Saturday, July 27, 2013

मूर्खो का विराम: धर्म



दिमाग से ठप्प और अक्ल से खारिज एक तबका जो अपनी किताब को दुनिया की अव्वल तरीन किताब की गप्प हांकते नहीं थकता और पिछले १४०० सालों से इसे दुनिया भर के इल्म की किताब की ढींगे मारता-मरता है. जब भी कोई वैज्ञानिक आविष्कार होता है तो सबसे पहले हमें बताता है कि यह उसकी किताब में पहले से ही मौजूद था. इन बेशर्मो को क्या यह बताने की जरुरत है कि मानवजाति अभी किन-किन समस्याओं से जूझ रही है? सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक मसलों को चलिए अभी एक तरफ रखते है, चिकित्सा के क्षेत्र में ही ऐसी कई बीमारियाँ मौजूद हैं जिनसे करोडो लोग मर रहे है. मिसाल के लिए कैंसर, मधुमेह, इन्फुलैंज़ा, इबोला वायरस, दमा, एच.आई.वी वायरस, जैकब,लुपस, सर्दी ऐसी बीमारियाँ है जिनका कोई इलाज नहीं. क्या ये सर्वश्रेष्ठवादी, सम्पूर्णवादी, पूर्ण ज्ञान वादी इनमे से किसी बीमारी का हल बता कर मानवजाति पर कोई उपकार करेंगे? विज्ञान की और भी चुनौतियाँ है जैसे प्रकाश की गति से चलने वाला कोई वाहन बनाना जिसके द्वारा ब्रह्माण्ड में बिखरे रहस्यों की खोज हो सके. मौजूदा समय में ऐसी कोई मिसाल नहीं कि किसी वैज्ञानिक ने किसी धर्म ग्रन्थ को पढ़कर कोई आविष्कार कर लिया हो. ऍम.आई.टी जैसे दुनिया के बड़े अध्ययन के इदारे हर वर्ष अरबो डालर अनुसंधान पर खर्च करते है, वे वेबकूफ है कि आपकी किताब नहीं पढ़ते और आपने कुछ भी नहीं किया फिर भी आप अव्वल अकलमंद? ये जोक चाय, नाई, हलवाईयों  की दुकानों के लिए उपयुक्त है. तुम्हारी किताब में ही अगर सब कुछ होता तो इसे पढ़ कर कोई डाक्टर बनता कोई इंजीनियर और कोई वैज्ञानिक ....दुर्भाग्य से  मदरसों का पढ़ा लिखा तालिबे इल्म  सिवाय सामुदायिक बोझ के और कुछ नहीं बनता.   

जो इस प्रपंच में फंस चुके उनका बाहर निकलना संभव नहीं लेकिन जो अभी इसमें घुसने वाले है यह प्रश्न  उनके लिए है. कृपा करके बुद्धि का उपयोग करे और प्रश्न करना सीखे. प्रश्न करने से ही दुनिया के तमाम शोघ हुए है. विश्वास करना अपंगता स्वीकार करना है, इसी लिए धर्म सबसे पहले तुम्हे विश्वास करना सिखाता है. अपाहिजों की भीड़ में शामिल होने से बेहतर है अपनी जगह पर अपने पैरो पर खडा  रहना.    

Thursday, July 25, 2013

सन २०६३


पचास साल पहले यह किसी ने सोचा भी नहीं था कि आज पृथ्वी पर जिन देशो को इस्लामी देशो के नाम से जाना जाता था उनकी तस्वीर जादुई ढंग से ऐसी बदल जायेगी. ९/११ को अमेरिका पर कुछ दहशत गर्दो की कार्यवाही मानव इतिहास में उस मील के पत्थर की तरह लिखी इबारत है जिसने दुनिया को इस्लामी और गैर इस्लामी नज़रिए में बाँट दिया, इस सियासी और मज़हबी नफरत का अंजाम दुनिया के इसी हिस्से को दूसरी बड़ी लड़ाई के बाद ठीक ऐसा ही भुगतना पड़ा जैसे यूरोप को भुगतना पड़ा था. महायुद्ध के बाद पूरे यूरोप का नए सिरे से विकास पिछली शताब्दी में हुआ ठीक वैसे ही तेहरान, दमिश्क, इस्राईल, बहरीन, काहिरा, क़तर, दुबई, आबुधाबी, रियाध, जेद्दाह, दिल्ली, मुंबई, कराची, इस्लामाबाद, लाहौर, ढाका, काबुल, कंधार आदि शहर पृथ्वी के नक़्शे से लगभग गायब होकर दोबारा इतिहास की गति में पूरे वेग के साथ शामिल हो चुके है. युद्ध में अपार जनक्षति और संपत्ति के नुकसान के बाद इतिहास न केवल पुनर्निर्माण करता है बल्कि अपने नज़रिए अपनी सोच अपने मज़हब अपने दर्शन और तहज़ीब को भी झाड़ पोंछ कर उसे इंसान के जीने लायक बनाता है. ऐसा ही दूसरी लड़ाई के बाद हुआ था और ऐसा ही पिछली बड़ी लड़ाई के बाद हुआ. पिछले तीस बरसों में पृथ्वी के इस हिस्से ने जितना विकास किया वह मानवजाति के इतिहास में पहली बार हुआ है. विश्व व्यापार में मुंबई, दुबई, तेहरान, रियाध, हाइफा, काहिरा की मौजूदा उपस्थिति उनकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति को भलिभांति चिन्हित करती है.

पचास वर्ष पूर्व हुए महा संहारक युद्ध में मुसलमानों की अपार जन क्षति के बाद, जिसमे उनकी  आबादी की संख्या  लगभग आधी रह गयी थी, उसके संकल्प को उनके जन-प्रतिनिधियों के जुझारूपन, गतिशीलता और मौलिक दूरदर्शिता के माध्यम से समझा जा सकता है. इन्ही जन नेताओं के नेतृत्व में दुनिया के इतिहास में ऐसी मिसाल दूसरी नहीं मिलती जिसने इतने थोड़े समय में विज्ञान और तकनीक के विकास में न केवल भौतिक प्रगति की हो बल्कि अपने पूरे समुदाय के विकास में विज्ञान का प्रयोग कर सर्वोच्च वैज्ञानिक समुदाय के बतौर खुद को स्थापित किया हो.

क्या आज से पचास साल पहले कोई यह कल्पना कर सकता था कि उनके धार्मिक ग्रन्थ से उन तमाम बातों को निकाल दिया जाएगा जिनमे हिंसा को किसी ने किसी तरह से जायज़ कहा जाता रहा और सर्वश्रेष्ठ वादी दर्शन को स्थापित करने की कोशिशे की जाती रही, जिनके जरिये इस्लाम को दुनिया में फतह का झंडा फहराने की बशारतें की गयी थी, जिनके द्वारा किसी व्यक्ति को दुनिया का अंतिम पैगम्बर घोषित किया जाता रहा और उसकी किताब को दुनिया की अंतिम किताब १५०० सालों तक माना जाता रहा. जिनके कारण परजीवी मुल्लाह जमात सदियों पर इस्लाम के नाम पर अवाम में ज़हर घोलती रही. युद्ध के उपरांत मुस्लिम समुदाय ने जितनी परिपक्वता के साथ अपने धर्म की आत्मआलोचना कर उसका शुद्धीकरण किया है ऐसी दूसरी मिसाल मानव जाति के इतिहास में उपलब्ध नहीं. आज से पचास साल पहले तक लगभग १५०० वर्षो तक इस्लामी दुनिया में शिया-सुन्नी के प्रश्न पर लाखों इंसानों की जान गंवाने वाले इस समुदाय में शिया-सुन्नी का विवाद जिस तरह इतिहासकारों, न्यायविदो, वैज्ञानिकों, मानवशास्त्रियों, समाजविज्ञानियो के ट्राई ब्युनल द्वारा हज़रत  अली, इमाम हुसैन आदि  के हत्यारों पर मृत्युपरांत मुक़दमा चला कर फांसी की सजाये देकर  सुलझाया गया है वह हमारे युग का एक अद्वितीय उदहारण है. आज पूरे पूर्व इस्लामी देशो में शिया सुन्नी का नाम लेना कानूनी जुर्म है ठीक वैसा ही जुर्म है जैसा दूसरी लड़ाई के बाद जर्मनी में हिटलर का नाम लेना था. पिछले पचास वर्षो में १५०० साल पुरानी  ऐतिहासिक विसंगतियों को सुधारने के लिए जिस आवेशपूर्ण सजगता और दूत्र गति की आवश्यकता थी वह मौजूदा नेतृत्त्व ने सफलतापूर्वक कर दिखाया है.

डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ़ सऊदी अरब के वर्तमान शासक दुनिया के पहले ऐसे शासक है जिनका प्रतिदिन आठ घंटे की कार्यवाही देश की जनता के समक्ष सीधा प्रसारण होता है, क्या कोई इस बात पर आज से ५० साल पहले यकीन कर सकता था कि सऊदी अरब में राजशाही थी और मौजूदा शासक के पूर्वज अपनी अय्याशियो के लिए पूरी दुनिया में बदनाम थे. सालाना हज को जिस तरह उनके नेतृत्व में जिस प्रकार आयोजित किया जाता है वह अपने आप में एक अजूबा है. आज से पचास साल पहले हज की यात्रा कोई भी पैसे वाला कर सकता था उसके पास धन होना पूर्व शर्त थी और वही पूर्व योग्यता लेकिन आज विज्ञान का उपयोग करके दुनिया भर के मुसलमानों ने हज यात्रा को जिस तरह संयोजित किया है वह लाजवाब है. हज के दौरान अब शैतान को पत्थर मारने वाली प्रथा गुजरे ज़माने की बात हो चुकी. उसकी जगह उस सुपर कंप्यूटर हाल ने ली है जिसमे घुसने के बाद इंसान के अन्दर चल रहे द्वन्द, अंदरूनी गंदगी, ज़हनी विकार उसे खुद नज़र आते है. इंसान का अतीत उसके सामने आकर न्रत्य करता है उसे अपनी बदियाँ खुद नज़र आती है जिसकी वह रो-रो कर क्षमा याचना करता है और उससे बाहर निकल कर उसे ऐसा महसूस होता है जैसे उसके मस्तिक्ष की काया पलट गयी हो, वह नया इंसान बन कर अपने घर वापस लौटता है. इस वर्ष पूरी दुनिया से ५६,००० लोगो ने हज यात्रा की जिसमे से ७८९ को एयर पोर्ट से ही वापस किया गया और लगभग १२०० हज यात्रियों को हज के दौरान शक्तिशाली सेंसरो ने उनकी ज़हनी अपवित्रता को पकड़ा परिणामस्वरूप उन्हें हज यात्रा पूरे किये बिना वापस जाना पड़ा. दंड में वसूली गयी और हज यात्रा से होने वाली आमदनी को सऊदी शासक से अफ्रीकी देश मोजाम्बिक को दान कर दी गयी. पिछले २५ सालों से हज की आमदनी से गरीब देशो को दान देने की प्रथा के बारे में क्या पहले कोई सोच सकता था? इंसान के अन्दर झाँक कर देखने वाले इन सुपर कंप्यूटर्स का विकास तेहरान और काहिरा में किया गया है जो अपनी किस्म के पहले कंप्यूटर है.

हज करने का अधिकार किसे है? यहाँ इसे बताना जरुरी है. पूरी दुनिया की मस्जिदों में अब पचास साल पहले जैसे फाहशी दिखावे भरी भीड़ नहीं होती. मुसलमानों की घड़ी में विशेष प्रकार की चिप लगाई गयी है. धर्म में आस्था रखने वाला व्यक्ति किसी भी मस्जिद में जाकर इमाम से यह चिप अपनी घड़ी में डलवा सकता है. इमाम को खुद पता चल जाता है कि उसका आवेदक नमाज पढ़ रहा है या नहीं. मस्जिद आने की अनिवार्यता समाप्त हो चुकी है. इमाम के खुतबो में राजाओं के स्तुतिगान और राजनैतिक ब्यान बाजियां सर्वथा समाप्त हो चुकी है, अभी किसी के पैदा होते ही नव जात शिशु के कानो में जबरन अज़ान देकर मुसलमान बनाने के धंधा बंद हो चुका है. किसी को इस्लाम धर्म में अगर आस्था जगती है तब उसे दो गवाहों के साथ मस्जिद में जाकर आवेदन करना होता है जिसके बदले में इमाम उसे चिप देता है और दर्स भी. इस्लाम को मानने वालो का हिसाब किताब इस चिप के माध्यम से इमाम के कंप्यूटर में दर्ज होता रहता है, मस्जिद में की गयी हाजरी, बिताया गया समय,दी जाने वाली ज़कात और चंदे जैसी बातो से एक नमाजी की क्रेडिट रेटिंग बनती है जिसके इस स्तर पर पहुचने के बाद ही वह हज की यात्रा करने के योग्य होता है. मुस्लिम समुदाय ऐसे हज यात्रियों के आने जाने का खर्च स्वयं वहन करता है इस प्रकार हज वही व्यक्ति जा सकता है जिसकी अपनी धार्मिक योग्यता हो और साथ साथ समुदाय उस पर यह यकीन करे कि उसके हज से समाज को भी लाभ होगा. मुल्लाह नाम के जीवो से जब से मस्जिदें मुक्त हुई है तभी से यह बदलाव बड़ी लडाई के बाद से लागू हो चुके है. नमाज पढ़ाने वाले लोग आमतौर पर पेशेवर होते है जो अपनी आजीविका के लिए मस्जिदों पर निर्भर नहीं करते. मुस्लिम समुदाय अपनी अपनी मस्जिदों के इमाम को एक सामुहिक जिम्मेदारी में बदल चुके है जिसके कारण पूरे समुदाय में मौलिक गुणात्मक परिवर्तन हो चुका है. विज्ञान और तकनीक के व्यापक उपयोग से अब हर व्यक्ति के धार्मिक संस्कारों का लेखा जोखा मक्का स्थित इस्लामिक डेटा सेंटर में जमा रहता है. किसी विवाद की स्थिती में मक्का के चीफ डेटा अधिकारी संबंधित व्यक्ति की रिपोर्ट देख कर कोई निर्णय ले सकते है.

भारत, पाकिस्तान और मध्यपूर्व जैसे देशो में रमजान के दिनों में इफ्तारी जैसे बेहूदा कार्यक्रम मूढ़ता के इतिहास में दफ़न हो चुके है. भारत जैसे देश में अब सामुदायिक नेता भले ही वह इस्लाम को मानने वाला हो या न हो अब सहरी के वक्त आकर अपने रमज़ान की शुरुआत करता है और इस अवसर पर कोई न कोई प्रण अथवा प्रतिज्ञा लेता है. आमतौर पर समुदाय अपने इलाके के गरीब और जरुरत मंदों की जिंदगी बेहतर बनाने, स्कूल कालिजो के आधुनिकीकरण, अस्पतालों, सड़को और जन सेवाओं को समृद्ध बनाने की योजनायें बना कर फंड इकठ्ठा करते जिसमे उनके जन प्रतिनिधी सरकार से और इमदाद लेकर उन योजनाओ को पूरा करने में मदद करते. धार्मिक शिक्षा के लिए पचास साल पहले तक मशहूर मदरसों को बड़े बड़े वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों में बदला जा चुका है जिसमे शिक्षा लेकर अब कोई धार्मिक परजीवी दाढी वाला मुल्लाह बनने के बजाये कोई न कोई पेशेवर बन कर निकलता है. विज्ञान के समुचित उपयोग करने से यह समुदाय दुनिया का सबसे बड़ा डेटा बेस्ड समुदाय बन चुका है जिससे इनके नेतृत्व के पास वह तमाम सूचनाये उपलब्ध है जो इन्हें बताती है कि उन्हें अपने समुदाय के लिए कब और क्या करना है.

मुस्लिम जगत के प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय इमाम मेहदी पुरुस्कार की तारीफ़ किये बिना भला कैसे रहा जा सकता है जिसने पिछले बीस बरस में अपनी प्रमाणिकता इतनी मज़बूती के साथ कायम की है कि किसी ज़माने के नोबिल पुरूस्कार और उससे जुडी हस्तियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. जैसा कि नाम से जाहिर है सदियों तक मुस्लिम समुदाय अपने उत्थान के लिए किसी इमाम मेहदी की प्रतीक्षा में लगा रहा लेकिन मौजूदा परिवर्तन की लहर ने इमाम मेहदी से जुडी परीकथाओ को मानव मुक्ति से जुड़े संघर्षो और मानव विकास के लिए किये गए कार्यो को पहचान कर एक इंसान को ही हर साल ‘इमाम मेहदी’ बनाने का अंसभव कार्य किया है. इस वर्ष यमन के युवा वैज्ञानिक ज़फर बिन सबा को चिकित्सा विज्ञान में किये गए उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए इमाम आफ़ दि इयर ‘इमाम मेहदी’ पुरूस्कार दिया गया है. ज़फर से सदियों से मानव जाति पर अपना प्रकोप बनाए ‘वायरस’ को भेद देने वाली दवा का आविष्कार किया है.   

इसी कुशल और आधुनिक मूल्यों से संपन्न मुस्लिम नेताओं के चलते, दुनिया को लगभग १०० साल तक कचोटती इस्राईल-फलस्तीन की समस्या भी ख़त्म कर ली गयी. धार्मिक आधारों और मुद्दों को ताक पर रख कर आर्थिक सहयोग और परस्पर उन्नति के रास्ते पर चल कर दोनों देशो ने परस्पर सहयोग और सांमजस्य स्थापित करते हुए एक दूसरे की संप्रभुता को स्वीकार किया. धर्म के सार्वजनिक जीवन में प्रयोग पर लगी अपने आप रोक ने इस सदियों पुरानी दुश्मनी को जड़ से मिटा दिया है. दोनों देशो को विभाजित करने वाली दीवारों को गिराया जा चुका है. शांतिपूर्ण सहस्तित्व की यह नई मिसाल दुनिया को अपनी कहानी खुद ब्यान करती है. निसंदेह तीसरी बड़ी लड़ाई के उपरान्त पैदा हुए नए विश्व ने न केवल संयुक्त राष्ट्र संघ को भंग कर मौजूदा विश्व संसद को जो जगह दी है वह अब तक का सबसे अच्छा प्रयोग साबित हुई है जिसमे कोई पांच देश ऐसे नहीं जिनके पास वीटो करने जैसा जन विरोधी हथियार हो. अभी अंतर्राष्ट्रीय विवादों को विश्व संसद में बहस के जरिये बहुमत के आधार पर फैसला करने जैसा अचूक अस्त्र प्राप्त है. विभिन्न देशो की सरकारे विश्व संसद में किसी प्रस्ताव पर क्या रुख अपनाएं इसके लिए प्रत्येक सरकार अपने नागरिको से जनमत संग्रह कराती है फिर वही स्थिती विश्व संसद में रखती है.

तीसरी बड़ी लड़ाई के बाद आये यह बदलाव मानवजाति को मुफ्त में नहीं मिले, इस स्थिति पर पहुँचने से पूर्व उसे अपार जन धन और संपदा की आहूति देनी पडी...
......टी वी पर अलार्म सेट था मुक़र्रर वक्त पर एक न्यूज़ चैनल पर  खबरे आने लगी. मुख्य समाचारो ने दिन की शुरुआत फिर अवसाद से भर दी. इराक में एक धार्मिक समारोह पर तीन जगह हमला. खुद कश हमलावरों ने ३०० से अधिक जाने ली.

चित्र सौजन्य : गूगल
हस्तक्षेप डाट काम में प्रकाशित यह लेख इस लिंक पर उपलब्ध है:
http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2013/07/24/%e0%a4%ae%e0%a5%88%e0%a4%82%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%a4%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%b0-2063-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%ac%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%88-%e0%a4%b9%e0%a5%88 

Sunday, May 12, 2013

इरान- सऊदी छाप न्याय व्यवस्था में पिसते खुद उनके नागरिक


जब मई २००६ की एक सुबह को इरान के २४ मछुआरे फारस की खाड़ी में मछली पकड़ने निकले थे, तब उन्हें नहीं मालूम था कि उनमे से कई लोगो का यह आख़िरी सफ़र है...समंदर का तूफ़ान उनकी किश्ती को सऊदी जल क्षेत्र में ले गया, नतीजतन उन्हें सऊदी सिपाहियों ने पकड़ लिया...कोई ४० दिन के बाद इनके परिवारों को पता चला कि ये लोग जेल में है और उन पर मादक पदार्थो की तस्करी का आरोप लगा है. इनमे से ८ की गर्दने १५ अप्रेल को सऊदी सरकार ने उड़ा दी १५ अभी जेल में है ..जिनके पास अपने बचाव का न कोई वकील है न दलील..पीछे बिलखते इनके परिवार है.
इरान और सऊदी दोनों इस्लाम के अलग-अलग ब्रांड के प्रायोजक है और दोनों मुल्को पर मानव अधिकार हनन के घृणित आरोप है. एक तीसरा पक्ष है एक देश का कैदी दुसरे देश में जाकर अपने सभी अधिकारों से वंचित हो जाता है. तीसरी दुनिया (भारत सहित) के इन देशो में जब भी ऐसी कोई घटना होती है तब ऐसे कैदी अक्सर सियासत की बिसात पर मासूम प्यादे बन जाते है, क्या ऐसी स्थिती में किसी तीसरे पक्ष 'होना' यहाँ अनिवार्य करना वक्त का तकाजा नहीं ?
इस वृत चित्र में पकडे गए मछुआरो में मुझे कोई भी तो तस्कर नहीं लगा? बिलखती बेटियाँ, रूंधे लडके, सदमे में तड़पते वालदायन  और उनकी गरीबी सऊदी अरब के कथित इस्लामी इन्साफ पर सहज ही प्रश्न चिह्न लगा देती है. धर्म के नाम पर दोनों मुल्को की सरकारों ने अपनी जनता के मौलिक अधिकारों का गला घोंट दिया है, इतिहास के इस पीड़ादायक निर्मम जुए को उतार फेंकना हर उस आदमी का फ़र्ज़ है जिसकी आँखे इस वृत चित्र को देख कर भर आये...ऐसी हकूमतो, ऐसी व्यवस्थाओं और ऐसे निजाम पर मैं लानत भेजता हूँ. 

http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=MQPSTEKe12Y

Sunday, April 21, 2013

अफ़गान तालेबान और मुस्लिम महिला शिक्षा


 
मानव सभ्यता का संभवत: सर्वप्रथम विश्वविद्यालय 'तक्षशिला विश्वविद्यालय' की मेजबानी करने वाला  देश अफगानिस्तान आज लड़कियों की शिक्षा का सबसे प्रबल विरोधी क्यों बन गया है ? अफगानिस्तान स्थित इस्लामी ताकते लड़कियों के स्कूलों में छात्राओं को कभी जहर देकर, कभी खतरनाक गैस फैलाकर, तो कभी डरा धमका कर ऐसा माहौल पैदा कर रही है कि लड़कियाँ पढ़ न सकें. २००१ के बाद करजई हकूमत के शिक्षा मंत्रालय ने ५५० छात्राओं के स्कूलों को सुरक्षा कारणों के चलते बंद किया है, जिससे देश के ११ प्रान्तों में तीन लाख से अधिक छात्राएं प्रभावित हुई है.

गत गुरूवार को ताखर सूबे की राजधानी तालूकान के बीबी हव्वा गर्ल्स हाई स्कूल की ७४ छात्राओं को एक अन्जानी गैस के रिसाव के चलते अस्पताल में दाखिल कराया गया है, पिछले साल से अब तक ऐसी चार घटनाएँ हो चुकी है. यह इलाका मुल्सिम कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है. ये काली  ताकते अफगान  समाज की लड़कियों में  शिक्षा के प्रचार प्रसार को लेकर सर्वाधिक चिंतित है..इत्तेफाक से इस्लाम का अफ़ग़ान छाप ब्राण्ड इन दिनों भारत-पाकिस्तान  सहित अन्य कई मुल्को में प्रचलित है..दुनिया को फिर अँधेरे की तरफ ले जाने वाली ताकतों के विरूद्ध जनता का जन युद्ध ही इसे परास्त कर सकता है. अमेरिका का पैदा किया हुआ यह जिन्न  अब उसके काबू से बाहर हो चुका है. इस काले सांप का फन  सिर्फ और सिर्फ जनता के पैर ही कुचल सकते है ...आपकी  गली मुहल्ले में इनसे मिलाता जुलता कोई भी मिले उसका प्रतिकार करना मानव जाति के प्रति सबसे बड़ा उपकार होगा.

http://www.policymic.com/articles/36945/afghan-girls-school-poisoning-74-girls-poisoned-in-suspected-taliban-gas-attack   
फोटो सौजन्य : गूगल             

Saturday, April 13, 2013

तारेक फतह और जामिया प्रकरण : जनवाद पर इस्लामी ताकतों का हमला



बंगलादेश और भारत की आजादी से जुड़े प्रश्नों पर एक किताब लिखने के सन्दर्भ में तारेक फतह इन दिनों कनैडा से भारत यात्रा पर है. दो दिन पहले दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व विद्यालय में उनका एक प्रश्नौत्तर कार्यक्रम होना तय था जिसे कथित इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव के चलते रद्द कर दिया गया. भारत और उसके जनतंत्र को लेकर तारेक फतह जैसे बहुत से बुद्धीजीवी अक्सर भ्रम में रहते है लेकिन जैसे ही कडुवे यथार्थ से दो चार होते है तब  उन्हें जमीनी हकीकत का पता चलता है.

मेरा स्पष्ट मत है कि तारेक फतह भारत में किसी भी जगह  मुसमानो के बीच स्वतन्त्र रूप से अपने विचार सार्वजनिक रूप से नहीं रख सकते. भारत के मुसलमानों में आलोचना सुनने की क्षमता न तो पहले थी न अब है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय हो या जामिया ...दोनों परिसरों में इस्लाम के प्रति किसी आलोचनात्मक आवाज को सुनना संभव ही नहीं है.

दो वर्ष पूर्व मेरठ विश्वविद्यालय परिसर में न्यू ऐज इस्लाम डाट काम  के संस्थापक और सूफी इस्लाम के प्रवक्ता सुल्तान शाहीन को जमाती मुसलमान छात्रों ने ३ मिनट भी नहीं बोलने दिया था, इसी परिसर में इस्लाम के विश्व विख्यात विद्वान  मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब के हाथ से माइक छीन लिया गया था और उन्हें बेइज्जत करके परिसर छोड़ने को मजबूर किया गया. अब हालत यहाँ तक पंहुच चुके है कि इस्लाम की धर्म निरपेक्ष व्याख्या करने वाले बुद्धीजीवियों तक के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा जा रहा है, तब भारत में तारेक फतह जैसे  बेबाक राजनीतिक इस्लाम के कटु आलोचक को भला कैसे सुना जा सकता है? मजे कि बात यह है कि ये तीनो लोग  मुसलमान है. इस्लाम पर  कोई भौतिकवादी, संदेहवादी, यथार्थवादी, नास्तिक, बुद्धीवादी या  मार्क्सवादी बोले इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती. जब मुसलमानों के  कथित शिक्षण संस्थानों का बौद्धिक स्तर इस हद  तक गिर चुका हो, तब आप मुस्लिम समाज के चिंतन के स्तर का अंदाजा खुद ही लगा सकते है. यह भी सच नहीं की सौ प्रतिशत मुस्लिम आबादी की सोच इन फासीवादियो से मिलती हो? लेकिन ऐतिहासिक रूप से बुनियाद परस्त मुस्लिम ताकतों ने लिबरल सोच के मुलसमानो पर अपने भय की गिरफ्त बनाए रखने में कामयाबी पायी है जिसके चलते यह बड़ा वर्ग अपनी चुप्प आपराधिक चुप्पी के जरिये अपना समर्पण कर चुका है. जामिया जैसे  प्रसंगों के माध्यम से इस्लाम  के राजनितिक फासीवाद का भारत सहित विश्वव्यापी चरित्र आसानी से समझा जा सकता है जिसके खिलाफ तारेक फतह की आवाज को दुनिया में हमेशा याद किया जाएगा.   

भारत के मुसलमानों द्वारा कट्टरपंथी इस्लाम की सलफी अवधारणा के पीछे छिपे कारणों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समीक्षा भी करनी होगी और उसकी सरकारी पपड़ताल भी करना उतना ही  जरूरी है. बोलने के मौलिक अधिकार और धार्मिक भावनाओ को भड़काने जैसे लच्छेदार मुहावरों को गौर से अगर देखे तो पायेंगे कि एक तरफ इस विषय पर जनवादी शक्तियो द्वारा इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों के सामने आपराधिक समर्पण दिखेगा दूसरी तरफ मुसलमानों के भीतर फासीवादी शक्तियों द्वारा जनतान्त्रिक अधिकारों के आवरण तले पूरे मुस्लिम समाज में अपनी पकड़ बनाने की एक सतत प्रक्रिया दिखाई पड़ेगी जिसके तार सऊदी अरब और इरान तक से जुड़े नज़र आयेगे.

तारेक फतह के प्रकरण पर वामपंथी ताकते ठीक उसी तरह चुप्पी साधे है जैसे उन्होंने अतीत में सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के मुद्दे पर अख्तियार की थी. बोलने की आज़ादी के लिए संघर्ष करने से  बड़ा कार्यभार शायद अब उनका चुप रह कर इन मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों का अघोषित समर्थन करना भर रह गया है. लगता है इतिहास से कोई सबक सीखने की आदत अब उनमे नहीं रही न ही समझ. इरान में तुदेह पार्टी ने खुमैनी के शाने बशाने संघर्ष किया और इरान की हकूमत मुल्लाहो के हाथ में आते ही सबसे पहले तुदेह पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का कत्लेआम इस्लाम के नाम पर किया गया जिसमे लगभग २० हजार कम्यूनिस्टो ने शहादते दी. आज भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं है. इसी तरह दूसरे इस्लामी मुल्को में कम्यूनिस्टो को गाज़ा में, ट्युनिसिया और मिस्र में बली का बकरा बनाया गया है और आज भी बनाया जा रहा है. क्या राजनीतिक इस्लाम के इस फासीवादी चरित्र का भंडाफोड़ समाजवादी या बहुजनस्वामी ताकते करेगी ? क्या इस प्रश्न पर काग्रेस जैसी मौकापरस्त ताकत के लड़ने के भरोसे बैठा जाएगा ?

हालत जिस तेज़ी से बदल रहे है उसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारत के मुसलमानों को सीरिया के नक़्शे कदम पर धकेलने की तैय्यारी पूरी तरह से चल रही है. केंद्र की सरकार भारतीय मुसलमानों के सलफीकरण और सफविदकरण दोनों ही मुद्दों पर चुप्पी साधे बैठी है. इस अत्यंत खतरनाक खेल में जीत किसी भी पक्ष की नहीं होगी अगर होगा तो सर्वत्र विध्वंस जिसमे कोई भी न बचेगा.

अभी समय आ गया है कि भारत के जनवादी राजनीतिक संगठन इस प्रश्न पर अपनी स्थिती स्पष्ट करे कि क्या सार्वजनिक जीवन में धर्म आधारित राजनीति को अनुमति दी जानी चाहिए ? या उन्हें शट-अप कह कर घर बैठने के लिए विवश किया जाए? जाहिर है यह काम क़ानून से नहीं होगा इसके लिए कड़ा राजनीतिक संघर्ष करने और मज़बूत इच्छा शक्ति की दरकार है. इससे पहले की बहुत देर हो जाए यह कार्य अतिशीघ्र किया जाना चाहिए. तारेक फतह पर जामिया में हुए इस विवाद ने मुझे १९९१ में वहां के लुम्पन छात्रों द्वारा प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के विरोध की यादे ताज़ा कर दी है जिसे माजूदा विदेश मंत्री  सलमान खुर्शीद का वरदहस्त हासिल था. आज अगर ऐसे मौक़ा परस्त लोग देश के सत्ता संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे है तब उनकी हकुमत से इस्लामी फासीवाद के विरुद्ध कोई लड़ाई तेज़ हो इस गलत फहमी में कौन रह सकता है?    

Friday, March 15, 2013

जमाती फजलुर्रहमान: मानवजाति पर नाजायज़ क़र्ज़

इनसे मिलिए ये हैं पाकिस्तान के मज़हबी नेता मौलाना फ़ज़लुर्रहमान. इनकी पार्टी जमात को एक दहाई सीटे नहीं मिलती, ये खुद कितनी बार चुनाव हारे इसका अंदाजा शायद इन्हें भी नहीं होगा. पिछले २ माह में क्वेटा में दो और एक कराची में धमाके हुए जिनमे सैकड़ो शहरी मारे गए. लेकिन मजाल है कि ये कुछ बोले ? मज़हबी दरिंदो ने खुदकश हमलो में हजारो बेगुनाहों को मौत की नीद सुला दिया- मजाल है कि ये मौलाना कुछ करे उनके खिलाफ..पाकिस्तान रोज़ एक फिट गर्त में गिर रहा है, मेहनत कश आवाम की दिक्कते हर रोज़ एक पहाड़ की तरह उनके सामने होती है लेकिन मौलान ने कभी बुनियादी मसलो पर लड़ाई शुरू करने की जुर्रत नहीं की. इनका नाम मौलाना 'डीज़ल' भी है जो इनकी हराम खोरी का अपने आप में जीता जागता दस्तावेज है, इनकी पार्टी को जमाते हरामी के नाम से भी कुछ लोग जानते है. 
हां, इन्हें दिल्ली में दी गयी अफ़ज़ल गुरु की फांसी याद आ गयी, पाकिस्तान की संसद में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाने वाले यही वह महान शख्सियत है जिसके कर्ज के नीचे मुसलमान और मानव जाति दबी हुई है. इन्हें शर्म नहीं आती, कब तक जज्बाती सियासत करके जनता का गला घोटते रहेंगे? इन सभी मजहबी बहरूपियो का चरित्र एक ही होता है, असली मुद्दों से जनता को दूर रखा कर नकली मुद्दों की तरफ जनता का ध्यान बाँट देना.
गौर करने वाली बात है उधर के दाहिने बाजू सियासत का जवाब इधर के दाहिने बाजू संघियों ने फ़ौरन दिया, पाकिस्तान के 'निंदा प्रस्ताव' की 'निंदा' भारतीय संसद ने भाजपा द्वारा लाये एक प्रस्ताव में कर दी.....धन्य हो लोकतंत्र जो कैसे कैसे जीवों की जीवन दे देता है? खासकर तीसरी दुनिया के देशो में.

Saturday, March 9, 2013

इस्लामी गुंडों का कानून है ईश निंदा कानून





ये इक्कसवी सदी की कितनी खूबसूरत तस्वीरे है? एक लफंगे ने कहा कि 'उसने हुज़ूर की शान में गुस्ताखी की है', सारे लफंगों के होश उड़ गए. लफंगों का हुजूम 'नारा -ए-तकबीर-अल्लाहु अकबर' लगाता हुआ भंगियो (पाकिस्तान में सफाई कर्मचारी इसाई है; ६५ साल में भी ये मुसलमान क्यों नहीं हुए यहाँ अलग बहस का मौजू है) के मुहल्ले, जोसेफ कालोनी लाहौर पाकिस्तान में उस कथित अपराधी बब्बी को ढूंढने निकल पड़ा, वो नहीं मिला तो उसकी जात-बिरादरी-धर्म  के लोगों के  कोई १५० घरो को जला दिया. इन  सुहानी तस्वीरो में, तबाही पर ताडंव नृत्य करते 'मज़हब के रखवालो' को साफ़-साफ़ पहचाना जा सकता है. 
राजनीतिक इस्लाम अगर एक फासीवादी विचारधारा है तो 'ईश निंदा' उसका प्रमुख  अस्त्र है. ऐसे बर्बर कानून की जरुरत उन बर्बर ताकतों को होती है जिन्हें ये नज़ारे देखने में अच्छे लगते है और जिन्हें अपनी इन्ही शैतानी कार्यवाहियों को हर रोज़ अंजाम देने की इच्छा रहती है. पाकिस्तान में ये अनासिर अब तकरीबन हर घर में मौजूद है. भारत में भी अब इनकी तादाद अच्छी खासी बढ़ रही है. एक कथित बहुजन स्वामी नेता की मूढ़ता की परिकाष्ठा उसके बैनर पर 'इस्लामवाद जिंदाबाद' के नारे तक मे देखी जा सकती है.
ये आग ...मेरे और आपके दरवाज़े पर कल पहुँच जाए तो ताज्जुब न कीजियेगा..सऊदी अरब का पैसा मस्जिदों-मदरसों  के जरिये सड़क पर आतंक के रूप में एक 'सलफी' सच्चाई को बयान कर रहा है.              

Monday, February 18, 2013

मुल्लाह बनाम केंचुआ Mullah V/s Earthworm





मुल्लाह, साधु, पंडित, पादरी  आदि का मौजूदा मानव समाज के रचनात्मक विकास में केंचुए के योगदान से भी कम है. वह मिट्टी की उर्वरा को उन्नत ही नहीं करता वरन हजारो पक्षियों का पसंदीदा भोजन भी है. ओरगेनिक खेती ने केंचुओ की महत्ता को और अधिक स्थापित कर दिया है. पर्यावरण के संतुलन को कायम रखने में केंचुए की महती भूमिका है. लेकिन मुल्लाह, साधु, पादरी या पंडा इनका समाज के विकास में क्या योगदान है? इनके जीवन से क्या किसी देश की मिट्टी कभी उर्वरक हुई है ? क्या किसी देश के सकल उत्पाद में इनका कोई योगदान है? ये मात्र परजीवी है, फिलीपींस से लेकर अमेरिका जहां भी ये प्रजाति पायी जाती है इनके श्रम से कोई रचनात्मक उत्पादन कभी नहीं हुआ, इनसे बेहतर पृथ्वी पर केंचुए हैं जो इंसान के लिए एक बेहतर वातावरण तैयार करने में रात दिन जुटे हुए है. एक प्रबुद्ध समाज दाढ़ी की लम्बाई/तिलक की चौढ़ाई को के बरक्स उस व्यक्ति की  आर्थिक उपादेयता और उसके सामाजिक सरोकारों को महत्व देगा. मुल्लाह-पंडित-पादरी पालने से बेहतर है केंचुओ को पाला जाए, वह हर मायने में ज़्यादा मुफीद साबित होगा.

Beautiful earth worm is more productive than Mullah, Sadhu, Pastor or Pundit. It not only enriches the soil but most liked staple food for thousands of bird species. Organic farming has reinforced the importance of earth worm. Earth worm plays a vital role in maintaining the ecological balance of our planet. But what is the positive contribution of these Mullah, Pastors, Sadhus and Pundit in our social development? Has their presence ever improved the productivity of the soil in any country? Do they contribute anything in GDPs of any nation? They are just parasites. From Philippine to United States wherever they are found, has never contributed anything productive so far. I rate an earth worm better than these parasites that are creating positive conditions for human life. A just society will always recognise the services of a human being in terms of his economic and social contribution not by the length of his beard or wide Tilak at forehead. It would always be a better idea to pet few earth worms rather than giving alms to parasites of the society.

फोटो सौजन्य : गूगल/ Photo arrangements: Google                  

Wednesday, January 2, 2013

अकबरुद्दीन औवेसी :भारतीय राज्य को चुनौती देता ठाकरे का मुस्लिम संस्करण


हबीबे मिल्लत 42 साला विधायक अकबरुद्दीन औवेसी पुत्र मरहूम सांसद सालारे मिल्लत सलाहुद्दीन औवेसी इन दिनों अपनी जज़्बाती ठाकरे अंदाज़ वाली तकरीर के कारण भारतीय मीडिया, सोशल मीडिया की सुर्खियों में हैं। 24 दिसंबर को आदिलाबाद में कोई 10-15 हजार मुसलमानों की भीड़ को संबोधित करने के बाद मुसलमानों के प्यारे (हबीबे मिल्लत ) ने इलाज कराने के नाम पर लंदन का जहाज पकड़ लिया। नेता,मीडिया, सरकार, भाजपा, अदालत सब हरकत में आ चुके हैं। अकबरुद्दीन की ही माने तो भारत में 25 करोड़ मुसलमान है इनकी सियासी जमात इत्तेहादे मुसलमीन (एम आई एम ) के कुल जमा 7 विधायक हैं और इनके बड़े भाई असद्दुदीन अपने पिता सलाहुद्दीन की पुश्तैनी संसदीय सीट से भारतीय लोकसभा के निर्वाचित सांसद भी हैं। हैदराबाद से सलाहुद्दीन औवेसी 6 बार सांसद रहे जिनका स्वर्गवास 2008 में 77 साल की उम्र में हुआ था। अब आप इन सालारे मिल्लत, हबीबे मिल्लत की सियासी औकात का अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं।
मुसलमानों के इस अशरफ नेता, इनकी सियासी तंजीम के इतिहास का परिचय करना यहाँ आवश्यक है, अतीत से वर्तमान को समझने में पाठकों को आसानी होगी। हैदराबादी मजलिस का इतिहास भारत की आज़ादी से भी पुराना है। भारत की आज़ादी से पूर्व निजाम हैदराबाद उस समय भी दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। निज़ाम हकुमत की अपनी रेलवे, डाक सेवा, संचार, जहाज रानी, एयरलाइन फ़ौज थी। हकुमत की जी डी पी बेल्जियम के बराबर थी।निज़ाम के पास 22,000 फौजियों की सेना थी जिसमे अरब,पठान, रोहिल्ले आदि शामिल थे। निज़ाम ने भारत में विलय करने से इंकार कर दिया था सितम्बर 1948 तक कई वार्ताओं के दौर चले लेकिन निज़ाम टस से मस न हुए। निज़ाम की निजामशाही के खिलाफ़, उसके जमीदारों के खिलाफ आज़ाद भारत में आम जनता का पहला संगठित विद्रोह हुआ जिसका नेतृत्व भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने किया था। उन दिनों मजलिस हुआ करती थी जिसका नेता कासिम रिज़वी था। भाड़े के सैनिकों को रखने में माहिर निजाम की हकुमत बचाने (इस्लाम की हिफ़ाजत पढ़े) के लिए कासिम ने निजाम के आदेश पर एक मिलिश्या का गठन किया जिसे 'रजाकार' के नाम से जाना जाता है। इसकी तादाद उन दिनों 2 लाख तक बतायी जाती है। आम मुस्लिम आबादी पर कासिम की पकड़ भी इस संगठन के जरिये समझी जा सकती है। उस ज़माने में कासिम की तकरीरें और अकबरुद्दीन की तकरीरों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है, बस कुछ तात्कालिक मुद्दे और जुड़ गए हैं। कासिम रिज़वी ने रजाकारों को भारतीय फौजों के खिलाफ लड़ने के लिए वही दलीलें दी थी जो अकबरुद्दीन ने दी है। बारहाल निज़ाम की हकुमत को 17 सितंबर 1948 में पांच दिन का भारतीय फ़ौजी अभियान 'आपरेशन पोलो' उर्फ़ पुलिस एक्शन के सामने घुटने टेक देने पडे। निजाम के अरब कमांडर अल इदरूस को जनरल चौधरी के सामने समर्पण करना पड़ा। इस लड़ाई में भारत के 32 फ़ौजी मरे, निजाम की तरफ से मरने वालो की संख्या 1863 बतायी गयी लेकिन उन हालात में हुई व्यापक हिंसा में मरने वालों की संख्या विभिन्न इतिहासकारों के माध्यम से 50 हजार से दो लाख तक बताई जाती है।
उपरोक्त जानकारियाँ उन लोगों के लिये विशेषकर गौर तलब है जो अकबरुद्दीन के सियासी काफिले को अखिल भारतीय स्वरुप देने की हसरतें पाले बैठे हैं। उन्हें इतिहास के इस पाठ से यह सबक लेना होगा की तत्कालीन निज़ाम और उसकी फ़ौज, उसके संसाधन एक बालक राज्य भारत की फ़ौजी कार्यवाही पांच दिन न झेल सका, अब न निजाम है न उसकी फौज़ बस अकबरुद्दीन के लम्पटई तक़रीरें है और उधर भारत एक विशाल सैन्य शक्ति है अब मुकाबला कैसे होगा ? जंग तकरीरों से नहीं हथियारों से लड़ी जाती है लेकिन अकबरुद्दीन जैसे नेता अनपढ़ और मासूम आवाम को गुमराह करते रहे है। अकबरुद्दीन औवेसी की शक्ल में कासिम रिज़वी की विरासत हैदराबाद में अभी ज़िंदा है। शुक्र है कि आंध्र से बाहर अभी मजलिस को कोई मुसलमान घास नहीं डालता।
अकबरुद्दीन अपने भाषण में अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते नहीं थकते। कोई भी पहली दफा सुनने वाला यह अनुमान लगाएगा कि उन्हें गोली मारने वाला शायद कोई हुकूमत का आदमी होगा। गोली शरीर में होने के किस्से इतने भावनात्मक तरीके से बुने गए जैसे सुनने वालों को लगे कि कौम की किसी जंग में अकबरुद्दीन को 3 गोली लगी, अभी एक गोली बाहर आना बाकी है। मंच से बार-बार कुरआन शरीफ,मौहम्मद का वास्ता देने , नमाज पढ़ने की ताकीद देने वाले इस शख्स की दुश्मनी किसी सरकार से नहीं न किसी गैर मुस्लिम से। मौहम्मद पहलवान नाम के एक शख्स से इनकी जमीन जायदाद को लेकर रंजिश है, उसी सिलसिले में मई 2011 में हुए एक कातिलाना हमले में अकबरुद्दीन ने कौम की खातिर गोलियाँ खाई थी। तब बच्चा-बच्चा इनके लिये रोया, नमाजे पढी काबे में, करबला में दुआएं हुई और तब जाकर हबीबे मिल्लत अकबरुद्दीन की जान बची। न सुनने वाले को शर्म है न कहने वाले को हया है। सच किसी तलवार की तरह सामने है बस थोड़ा तथ्यों पर गौर करना होगा और खुद बा खुद झूठ काफूर हो जायेगा।
अकबरुद्दीन अपने वाहियात तेवरों से पहले भी चर्चा में आ चुके है। तसलीमा नसरीन की हैदराबाद में मुखालफत करने,रुश्दी पर लगे फतवे को लागू करने के मजलिसी फरमान को वह पहले सार्वजनिक कर चुके हैं। जाहिर हैं ऐसे जज्बाती मुद्दों पर आम मुसलमान बहुत खुश होता है, उसकी खुशियों में चार चाँद लगाने के लिए उर्दू प्रैस ऐसे सवालों को हमेशा ज़िंदा रखती है और इन अखबारों को अकबरुद्दीन जैसा आदमी बिकवाने में मदद करता है। जो मुद्दा मुद्दा नहीं होता वह मुसलमानों के जहन में एक बड़ा सवाल बना दिया जाता है। इन बनावटी मुद्दों पर मजलिस जैसी जमाते चुनाव जीत जाती है। इक्कीसवीं सदी में इस्लाम के नाम पर सियासत करने वाले का मकान हैदराबाद के सबसे महंगे इलाके बंजारा हिल में है। जब ये श्रीमान तक़रीर दे रहे हैं तब इस बात पर कोई गौर नहीं करता कि स्टेज पर एक भी महिला नहीं है। इनके पिता का इन्तेकाल हुआ संसदीय सीट खाली हुई तब इन्हें पार्टी में कोई दूसरा काबिल इंसान नहीं दिखा। इनके बड़े भाई असदुद्दीन औवेसी आज अपने पिता की जगह संसद में बैठे हैं और खुद अकबरुद्दीन नेता मजलिस आंध्र प्रदेश विधान सभा सदस्य हैं।
मजलिस की चुनावी सफलता के सफ़र का अध्ययन करने पर कोई भी इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि इसमें कांग्रेस का कितना बढ़ा हाथ है? कांग्रेस के समर्थन और गठबंधन के बिना मजलिस का विधान सभा में पहुँचना संभव न था। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता ने देश को एक से बढ़कर एक कद्दावर लम्पट नेता दिए हैं।बाला साहब ठाकरे को मुम्बई में उसके आरंभिक दिनों में यदि कांग्रेस का समर्थन न मिला होता तब क्या शिवसेना जैसी ताकत देश के राजनैतिक नक़्शे पर नज़र आती ? आज अकबरुद्दीन आदिलाबाद में जिस बेअदबी के साथ भारतीय इतिहास के छक्के छुडा चुका है क्या वह संभव होता यदि उसके वालिद सलाहुद्दीन को सांसद बनवाने में कांग्रेस ने अतीत में मदद न की होती ?
कांग्रेस के दिशाहीन और मूल्यरहित राजनीतिक व्यवहार ने देश की राजनीति को बहुत नुक्सान पहुँचाया है। केरल में कम्युनिस्टों के खिलाफ मुस्लिम लीग से समझौता करना उसके वैचारिक दिवालियेपन और राजनीतिक अवसरवाद का परिणाम है जिससे देश की दक्षिण पंथी ताकतों को उसपर हमला करने का अवसर मिला बल्कि मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को पैर जमाने का मौक़ा मिला। अकबरुद्दीन की मौजूदा उवाच को मजलिस की राजनीतिक मोलभाव करने की बढी ताकत के रूप में देखा जाना चाहिए। तेलांगना आन्दोलन अपनी परिणिती पर पहुंचने वाला ही है। यह अच्छा समय है जब राज्य में राजनीतिक स्थितियाँ पूरी तरह से तरल है इसी मौके का फ़ायदा उठा कर मजलिस अपने मुस्लिम वोटों का चेहरा दिखाकर मोल भाव का प्रस्ताव रख रही है। जो सबक उसने पिछले दो दशकों में कांग्रेस से सीखा है वह आज उसी पर पलटवार कर रही है।
उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य के अतिरिक्त मुसलमानों से जुडी,मूलभूत समस्याओं को भी नज़ारा अंदाज़ नहीं किया जा सकता। जो प्रश्न अकबरुद्दीन ने उठाये हैं चाहे वह भूमि वितरण का प्रश्न हो या सरकारी आवासों के आबंटन में मुसलमानों के हिस्से का नदारद होना, गंभीर आरोप तो है ही साथ ही राज्य का मुसलमानों के प्रति रवैय्ये को भी स्पष्ट करता है। ये आरोप सरासर झूठे नहीं। भारत की 10 लाख की फ़ौज में मात्र 29 हजार मुसलमानों की सख्यां होना एक इत्तेफाक नहीं बल्कि किसी योजना का हिस्सा ही है। ठीक इसी तरह दूसरे इदारों में उनकी नौकरियाँ का प्रतिशत असामान्य रूप से कम होना। बैंक के कर्जो में, उसके मौहल्लो के विकास, शिक्षण संस्थाओं का आभाव आदि ऐसी समस्याएँ है जिन्हें न तो राज्य पिछले 65 वर्ष में पूरा कर सका बल्कि इन क्षेत्रों में उसे पीछे धकेलने का प्रयास सजग रूप से हुआ है। साम्प्रदायिक दंगों का अर्थशास्त्र भी मुस्लिम समुदाय के वर्ग हितों पर दक्षिण पंथी हमले के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। समस्याएं है, बहुत विकट प्रश्नों से जूझ रहे इस समुदाय को अकबरुद्दीन जैसे जहरीले भेडिये के सामने धकेलने में किन परिस्थितियों, दलों, सरकारों और राज्य शक्तियों का हाथ है इसकी पड़ताल की जानी चाहिए। यह वही हैदराबाद है जिसने वामपंथी उम्मीदवार आर एन रेड्डी को नेहरू से भी अधिक वोटों से जीता कर संसद में भेजा था, यह वही हैदराबाद है जिसकी चारमीनार सिगरेट मज़दूरों के नेता मखदूम मोईनुद्दीन चुने गए थे, मखदूम इसी शहर से चुनाव जीत कर विधान सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हुआ करते थे। क्या यह वही भूमि नहीं जिसने राजेश्वर राव जैसे नेता कई बड़े नेता इस देश को दिए।
भारतीय राज्य अपने बहुजनो, अल्पसंख्यकों आदिवासियों के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में असफल हुआ है। क्षेत्रीय संप्रभुता को बनाए रखने क नाम पर कभी कश्मीर तो कभी उत्तर पूर्व में अभूतपूर्व शक्ति का प्रयोग करके विभिन्न सामाजिक समूहों को अपने प्रभामंडल से उसने विरक्त किया है। देश की न्यायप्रणाली और उसके राजनीतिक प्रश्रय ने लोकतंत्र का भद्दा मजाक उड़ाते हुए बाल ठाकरे, मोदी, तोगड़िया, आडवानी, सिंघल, ऋतंभरा जैसे खलनायकों को पैदा किया है। अदालतें दोषियों को सजा न दे सकी, अपराधी संसद में राजसत्ता की मलाई चाटते दिखे तब ऐसी निराशा में छत्तीसगढ में आदिवासी अगर हथियार बंद आन्दोलन चला सकते है तब अकबरुद्दीन जैसे अनासिर को नारा इ तकबीर-अल्लाहु अकबर के नारे के साथ राजनीति करने से कौन रोक सकता है?
पूरा देश आज इन तमाम हरकतों को देख रहा है। धर्म का धूर्ततापूर्ण राजनीतिक इस्तेमाल और उसके फायदे -नुकसान आज सभी के सामने है। भगुवा राष्ट्रवाद नरेन्द्र मोदी के विकास की आड़ में दिल्ली कब्जाने की फिराक में लगा है। जो सत्ता में है वह मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को उकसा कर अपनी रोटियाँ सेकने में व्यस्त है। बहुजन स्वामी ताकतें अपनी स्वार्थ सिद्धी में व्यस्त है, जनवादी ताकतें अपनी लगातार हुई हारों के कारण पस्त है, यही सही वक्त है अकबरुद्दीन के लिए जिसने कहा 'जिसकी लाठी उसकी भैंस'. दक्षिण पंथी हिंदुत्व ताकतों ने ठाकरे को चालीस साल जिन्दा रखा, मोदी पिछले 15 साल से ज़िंदा है। अब मुसलमान दक्षिणपंथी ताकतों की बारी है, पहले उनका ईमान दाऊद पर आया, मज़हबी ऐतबार से ज़ाकिर नायक उनका महानायक बनता जा रहा है (सैंकड़ो हिन्दू बाबा बाबी के महा प्रचार तले यह मुस्लिम आफ शाट है) अब सियासी ठाकरे टाईप नेता की कमी थी इस महाशून्य को अशरफी मुसलमान अकबरुदीन औवेसी ने पूरा करने का ऐलान कर दिया है। फिलहाल वह लंदन से पाकिस्तानी मुहाजिर नेता अलताफ हुसैन की भाँती दूर से नज़ारा कर रहा है।
फोटो सौजन्य : गूगल