Friday, October 19, 2012

हज २०१२: क्या यह सिर्फ़ धार्मिक कर्मकाण्ड है या शुद्ध अर्थशास्त्र?



हज दुनिया का सबसे बडा सालाना धार्मिक समारोह है जिसमें भाग लेने वालों की संख्या में हर वर्ष वृद्धि दर्ज की जा रही है. सबसे बडा समारोह होने के साथ-साथ यह दुनिया के सबसे पुराने धार्मिक उत्सवों में भी एक है. पिछले १४०० सालों (कुछ एक सालों को छोड़ कर जब सुरक्षा कारणों से हज स्थगित रहा) से यह अपने इस्लामी स्वरुप के साथ नियमित रुप से जारी है. मक्का पर मुसलमानों के अधिपत्य से पूर्व मक्का में यह सालाना वर्जिश सदियों पुरानी थी जिसमें तत्कालीन समाज के कबीले अपने-अपने देवी देवताओं के बुतों के साथ मक्का आते और अपना वार्षिक धार्मिक उत्सव मनाते. ऐतिहासिक रुप से यह सालाना मेला स्थानीय कारोबार-रोज़गार-आर्थिक गतिविधियों को एक फ़ैसलाकुन ताकत देने की कुव्वत उस वक्त से लेकर १९७२ तक कायदे से रखता रहा है. इस्लामी हकुमतों के दौरान मक्का-मदीने पर नियंत्रण तत्कालीन राजनीति का एक महत्वपूर्ण सवाल रहा है, जाहिर है यह वह एक आर्थिक प्रश्न है जिसके इर्द-गिर्द धर्म और धार्मिक नीतिशास्त्र की रचना हुई. इस लेख का उद्देश्य हज से संबंधित धार्मिक किस्से कहानियों से इतर हज की एक बौद्धिक-आर्थिक व्याख्या करना है.



लगभग पौने तीन करोड़ की आबादी वाले सऊदी अरब में स्थित मक्का-मदीना पूरी दुनिया के कोई डेढ अरब मुसलमानों का एकमात्र धार्मिक पर्यटक स्थल है जहां हर एक धनपति मुसलमान मरने से पहले जाना चाहता है. अधिक से अधिक की कोई सीमा नहीं, कुछ नियमों,मंत्रों के अनुसार आप अपने पिता, मां, दादा, दादी, नाना, नानी के लिये उनकी अनुपस्थिती में हज कर धर्म लाभ उठा सकते है, उनके गुनाह माफ़ करा सकते हैं और उनके लिये जन्नत में जगह पाने की प्रार्थना कर सकते हैं. ऐसा कहा जाता है कि इस जगह की गई दुआ असफ़ल नहीं होती. यह धार्मिक मान्यता है लेकिन जरा सी बुद्धि लगाते ही इन मान्यताओं के आर्थिक मन्तव्य स्पष्ट हो जाते हैं. जाहिर है पिछले १४०० वर्षों का धुआंधार प्रचार और इस्लाम के मूल पांच अरकानों में से आखिरी और एक होने के कारण हज, एक आम मुसलमान के लिये ऐसा स्वप्न है जिसे पूरा किये बिना वह मरना भी नहीं चाहता. हज एक ऐसा प्रोडक्ट है जिसकी मार्केटिंग धर्म के जरिये आपको पैदा होते ही अपने पूर्वजों और मुल्लाह के द्वारा विरसे में मिल जाती है. आप जीवन भर मेहनत करते हैं पैसा कमाते हैं और कुछ बचा कर रखते है कि मरने से पहले हज हो जाये. इसे आप अमूर्त रुप में नहीं कर सकते जबकि सारा धर्म अमूर्त है. हज आपको मूर्त रुप में ही करना होगा, पैक्टिकली जाना होगा, वीसा लेना, हवाई जहाज, होटल, कपडे, तोहफ़ों की खरीदारी आदि ये सब हज के दौरान होने वाले वह खर्च हैं जिनसे आपको दो चार होना ही है. यात्री सिर्फ़ अपने धार्मिक लाभ के लिये हज कर रहा है ऐसा देखना, दिखाना, बताना और सुनाना एक धार्मिक सच जरुर हो सकता है लेकिन वास्तविकता में, इसे लौकिक धरातल पर देखा जाये तब तस्वीर दूसरी ही नज़र आती है. यह भी सच है कि लौकिक अर्थों को धर्म क्यों परिभाषित करेगा? हज के अर्थशास्त्र पर इस लिहाज से एक नज़र डालना प्रासंगिक होगा. यह मसला है तो टेहडा क्योंकि राजा की हकुमत है और वह अगर सही आंकडे रखती भी हो तो किसी को उपलब्ध नहीं कराती, गाहे बगाहे खलीज के अखबारों में जो सूचनायें सरकारी हवालों से प्रसारित होती हैं उन्ही का लेखा जोखा यहां दिया जा रहा है.



१९२५ में मौजूदा सऊदी के शासकों के पास मक्का-मदीने पर कब्जे के बाद (उससे पहले ओटोमन तुर्की साम्राज्य के पास यह अधिकार था) १९२७ में तकरीबर ३ से साढे तीन लाख लोगों ने हज में शिरकत की जिनमें करीब डेढ लाख हाजी विदेशी थे. यह संख्या १९७२ में दस लाख हुई जिनमें ४.७९ लाख हाजी विदेशी थे. २००९ में तकरीबन ३० लाख लोगों ने हज किया जिनसे एक अनुमान के मुताबिक ३० अरब डालर का धंधा सऊदी सरकार को प्राप्त हुआ. २०११ में सऊदी का कुल घरेलू उत्पाद ६९१.५ अरब डालर का था, हज से प्राप्त होने वाला रेवेन्यु उसकी जी.डी.पी. का कोई ७% था जो बिना तेल की आय की मदों में देखा जाये तब यह उस आय का २२% है. इन दिनों हज हर साल सऊदी में करीब १६०,००० नौकरियां उपलब्ध कराता है. हज के दौरान खुदरा व्यापार, होटल, विमानन, ट्रांस्पोर्ट, एयरपोर्ट, पर्यटन, टेलीकाम, डाटा, खाद्य उद्योग ऐसे धन्धे हैं जिनका विकास और विस्तार इस आयोजन से सीधा जुडा है.



पाकिस्तान की एक सरकारी वेब साईट के मुताबिक प्रत्येक हाजी से वसूल की जाने वाली धनराशी का विवरण देना यहां जरुरी है. तीन प्रकार के वीसा हाजियों के लिये हैं जिनकी कीमतें अलग अलग है:

नीला वीसा: कीमत लगभग ३५०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी ९०० मीटर

हरा वीसा: कीमत लगभग २९०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी ९०० से २००० मीटर

सफ़ेद वीसा: कीमत लगभग २४०० डालर मक्का और मदीना में मस्जिदे हरम से आवेदक के आवास की दूरी २००० मीटर से अधिक.

पाकिस्तान से २०१२ में हज यात्रा पर जाने वालों की संख्या १७९,२१० तय की गयी है. उपरोक्त कीमतों में हवाई यात्रा का किराया शामिल नहीं, हज के दौरान अधिकतर हाजियों को सऊदी अरब एयरलाईन्स का ही टिकट लेना होता है. उत्तरी अमेरिका और यूरोप से जाने वाले हाजियों का खर्चा एशिया से जाने वाले हाजियों से कहीं अधिक होता है. एक हाजी का औसत खर्चा लगभग ३४०० डालर होता है जिसमें उसकी निजी खरीदारियां शामिल नहीं.



हज के अतिरिक्त साल भर उमरा करने वालों का इन दिनों मुस्लिम नव-धनपशुओं में एक नया क्रेज़ देखा जा रहा है. इस वर्ग को आर्कषित करने के लिये मक्का को लास वेगास की तरह पांच सितारा होटलों से घेर दिया गया है, जिनमें आधुनिक होटल उद्योग में पायी जाने वाली सभी सुख-सुविधायें मौजूद हैं. रमजान के दिनों में दुनिया भर के मुस्लिम धनाढ्य वर्ग आजकल उमरा करता है. खासकर लैलत अल कबीर की रात को पिछले साल हुई तराबी की नमाज में ३० लाख लोगों ने हिस्सा लिया. इस रात को कुरान शरीफ़ की पहली आयत अवतरित हुई थी लिहाजा इसकी बरसी मनायी जाती है. इस आबादी में सऊदी की मुकामी आवाम, जो छुट्टियों में सैर सपाटे के साथ सभी धार्मिक स्थलों का भ्रमण, जियारत और इबादत भी करने की शौकीन हो रही है भी शामिल है. यह संख्या हर साल होने वाले हाजियों की संख्या के बराबर ही है.



उपरोक्त अध्य्यन के आलोक में यह कहा जा सकता है कि इस्लाम के पांच आवश्यक अरकान में अंतिम अरकान हज का आर्थिक महत्व कितना बडा है. क्या यही वह आर्थिक अस्त्र नहीं है जिसके रहते मक्का-मदीना के इर्द गिर्द मानव समाज-सभ्यता हज और उससे जुडे कारोबार के जरिये अपना भरण पोषण करती रही? १९६० के दशक में सऊदी में तेल की आमदनी आने के बाद निश्च्य ही इस उद्योग पर निर्भता घटी, लेकिन आज भी सऊदी अरब की सरकार जितना हज और उससे जुडे संसाधनों पर खर्च करती है, उससे कहीं अधिक आय राजा के खजाने में हर साल जमा हो जाती है. हाजियों को अपने इस धार्मिक कर्मकाण्ड का अर्थशास्त्र समझ में आना चाहिये और अपने आस पडौस, मौहल्ला, कस्बा, शहर और देश के विकास में पहले योगदान करना प्रथम लक्ष्य होना चाहिये बजाये इसके कि अपनी गाढी कमायी को किसी दूसरे मुल्क के अय्याश शासकों के खजाने भरने में लगायी जाये. बंगलादेश, पाकिस्तान, सूडान, इथोपिया, सोमालिया और भारत जैसे गरीब देशों से हज यात्रा पर जाते देख किसी को अगर प्रसन्नता होती है तो यह उसकी मूढ़ता का सबसे बडा उदाहरण ही है जिसे धर्म के कर्मकाण्ड ने मुंह छिपाने की आसान जगह दे दी है. पारलौकिक सुख की भूख ने उसे इतना खुदगर्ज भी बना दिया कि वह मरने के बाद अपनी खुशहाली के लिये उर्जा भी खर्च कर रहा है और धन भी, लेकिन जीते जी इंसान और समाज की वह मदद नहीं करेगा जिससे मानवजाति के गरीबी जैसे कोढ़ को काटा जा सकता है. तीस अरब डालर कोई छोटी रकम नहीं, बहुत से ऐसे देश है जिनकी गरीबी एक झटके में एक ही साल में दूर की जा सकती है.

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रचनाकाल: अक्टूबर २०,२०१२

फ़ोटो: गूगल

Tuesday, October 9, 2012

कौन है मलाला यूसुफ़ज़ई का दुश्मन??


हराम-टुकडखोर पाकिस्तानी तालेबान ने १४ साला मलाला यूसुफ़ज़ई पर कातिलाना हमला करने की ज़िम्मेदारी लेकर दुनिया भर के मुस्लिमों को अपना बदसूरत चेहरा दिखाया है, यह कोई पहला और आखिरी हमला नहीं. यह कोई नई वजह भी नहीं, बस उन्हें औरतों के बीच तालीम का कोई नया उभरता हुआ सितारा गवारा नहीं. हाल में इरान की मुल्लाह हकूमत ने भी विज्ञान, साहित्य, इंजीनियरिंग विषयों के अध्ययन पर महिलाओं के खिलाफ़ पाबंदी लगा दी थी. यह भी कोई न पहला मसला है न आखिरी.

दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर मुल्लाहों की इस गुण्डागर्दी का विरोध कब होगा? १४०० साल से औरत पर हो रहे इस एक तरफ़ा हमले का अंत कब होगा? आखिर कब तक जदीद सोच रखने वालों के खिलाफ़ गज़-गज़ भर दाढी रखने वाले मज़हबी डकैत अपना कब्ज़ा जमाये रखेंगे? आखिर कब तक मुसलमानों में दूसरी ख़तीजा को पैदा होने से रोका जाता रहेगा? आखिर पृथ्वी का यह खित्ता जिस पर कथित इस्लाम का प्रभाव अभी है अथवा रहा है उस पर इल्म की रोशनी का सूरज कब तक बस दूर ही दूर से मुँह चिढाता रहेगा?

पाकिस्तान के जनक जिन्नाह ने इस मुल्लाह नस्ल का मुकाबला बहुत कडे अंदाज़ में किया था, अपनी बहन फ़ातिमा का दाखिला जब उन्होंने बंबई के प्रतिष्ठित स्कूल में कराया था तब बडी दाढि़यां बिदकी थी खासकर उन्हें अपने फ़ैसले से आगाह कराने के लिये जिन्नाह ने फ़ातिमा को स्कूल जाने-आने के लिये घोडों की एक बग्गी बनवाई थी, मुल्लाह के विरोध को जिन्नाह ने अपने फ़ैसले के घोडों तले रौंदा था. आज उसी पाकिस्तान में दाढ़ियों का आतंक सर्वव्यापी हो गया है और जिन्नाह के चाहने वाले अपनी सोच और कर्म की दुकड़ियों में दुबके बैठे हैं, कभी बेनजीर के मरने का इंतज़ार कर रहें तो कभी सलमान तासीर के तो कभी मलाला..

क्या यह प्रश्न सिर्फ़ पाकिस्तान के मुसलमानों भर का है? अगर कोई ऐसा सोचता है तो गलत है, वह उस कबूतर की मानिंद है जो बिल्ली को देख कर आँख बंद कर लेता है यह सोच कर कि बिल्ली चली गयी, बिल्ली जाती जरुर है, लेकिन कबूतर की गर्दन उसके मुँह में साथ होती है.

इस्लाम के अंदर सफ़ाई की कई मुहीमें बडे बडे दानिश्वरों ने चलायी लेकिन आज जो सामने दिखाई दे रहा है उससे साफ़ जाहिर है कि अब न केवल रणनीति ही बदलनी होगी वरन हथियार भी बदलने होंगे, इस कबायली इस्लाम के कैंसर का इलाज अब एक सफ़ल आप्रेशन ही है, आज नहीं तो कल, हम खुद करें या कोई और, इसको पालने पोसने का वक्त चला गया है अब इससे छुटकारा पाना ही होगा.
 
फ़ोटो: तारिक फ़ातेह की वाल से