नेता भी चुप है और मुल्लाह भी, बलिदान करें- गरीब घरों में अपने बच्चों की शादी करके, बलिदान करें..किसी गरीब के बच्चे को शिक्षा दिला कर, बलिदान करें किसी चलते हुए शिक्षण संस्थान में दान करके, बलिदान करें, अपने पर्यावरण की हिफ़ाज़त करके, बलिदान करें अपने आस पडौस में सफ़ाई करके, कुर्बादी देनी है तब पशु की कीमत के बराबर अपने आस पडौस में पेड़ लगा दें/किसी बीमार को दवा ला दें/किसी अनाथालय अथवा वृद्धाश्रम में दान दे दें, बलिदान करें इस समाज को शोषण से मुक्त करके, बलिदान करें अमन, भाई चारे को कायम करके..करने के लिये इतना कुछ है कि कई जीवन चाहियें, लेकिन जिन्हें सिर्फ़ जन्नत और हूरों के ख्वाब का चश्मा जन्म से मृत्यु तक चढा दिया जाता हो, वह इन सब मूल्यों के प्रति न केवल निष्पृह जो जाते है बल्कि अपने आने वाली पीढियों को भी एक अभूतपूर्व अंधकार में वह ढकेल जाते हैं.. जाते जाते सिर्फ़ कर्मकाण्ड और दिखावे की चुस्की उनके मुंह में लगी छोड़ देते हैं, इसी चुस्की को जाने वाला स्वंय जीवन भर चूसता रहता और इसी को आने वाले के मुंह में छोड़ जाता है...क्या यह सिलसिला कभी टूटेगा? क्या सिर्फ़ अपनी मुक्ति चाहने वाला  यह समाज  लगातार बढ़ रहे  विद्रूपताओं के कोढ़ से खुद को और समाज को मुक्त कर पायेगा? 

शमशाद इलाही अंसारी-टोरोंटो, कनैडा  

Friday, October 14, 2011

क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!






क्राँतिओत्तर मिस्र में सांप्रदायिक हिंसा: कुछ ऐतिहासिक सबक लेने अभी बाकी हैं...!!!

मिस्र की जन क्रांति के अभी कसीदे गढे जा ही रहे थे कि इस आवामी एक जुटता को तोडने और उसे नेस्तेनाबूद करने की खबरे आने लगी, हालांकि मुबारक सरकार के गिरते ही इन घटिया हरकतों की शुरुआत हो चुकी थी लेकिन अब मिस्र के मूलनिवासी जो कोप्टिक चर्च के अनुयायी है, जिनका इतिहास चौथी शताब्दी (४०० ऐ.डी.) पुराना है जिनकी संख्या कुल मिस्र की आठ करोड आबादी का कोई १० प्रतिशत है, दुनिया के सबसे पुराने चर्चों में उनका शुमार होता है, उनके धर्म स्थानों और अनुयाईयों पर कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा हमले संगठित रुप से किये जा रहे हैं. अभी तक इन संघर्षों में कई चर्च हिंसा के शिकार हुए हैं और सैंकडों काप्टिक ईसाईयों की जाने जा चुकी हैं कल ही काहिरा में हुई हिंसा में २५ लोगों के मरने की खबर है.
ध्यान रहे, मिस्र की क्रांति जिसने चार दशक पुराने मुबारक के ताकतवर पुलिस-स्टेट को अपनी शानदार एकता के चलते ध्वस्त किया था, इस जन क्रांति में पूरे देश की जनता एकजुट होकर लडी थी जिनका सिर्फ़ एक ही मकसद था मुबारक सरकार को उखाडना और उसके स्थान पर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार को बनाना. इस क्रांति की तीन प्रमुख धारायें थी, फ़ेसबुक एक्टिवीस्ट नौजवान समुदाय, कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले किसान, मजदूर नौजवान और तीसरा मुस्लिम उग्रवादी विचारधारा से लैस ब्रदरहुड, जिसे जन सैलाब में शिरकत करने का फ़ैसला लेने में ४ दिन लगे. यही वह संगठन है जिसे मुबारक सरकार में न केवल मुख्य विपक्ष की भूमिका भी मिली और रियायतें भी, इस संगठन से सहमति रखने वाले मुबारक सरकार में मंत्री भी थे, यही वह राजनीतिक दल भी है जिसके पास अपना एक कारगर संगठन है. जाहिर है इस संगठन का मूल उद्देश्य मिस्र में इस्लामी शासन, शरिया कानून को ही सख्ती से लागू करना है और मिस्र में फ़तह का झण्डा गाड कर पूरे दुनिया में इस्लामी हकुमत स्थापित करना इनका अगला स्वभाविक ऐजेण्डा होगा.
पिछले कई महीनों से मिस्र की जनता की एकता को तोडने और पूरे समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत करने की कोशिश वही करेगा जिसे इसका कुछ माह बाद होने वाले चुनावों में फ़ायदा होगा. मौजूदा अंतरिम सरकार यदि पिछले कई महीनों में हुई सांप्रदायिक हिंसा के अभियुक्तों को पकड पाती, उन्हें नंगा कर पाती तो स्थिती दूसरी होती, लेकिन मौजूदा अंतरिम सरकार में न तो वह इच्छा शक्ति है और न वह इतनी सक्षम कि इस राजनीतिक पहेली को हल कर सके.
कितनी अजीब बात है, सभी धर्म शांति- शांति स्थापित करने की बात करते हैं और वह शांति पिछले ३-४००० सालों में कभी स्थापित नहीं हुई. धर्म हत्या और हिंसा को मानो वैधानिक रुप देने के लिये शासक वर्ग के हाथ में एक ऐसा हथियार बन चुका है जिसका इस्तेमाल वह अपने हितों की रक्षा करने में कितनी भी निर्ममता से कर सकता है और ऐसा किया गया हर कार्य विधिसम्मत ठहरा दिया जाता है. हम भारतीयों से अधिक इसका भुक्त भोगी और कौन होगा? अपने पौराणिक इतिहास से लेकर २००२ के गुजरात के दंगों तक, इसको जायज और नाजाएज बताने के असंख्य तर्क धार्मिक दृष्टिकोण से दिये जा सकते हैं.
मिस्र में आज जो नज़ारा दिखाई दे रहा है, वह इस बात का क्या स्पष्ट प्रमाण नही कि धर्म समाज में सांमजस्य स्थापित करने में पूरी तरह विफ़ल रहा है इसके विपरीत इसकी उपस्थिती मात्र से ही जनता के संघर्षों और उसकी एकता को एक झटके में तोडा जा सकता है. जिस आठ करोड आबादी ने अभी अपने सिर से मुबारक का जुआ उतार फ़ेंका है वही जनता अपने मूलभूत धार्मिक अंतर्विरोधों के कारण अपनी एकता की बलि दे रही प्रतीत होती है.
क्या यह उप्युक्त समय नहीं कि धर्म को हम व्यक्ति का बेहद निजी विषय घोषित करते हुए उसके सामाजिक-राजनैतिक सवरुप को खारिज करें? क्या यह सही वक्त नहीं कि दुनिया में जहां जहां धर्म आधारित राज्य हैं उनकी सदस्यता सयुंक्त राष्ट्र संघ से खारिज करने का दबाव बनाया जाये? क्या ऐसे राष्ट्रों पर लोकतंत्र स्थापित करने का दबाव न डाला जाये? क्या इन देशों का आर्थिक, राजनीतिक बहिष्कार न किया जाये? क्या इस बात पर अब भी बहस की कोई गुंजाईश है कि मज़हब जब आपके घर की दहलीज़ पार करता है तब वह धर्म नहीं वरन राजनीति बन जाता है? क्या धर्म के नाम पर होने वाले तमाम जलसे जुलूस समाज में विभिन्न धर्मावलंबियों के मध्य प्रतिद्वंदिता को जन्म नहीं दे रहे? क्या आज भी इस गांधीवादी बकवास पर यकीन किया जाये कि एक अच्छा हिंदू या एक अच्छा मुस्लिम बनने से समाज में वैमनस्य स्माप्त हो जायेगा? क्या ऐसा अभी तक हुआ है या अभी तक समाज एक अच्छा हिंदू अथवा मुस्लिम बना ही नही सका? अगर अभी तक बना नहीं सका तो आगे कितने हजार वर्षों की प्रतीक्षा हमें करनी होगी कि एक सभ्य समाज बने? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी सोच में, अथवा हमारे तथाकथित स्वर्ण सिद्धांतों में ही कोई खोट न हो?
धर्म के अंतर्विरोध को जिन समाजों ने हल कर लिया है वहां प्रगति हुई है. क्या यह कहना अनुचित होगा कि आज पूरी दुनिया में वही समाज विकास की दौड़ में पिछडे हुए हैं जहां-जहां धर्म उनके समाज में जीवन-रक्त बन कर दौड़ रहा है. पूरा अफ़्रीका, मध्यपूर्व और दक्षिणी एशिया में धर्म के नाम पर गदर मचा हुआ प्रतीत होता है और आश्चर्य होता है यहीं विकास की चिंता भी गौंण है और इन्हीं तथाकथित धर्मपरायण देशों के न केवल शासक बल्कि जनता भी सबसे भ्रष्ट है. हमें अभी कितनी और शहादतें देनी हैं कि हम इस नतीजे पर पहुंचे कि जो अब तक किया वह धर्म नहीं बल्कि राजनीति थी, वह भी मध्यकालीन राजनीति..धर्म के फ़ूल भी रोजी-रोटी के प्रश्न को हल करने के बाद ही खिलते हैं, उसकी सुबास, उसकी रंगत तब कुछ और ही होगी और वह सर्वथा इस हथियारनुमा धर्म से भिन्न होगा जिसके लिये हत्यायें करना आसान था, हत्याओं का प्रयोजन ढूंढना सरल और संभव था लेकिन मनुष्य को इंसान बनाना मुश्किल.
 
 

Sunday, October 9, 2011

फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....




फ़िल्म "बोल" ने बोलने को मजबूर कर दिया....

पिछले दिनों पाकिस्तानी फ़िल्म बोल देखी, कई दिनों से बोलने की सोच रहा था, आखिर ये उकसाने वाली फ़िल्म है शौयब मंसूर की, जिसे उन्होंने लिखा भी और निर्देशित भी खुद किया..साहित्य समाज का दर्पण होता है और फ़िल्में समाज का अक्स, दुनिया में जैसे ड्रामे पाकिस्तान में लिखे जाते है शायद और कही नहीं लिखे जाते, उसकी वजह है कि वहां का लेखक अभी भी जमीन से जुडा है. दुनिया में सबसे भौंडी फ़िल्में अगर कहीं बनती हैं (तादात के मुताबिक) तो शायद भारत में क्योंकि यहां लेखक फ़िल्म लिखता ही नहीं जो फ़िल्म लिखता है वह लेखक नहीं है (आमतौर पर) लिहाजा विषय की गुणवत्ता और भारतीय हिंदी फ़िल्में एक दूसरे की तरफ़ कमर किये खडी हैं.
बोल फ़िल्म, इसका विषय-चयन और कहानी कहने का ढंग निराला है, हमारे यहां ऐसी विषयवस्तु १९७० के दशक तक फ़िल्मों में बहुदा देखी गयी, अभी पाकिस्तान को इसका सामना है, नया तबका हिल्लोरे ले रहा है और इस्लाम के नाम पर पुरानी रिवायतों को ज़िन्दा रखने की मशक्कत भी है. फ़िल्म एक हकीम और उसके परिवार की कहानी है जो १४ बच्चे पैदा करता है ६ जीवित बचते हैं सभी लडकियों में एक लडका है वह भी लडकियों जैसा जिसे किन्नर कहते हैं. बहनों की कोशिश है कि वह मर्द बने. पढाई- लिखाई में इस मज़हबी हकीम का कोई यकीन नहीं लिहाजा दर्जे ४-५ के बाद कोई स्कूल नही जाता, इस लडके को लोक लाज की वजह से स्कूल भी नहीं भेजते..बहनें इसे काम पर भेजने की कोशिश करती है तो बाहर समाज में लडकों से सेक्स के भूखे गिद्धों को ये "टाईट माल" लगता है सो मौका मिलते ही नौंच लेते हैं इसे. बाप को पता चलता है तो वह इस्तखारा देख कर; अल्लाह का हुक्म समझ कर, अपने बेटे की कत्ल कर देता है. इसी कशमकश में बडी लडकी जो तलाकयाफ़्ता है से, बाप के ताल्लुकात खराब हो जाते हैं और बेटी अपने बाप की हत्या का कारण बन जाती है.
जेल जाती है, फ़ांसी की सजा होती है क्योंकि वह अपना कोई बचाव नही करती, बस मरने से पहले अपनी कहानी मीडिया को सुनाती है और कहानी लौट लौट कर फ़ांसी के तख्ते पर जाती है.
शौयब मंसूर ने कई मसले बडे करीने से एक साथ गूंथ दिये, मुस्लिम समाज में हीजडों की जगह, मुस्लिम समाज में औरत का व्यवहारिक स्थान, मुस्लिम समाज में लडकियों की शिक्षा का स्थान, मुस्लिम समाज में तवायफ़ें और उनका स्थान...कई मसलों पर ये फ़िल्म सिर्फ़ बोलती नहीं बल्कि बेतहाशा चीखती है, आखिर चीखे भी क्यों नहीं? अल्लाह के नाम पर लगातार बच्चे पैदा करने वाले मुस्लिम समाज पर यह निश्च्य ही एक कडा प्रहार करती है और इस बेहूदा प्रचलन पर एक प्रश्नचिन्ह भी लगाती है. पाकिस्तान को इस्लाम के नाम पर बनाने वाले ठेकेदारों ने पिछले ६० सालों में आखिर आवाम को दिया भी क्या? कुछ भी तो नहीं...वही भूख, वही गैरबराबरी, वही बे इंसाफ़ी, वही मुख्तारा बाई के मसले..और साथ ही साथ हर साल बढता मज़हबी जुनून..बस पिछले ६० सालों में मुल्क में दाढियां बढी है या इधर उधर से जुगाड कर बनाया है बम. बाकि सारे सामाजिक और आर्थिक मसले जस के तस है, कहावत है कि कीचड में ही कवंल खिलते हैं..अभी तक कीचड ही कीचड देखी, बोल देख कर लगा कि कंवल भी जरुर खिलेगा, जिस दिन यहां कंवल खिला उसी दिन दुनिया के सबसे बडे झूठ-फ़रेब और सियासी बेइमानी से भी नकाब उठ जायेगा..जिसके बूते इस स्थान का नाम पाक (पवित्र) रखा मानो बाकी संसार अपवित्र हो, ये अलग बात है कि आज पाकिस्तान को बाहरी दुनिया सिर्फ़ अपनी अपवित्र हरकतों और अमल के नाम से ही जानती हो.
....फ़िल्म देखते हुये एक कमी खलती है, लगता है जैसे ड्रामा देख रहे हों, ठीक ऐसा ही "खुदा के लिये" देखते हुए भी लगा था, स्क्रीन प्ले पर अभी काम करने की बहुत जरुरत है, काश कि बजट भी बेहतर होता मंसूर के पास तो और खूबसूरत बन सकती थी फ़िल्म. शफ़क़त चीमा ने भडुवे का रोल ज़बरदस्त किया है बाकी हकीम की भूमिका में मंज़र सहबाई, इमान अली ने तवायफ़ और हुमैमा मलिक ने मेन लीड, बडी लडकी के रोल में अच्छा काम किया है.आतिफ़ असलम बस चाकलेटी हीरो है, उनके रोल में कोई गुंजाइश भी नहीं थी.एक बार जरुर देखने के लायक है ये फ़िल्म, कई बार रुलाती है और पीछे छोड़ती है सुलगते सवाल, जिन पर तवज्जो देने की फ़ौरन ज़रुरत है.

छाया संकलन" गूगल

Friday, August 5, 2011

रमज़ान: मेरे लिये ज़िल्लतों का महीना क्यों हुआ करता था..?




रमज़ान का महीना जारी है और कहा जाता है कि शैतान बन्द होते हैं, इंसान बदी से बचता है और इस अस्थायी जीवन के बाद जो स्थायी जीवन मरणोपरांत आरंभ होगा, वह सफ़ल हो, उसमें कोई दिक्कत न हो, जन्नत मिले, हूरें मिले, गिलमान मिलें, शराबें, शहद और अपरिमित, इन्द्रयातीत सुख मिले..इसलिये रमज़ान में इबादत करना..रोज़ा रखना, चोरी न करना, झूठ न बोलना, किसी को सताना नहीं, गलत सोहबत न करना, व्याभिचार न करना, पाँचों वक्त की नमाज़ पढना, (तरावी के साथा) यह सब पूरे एक महीने का सालाना कार्यक्रम पिछले १४०० सालों से जारी है. इसके क्या नतीजे निकले, इस मिशन में किसको क्या मिला..जो मर चुके उन्हें क्या क्या मिला? इसका न कोई प्रमाण है न यह कोई अनुसंधान का विषय है.
उपरोक्त उद्देशयों (जीवनोत्तर नहीं) के प्रति किसी को क्या बैर होगा? शैतान को एक महीने के लिये ही क्यूँ बंद रखा जाये? अगर इस एक महीन की कसरत के कोई आध्यात्मिक पहलू हैं तब इसे मनुष्य की कीमिया ही बदल देनी चाहिये थी ताकि यह सात्विकता की चिप ता उम्र आपको बुरे काम से बचा कर सदकर्म की तरफ़ ले जाती रहे, क्या ऐसा हुआ है? शायद नहीं..बल्कि इसके बरक्स इस्लाम की तारीख की बडी बडी फ़ौजी कार्यवाहियां रमज़ान के महीने में हुई हैं, हत्यायें हुई हैं और यह सिलसिला अब तक जारी है, शासकवर्ग ने इस महीने का जम कर इस्तेमाल किया है, मिसाल के तौर पर, सीरिया में असद की फ़ौजें और उनके टैंक आंदोलनरत जनता पर इस वक्त भी आग बरपा रहे हैं. पिछले साल दो नौजवानों को पाकिस्तानी पंजाब के एक कस्बें में जनता ने लाठी-ईंटो से मार कर कुएं पर लटका दिया था, मरने वालों में एक हाफ़िज था, दोनों रोज़े से थे और मारने वाले भी रोज़दार थे और उन्हें मार कर इस पृथ्वी का नरक साफ़ करने का दैवीय कर्म कर रहे थे. क्या रमज़ान के महीने में पाकिस्तान के सरकारी मुलाज़िम रिश्वत नहीं लेते? क्या इस महीने में सुऊदी शेख अय्याशियां बन्द कर देते? क्या दुबई-शारजाह में शराब और देह व्यापार बंद हो जाता?
एक सबसे बडा प्रपंच इस महीने में जो होता है, जिसका मैं बहुत शिकार हुआ हूँ वह यह कि जो ये सब कर्मकांड करता है, वह एक अजीब से फ़ख्र के गुमान में जीता है, वह यह तस्सव्वुर करता है कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है और सर्वोपरि भी और जो व्यक्ति यह सब क्रियायें नहीं करता उसे वह दुनिया का सबसे निकृष्ट, नीच और बेकार, काबिले दार व्यक्ति समझता है. उसे बेपनाह हिकारत की नज़र से देखा जाता है, है न अजीब अन्तर्विरोध?
इस बात को सभी मुसलमान जानते हैं कि मुसलमानों का एक बडा वर्ग रोज़ा नहीं रखता और उन्हें जाने अंजाने में इन रोज़दारों की सांस्कृतिक हिंसा और व्याभिचार का सामना होता है. उन्हें अगर खाना खाना है तो यह अहसास दिलाने से नहीं चूका जाता कि यह गुनाह है. अगर वह नमाज़ नही पढने जाता तो उसे बार बार जाकर याद दिलाना और तौंसना नहीं भूलते..शायद ऐसा करने का उनके पास धार्मिक दण्डसंहिता से अधिकार मिला है क्योंकि इस्लाम में असहमति का कोई रास्ता ही नहीं है. एक हिंदू या अन्य धर्म का अनुयायी बाप इस बात को जितनी सहजता के साथ स्वीकार कर लेता है कि उसका बेटा मंदिर नहीं जाता या पूजा पाठ नहीं करता लेकिन मुसलमान बाप के लिये यह प्रश्न जीने-मरने का सवाल बन जाता है. मुसलमान बाप इस विषय पर आमतौर पर सहज रह ही नहीं सकता यदि उसकी औलाद उसके धर्म का अनुनयन न करें.
रमजान के महीने में मुस्लिम होटल अगर बंद न हो तो उनके दरवाजों पर पर्दे टंग जाते हैं, क्यों? आखिर असहमति का इतना सामाजिक बहिष्कार क्यों? ये चौदहवी सदी का सामाजिक प्रारुप आखिर कब तक चलेगा? इन असहमतियों को सामाजिक स्पेस अगर इस सदि में नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा?
मैं और मेरा दोस्त इशरत जब अपने छात्र जीवन में नये नये कम्युनिस्ट हुये तब रोज़े नहीं रखने का फ़ैसला किया..हमारे घरों में दोपहर को चूल्हा न चढता था, रोज़दार दोपहरी में पडे सोते और हम मारे भूख के इधर उधर टटोलते..उसकी अम्मी मरहूम आपा हज्जन जिन्हें मैं कहता..पता नहीं कहां से आती और चुपके से दुबारी में आकर हमें हाथ में रोटियां थमा जाती जिसमें सालन लिपटा होता या चंगेरी थमा जाती, जिसे वह अपने दुपट्टे में या चादर में छुपा कर लाती, हम दोनों भूखे उन रोटियों पर टूट पडते जो सहरी की बनी होती. आपा हज्जन चुपके से कह कर जाती.."भैय्या बुरी बात है, रमजान रखा करो" लेकिन अगले दिन अगर हमें दुबारी में देखती तो उनका सीना पसीजता और हमें खाना नसीब होता.
भूख के प्रति आपकी संवेदना जाग्रत हो, इस लिये रोज़े का महत्व था, कि समाज भूखा है, तुम भी भूखे रहो कुछ दिन..खाद्यान्न कम थे, उनका समायोजन भी रहा होगा, लेकिन कोई जाविया अगर कर्मकांड बन जाये तब उसकी आत्मा मर जाती है और हम मरे हुए नियमों की लाशे ढोते हैं, यही कारण है कि इस मध्यपूर्वी देशों में अन्न का जितना अपमान इस महीने में होता है शायद कभी नहीं होता? जो लोग वहां रह रहे हैं, रहे हैं वह इसकी पुष्टी करेंगे. रमज़ान के नाम पर पूरे एक महीने सरकारी काम एकदम ठप्प पड जाता है, अरबी १० बजे आता और १ बजे चला जाता, प्राईवेट कम्पनी में ३ बजे सब बंद हो जाता, सब दबा कर सोते...अगर इनके पास कोई उद्योग इंडेक्स हो तो पता चल जायेगा कि इस महीने में उत्पादन कितना गिर जाता है? हां खाद्यान्नों की सेल बढ जाती क्योंकि अगर आपकी ग्रोसरी का मासिक खर्च ५०० रु० है तो यह इस महीने में १००० रु० से ज़्यादा होगा, यह है नतीजा..इस्लामी कमखर्ची का. आजकल इफ़्तारी का चलन चल पडा है, जिसके जितनी औकात उससे ज़्यादा खर्च करता, समाज में रुतबा स्थापित करने का एक प्रयाय बन चुका है जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अश्लीतता ही कहा जा सकता है.
मेरे कस्बे में एक बुजुर्ग रहते थे, कहां से आये, कहां के थे कुछ पता नहीं था, बस एक मस्जिद की कोठरी सी थी जिसमें खाट भी न आती थी...पूरे रमज़ान उससे बाहर न निकलते थे, बस रोज़ा-नमाज़-तिलावत...मुझे इसलिये पता है उनका कि मेरे वालिद मुझ से कई बार वहां खाना भिजवाया करते थे. अब किरदार की जगह दिखावे ने ले ली है, न वो बुजुर्ग रहे न मेरी आपा हज्जन जो बेहतर इंसान थी, बिना किसी दिखावे के, बिना किसी इतराहट के वो हम जैसे असहमति रखने वालों को भी वाजिब जगह देती थी. आपको रोज़ा नमाज करना है, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जो नहीं करना चाहते, उनका अगर स्म्मान नहीं कर सकते तो कम से कम अनादर करना बंद करो.
आपसे भी गुजारिश है, मेरे तरह अगर आपके घर में खाने की इंतज़ार में बैठा हो, उसकी सुध लीजिये, यकीन कीजिये आपका रोज़ा सही अर्थों में और पुख्ता होगा. असहमतियां सिर्फ़ विरोध नहीं होती, आपको आगे बढने के लिये वह प्रेरक होती है, चाहे दर्शन हो, या राजनीति अथवा व्यवसाय. जिन समाजों ने जितनी जल्दी यह जान लिया, उनती ही जल्दी उन्होंने प्रगति की.

Wednesday, March 16, 2011

बहरीन में विदेशी फ़ौजी दख़ल: सऊदी/वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकाक्षाऐं



बहरीन में विदेशी फ़ौजी दख़ल: सऊदी/वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकाक्षाऐं

फ़ेसबुक पर मेरी ६ मार्च की पोस्ट से उद्धरत:- "राजा अब्दुल्लाह इसे आवामी जन विद्रोह को शिया विद्रोह- इरानी षडयन्त्र के नाम पर क्रूरतापूर्वक दमन कर दे."

आज जब इस वक्त मैं यह लिख रहा हूँ, बुधवार की रात को पर्ल चौक बहरीन पर सऊदी सैनिकों की उपस्थिती में एक नीम फ़ौजी कार्यवाही करके वहां गत दो माह से चल रहे जन विद्रोह को दबा देने की
एक और कोशिश की जा रही है, इससे पहले फ़रवरी मध्य में भी ऐसी ही कार्यवाही के बाद पर्ल चौक खाली कराया गया था.

मेरी पिछली पोस्ट और इस लेख के मध्य कई बडी घटनायें हुई..लीबिया में गद्दाफ़ी को हारा हुआ माना जा रहा था लेकिन उसके बरअक्स, गद्दाफ़ी की सत्ता पर पकड मजबूत होती गयी, उसके सैनिकों ने एक के बाद एक विद्रोहियों के इलाके से जवाबी कार्यवाही करके उन्हें मुक्त कराया या ऐसा ऐलान किया. जापान में भयंकर भूकंप और सुनामी (११ मार्च) से दस हजार लोगों की जाने गयी, परमाणु विकिरण पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान जैसे ही गया, राजा अब्दुलाह ने अपने छुटभैय्ये राजाओं के गुट के परचम तले (जी.सी.सी. सऊदी, यमन, कतर, बहरीन, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात) १५०० फ़ौजी, अमेरिकी हथयारों से लैस बहरीन में दाखिल हो गये (मार्च १४). योजना बद्ध तरीके से इस पूरे कार्यक्रम को सजाया गया. बुध की रात फ़ौजी कार्यवाही, गुरुवार को सफ़ाई-धुलाई और जुमे के दिन राजा बहरीन की फ़तह का
ऐलान...सऊदी राजा अब्दुल्लाह अपने पडौस में खून बहाकर अपने पूर्वी प्रांतो में चल रहे जनांदोलनों को दबा देना चाहता है. दक्षिणी यमन पर सऊदी बमवर्षकों ने शिया अलगाव वादी ताकतों के विरुद्ध यमन के राष्ट्रपति सालेह के हक में न केवल एक सैन्य सहायता को चिन्हित करता है वरन वह अपनी शिया आबादी को भी अपने लोहे के बारुद भरे दांत दिखाना जैसा है.

अरब जागरण, जिसकी शुरुआत ट्यूनीसिया से एक जन क्रांति के रुप में शुरु हुई उसका स्वरुप सऊदी आते आते शिया- सुन्नी कर देने का पूरा इन्तेजाम कर दिया गया है. राजा अब्दुल्लाह का यह तुरुप का पत्ता, बहरीन में सऊदी फ़ौजी हस्तक्षेप के माध्यम से अब खुल चुका है. बहरीन के जन विद्रोह को इरानी साजिश और शिया षडयंत्र की आड़ में क्रूरतापूर्वक दबा कर सऊ
दी शासक न केवल अपनी जनता को यह संदेश दे रहे हैं कि वह मुबारक या ज़ेन अली नहीं जिसे आसानी से हटाया जा सके. सत्ता के अधिकरण और उसके हिंसक बचाव का जो रास्ता गद्दाफ़ी ने चुना है वही रास्ता राजा अब्दुल्लाह और उसके समर्थक अन्य राजा क्यों नही चुन सकते? सऊदी अरब का सबसे मुखर साथ संयुक्त अरब अमीरात ने दिया है, यह याद रहे कि इन दोनों देशों में जनता का एक बडा वर्ग सरकारी सहायता पर जीवन बसर करके परजीवी बन चुका है, समाज के इस तबके ने न समाज को अभी तक कोई रचनात्मक सहयोग दिया है और न वह भविष्य में ऐसा कर सकता है, अपने स्वभाव से वह शुद्ध रुप से प्रतीक्रियावादी है और राजाशाही का प्रबल हामी भी हैं, जिन्हें अच्छी कारें, अच्छे घर, अच्छी औरतें और तमाम तरह के अय्याशी के साधन आसानी से मुहैय्या हैं, इनकी सफ़ेद इमारतों, कारों और कपडों के नीचे से किसी विद्रोह के फ़ूटने की आशा करना व्यर्थ है. प्राय: दोयम दर्जे के कबीलों से बनी फ़ौज पर सऊदी और खलीज के अन्य राजाओं की सेनाओं का स्वरुप कमोबेश एक सा ही है. बडी तनख़्वायें और सुख
सुविधायें फ़ौज के इस वर्ग को किसी भी आर्थिक तनाव से बचाये रखने में सक्षम हैं, राजाओं का कबीला आमतौर पर दूसरे कबीलों से समर्थन खरीद ही लेता है और सत्ता को किसी प्रकार की मिलने वाली चुनौती से महफ़ूज़ रखता है. तेल की कमायी का एक बडा हिस्सा इन्ही वफ़ादारियों को खरीदने में बखूबी तौर पर, एक निवेश के रुप में राजाओं ने भलिभांति लगाया है.

सऊदी शासकों के इस कदम का रद्देअमल इरान ने बडे तीखे बयानों के माध्यम से व्यक्त किया है, इरानी नेताओं ने सार्वजनिक रुप से बहरीन में विदेशी सेनाओं की भर्तस्ना की है और उसके घरेलू मामलों में बाहरी हस्तक्षेप बताया है. सऊदी फ़ौजी बूटों की धमक लेबनान तक सुनी गयी, हिज़्बोल्लाह ने कड़े शब्दों में सऊदी फ़ौजी हस्तक्षेप की निन्दा की है, जाहिर है इरान और हिज़्बोल्लाह की इसी तीखी प्रतिक्रिया का इंतेज़ार सऊदी शासकों और उसके सहयोगियों को भी रहा होगा, इरान और उसके सहयोगियों के बयानों से सऊदी शासकों, वहाबियों द्वारा खाडी के देशों में चल रहे असंतोष को शिया षडयंत्र बता कर खारिज करने वाले तर्कों को पुष्ट करने का मौका मिलेगा.

जाहिर है, खाडी के देशों में बदल रहे तेजी से इस घटनाक्रम को पूरी दुनि

या का मुसलमान गौर से देख रहा है, मुस्लिम देशों के वैचारिक भतभेद उभर कर सामने आये हैं. इस्लाम के नाम पर चल रही दो समानान्तर व्यवस्थायें (सुन्नी बहुल खाडी देशों के राजा अथवा तानाशाह बनाम शिया विचारधारा के वाहक इरान और लेबनान में उसका समर्थक हिज्बोल्लाह) अपने अपने प्रतिक्रियावादी स्वरुप को स्पष्ट रुप से दिखा चुकी है. दोनों व्यवस्थायें जन विरोधी और अलोकतांत्रिक हैं. खाडी के देशों का किस्म किस्म का इस्लामी समाजवाद सबने देखा है. अब बहरीन में सीधी कार्यवाही के बाद वहाबी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षायें भी स्पष्ट रुप से देखी जा सकती है. इरानी छाप इस्लाम का छद्दम जनवाद खुमैनी के ज़माने से देखा जा रहा है जिसके परख़च्चे गत वर्ष हुये राष्ट्रपति के चुनावों के बाद पैदा हुए जनरोष और इरानी सत्ता द्वारा किये गये उसके दमन को पूरा विश्व देख चुका है. इरान के लेबनान में हस्तक्षेप और हमस के साथ उसका गठजोड को पूरी दुनिया जानती है. इरान खुद इरान की सीमाओं के बाहर शिया समुदायों को पैसा, हथियार देने में मुलव्विस रहा है (लेबनान के हिज्बुल्लाह, हमस-फ़लस्तीन,अफ़गानिस्तान के शिया समुदाय, पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रान्त में शिया समुदाय आदि) अथवा उसके पास सऊदी अरब के बहरीनी हस्तक्षेप के विरुद्द ब्यान बाजी करने का कोई नैतिक आधार नहीं है.इरान ने अपने इस्लामी जनतंत्र के चलते, अल्पसंख्यकों खासकर बलोच आंदोलन का क्या हश्र किया है सभी जानते हैं. महिला अधिकारों, अन्य जन अधिकारों, मज़दूर यूनियनों आदि पर उसका रुख सर्वविदित है. सऊदी पैसे के बूते देश के बाहर इस्लामी क्रांती का जिम्मा वहाबियों ने मदरसों के जरिये जितना किया है उतना ही काम इरान ने भी किया है. बडे अचरज की बात है कि सऊदी राजा के इस फ़ैसले पर भारत और पाकिस्तान के उलेमाओं ने कुछ ब्यान बाजी नहीं की, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि किसका पक्ष लें? दोनों ही फ़िरके सहमें हुये किसी एक पक्ष की निश्चित जीत का इंतज़ार कर रहे हैं. भारत में ये दोनों फ़िरके अपने अपने ब्राण्ड के इस्लाम की जीत और उसके संघर्षों, सफ़लताओं के कसीदे पढ़ने से नही थकते जबकि सच यह है कि दोनों व्यवस्थायें २१ वीं सदी की किसी भी चुनौती के समक्ष कोई भी सफ़ल माडल प्रस्तुत नहीं कर पायी.

अरब जन जागरण को यदि इस्लामी जागरण का नाम देने अथवा उसे इस दिशा में ले जाने की कोई कोशिश की गयी तब इसके दुष्परिणाम न केवल इस खित्ते की आबादी को झेलने होंगे वरन इस्लाम का जुनून विश्व राजनीति को नये सिरे से ध्रुवीकृत करने में कोई कसर नहीं छोडेगा. किसी भी तरह के इस्लामी ब्राण्ड की सफ़लता भारत जैसे देश पर अपने राजनैतिक दुष्प्रभाव जरुर छोड़ेगी, मुस्लिम कट्टरवाद को मिली सफ़लता, भारत के हिंदु दक्षिणपंथी ताकतों को एक नया बल देगा.

जनवादी ताकतों के समक्ष अरब जन जागरण को समझने और उसमें हिस्से दारी का प्रश्न निश्चय ही दुधारी तलवार का सफ़र होगा. ब्रदरहुड, हमस, हिज़्बुल्लाह जैसी ताकतें जनता के बीच रह कर उनकी धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल, अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिये सदा से भलि भांति करती रही है और आगे भी करेगी, यदि इन ताकतों में से किसी की भी ताकत सत्ता के शीर्ष तक पहुँची तब इनका सबसे पहला हमला, समाज की जनवादी शक्तियों को क्रूरता पूर्व रौंदना ही होगा.

सऊदी अरब के नेतृत्व में बहरीन में फ़ौजी दखल अंदाजी अब दिलचस्प मोड़ पर पहुँच गयी है. अमेरिका द्वारा सऊदी अरब के इस कदम से खुद को कूटनीतिक रुप से दूर रखना भी नया रुख है. भारत सरकार इस पर क्या रवैय्या अपनाती है? सऊदी सैनिक क्या वहां अमन कायम कर पायेंगे? क्या इरान अपने समर्थकों की कत्लोगारत चुपचाप देखेगा या कुछ और करेगा..अगले कुछ सप्ताह बडे दिलचस्प होंगे. भविष्य में हुए किसी भी रक्तपात पर अरब नज़रिया क्या सुन्नी बनाम शिया के चश्में से लाशें गिनेगा अथवा कोई जनवादी शक्ति इन दोनों रंगों के इस्लाम को इतिहास के कूडेदान में डाल कर कोई नयी, समायानुकूल व्यवस्था बनाने की दिशा में कदम उठायेगी? कुल मिलाकर खाडी की राजनैतिक बिसात पर सभी पक्षों के दाव लग चुके है, निरिह जनता चुपचाप देख रही है, निरिह आधुनिक युग के गुलाम प्रवासी कामगार और तिजारती मूक दर्शक बने हैं, कोई भी रंग का इस्लाम इनके बुनियादी हकों की बात करता दिखाई नहीं देता. बहरीन में राजा हमाद ने पाकिस्तानी सुन्नी समुदाय के प्रवासी कामगारों का इस्तेमाल भाडे के सैनिकों की तरह करने, उनके जरिये आंदोलनकारियों पर संगठित रुप से हमले करवाने की भी खबरें हैं.प्रवासी कामगारों की चुप्पी बडी आश्चर्यजनक है, उनकी आबादी का अनुपात व्यापक है, यदि इस समुदाय की तरफ़ से कोई नीतिगत पहल इस अरब जागरण के दौर में हुई तब इसके व्यापक परिणाम होंगे. इतिहास के इस निर्णायक मोड पर प्रवासी कामगार, और धन्धेबाज क्या करेंगे या इस घडी को फ़िजूल में जाने देंगे यह बडा प्रश्न है, इनकी तरफ़ से कोई भी बडी भागी दारी पूरे इलाके के राजनैतिक समीकरणों में उलट पलट कर सकते हैं. फ़िलहाल यह समाजिक समुह अपनी दशा-दिशा सुधारने से बेखबर खामोश बैठा है, बहरीन में बहुत अधिक संख्या में भारतीयों की नौकरी जा चुकी है और वह अपना सामान बांधे हारे हुये बदहवासों की भांति वापस जाने प्रतीक्षा कर रहे हैं..शायद स्पार्टकस के इंतज़ार में.
चित्र सौजन्य: गूगल