Wednesday, January 2, 2013

अकबरुद्दीन औवेसी :भारतीय राज्य को चुनौती देता ठाकरे का मुस्लिम संस्करण


हबीबे मिल्लत 42 साला विधायक अकबरुद्दीन औवेसी पुत्र मरहूम सांसद सालारे मिल्लत सलाहुद्दीन औवेसी इन दिनों अपनी जज़्बाती ठाकरे अंदाज़ वाली तकरीर के कारण भारतीय मीडिया, सोशल मीडिया की सुर्खियों में हैं। 24 दिसंबर को आदिलाबाद में कोई 10-15 हजार मुसलमानों की भीड़ को संबोधित करने के बाद मुसलमानों के प्यारे (हबीबे मिल्लत ) ने इलाज कराने के नाम पर लंदन का जहाज पकड़ लिया। नेता,मीडिया, सरकार, भाजपा, अदालत सब हरकत में आ चुके हैं। अकबरुद्दीन की ही माने तो भारत में 25 करोड़ मुसलमान है इनकी सियासी जमात इत्तेहादे मुसलमीन (एम आई एम ) के कुल जमा 7 विधायक हैं और इनके बड़े भाई असद्दुदीन अपने पिता सलाहुद्दीन की पुश्तैनी संसदीय सीट से भारतीय लोकसभा के निर्वाचित सांसद भी हैं। हैदराबाद से सलाहुद्दीन औवेसी 6 बार सांसद रहे जिनका स्वर्गवास 2008 में 77 साल की उम्र में हुआ था। अब आप इन सालारे मिल्लत, हबीबे मिल्लत की सियासी औकात का अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं।
मुसलमानों के इस अशरफ नेता, इनकी सियासी तंजीम के इतिहास का परिचय करना यहाँ आवश्यक है, अतीत से वर्तमान को समझने में पाठकों को आसानी होगी। हैदराबादी मजलिस का इतिहास भारत की आज़ादी से भी पुराना है। भारत की आज़ादी से पूर्व निजाम हैदराबाद उस समय भी दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। निज़ाम हकुमत की अपनी रेलवे, डाक सेवा, संचार, जहाज रानी, एयरलाइन फ़ौज थी। हकुमत की जी डी पी बेल्जियम के बराबर थी।निज़ाम के पास 22,000 फौजियों की सेना थी जिसमे अरब,पठान, रोहिल्ले आदि शामिल थे। निज़ाम ने भारत में विलय करने से इंकार कर दिया था सितम्बर 1948 तक कई वार्ताओं के दौर चले लेकिन निज़ाम टस से मस न हुए। निज़ाम की निजामशाही के खिलाफ़, उसके जमीदारों के खिलाफ आज़ाद भारत में आम जनता का पहला संगठित विद्रोह हुआ जिसका नेतृत्व भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने किया था। उन दिनों मजलिस हुआ करती थी जिसका नेता कासिम रिज़वी था। भाड़े के सैनिकों को रखने में माहिर निजाम की हकुमत बचाने (इस्लाम की हिफ़ाजत पढ़े) के लिए कासिम ने निजाम के आदेश पर एक मिलिश्या का गठन किया जिसे 'रजाकार' के नाम से जाना जाता है। इसकी तादाद उन दिनों 2 लाख तक बतायी जाती है। आम मुस्लिम आबादी पर कासिम की पकड़ भी इस संगठन के जरिये समझी जा सकती है। उस ज़माने में कासिम की तकरीरें और अकबरुद्दीन की तकरीरों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है, बस कुछ तात्कालिक मुद्दे और जुड़ गए हैं। कासिम रिज़वी ने रजाकारों को भारतीय फौजों के खिलाफ लड़ने के लिए वही दलीलें दी थी जो अकबरुद्दीन ने दी है। बारहाल निज़ाम की हकुमत को 17 सितंबर 1948 में पांच दिन का भारतीय फ़ौजी अभियान 'आपरेशन पोलो' उर्फ़ पुलिस एक्शन के सामने घुटने टेक देने पडे। निजाम के अरब कमांडर अल इदरूस को जनरल चौधरी के सामने समर्पण करना पड़ा। इस लड़ाई में भारत के 32 फ़ौजी मरे, निजाम की तरफ से मरने वालो की संख्या 1863 बतायी गयी लेकिन उन हालात में हुई व्यापक हिंसा में मरने वालों की संख्या विभिन्न इतिहासकारों के माध्यम से 50 हजार से दो लाख तक बताई जाती है।
उपरोक्त जानकारियाँ उन लोगों के लिये विशेषकर गौर तलब है जो अकबरुद्दीन के सियासी काफिले को अखिल भारतीय स्वरुप देने की हसरतें पाले बैठे हैं। उन्हें इतिहास के इस पाठ से यह सबक लेना होगा की तत्कालीन निज़ाम और उसकी फ़ौज, उसके संसाधन एक बालक राज्य भारत की फ़ौजी कार्यवाही पांच दिन न झेल सका, अब न निजाम है न उसकी फौज़ बस अकबरुद्दीन के लम्पटई तक़रीरें है और उधर भारत एक विशाल सैन्य शक्ति है अब मुकाबला कैसे होगा ? जंग तकरीरों से नहीं हथियारों से लड़ी जाती है लेकिन अकबरुद्दीन जैसे नेता अनपढ़ और मासूम आवाम को गुमराह करते रहे है। अकबरुद्दीन औवेसी की शक्ल में कासिम रिज़वी की विरासत हैदराबाद में अभी ज़िंदा है। शुक्र है कि आंध्र से बाहर अभी मजलिस को कोई मुसलमान घास नहीं डालता।
अकबरुद्दीन अपने भाषण में अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते नहीं थकते। कोई भी पहली दफा सुनने वाला यह अनुमान लगाएगा कि उन्हें गोली मारने वाला शायद कोई हुकूमत का आदमी होगा। गोली शरीर में होने के किस्से इतने भावनात्मक तरीके से बुने गए जैसे सुनने वालों को लगे कि कौम की किसी जंग में अकबरुद्दीन को 3 गोली लगी, अभी एक गोली बाहर आना बाकी है। मंच से बार-बार कुरआन शरीफ,मौहम्मद का वास्ता देने , नमाज पढ़ने की ताकीद देने वाले इस शख्स की दुश्मनी किसी सरकार से नहीं न किसी गैर मुस्लिम से। मौहम्मद पहलवान नाम के एक शख्स से इनकी जमीन जायदाद को लेकर रंजिश है, उसी सिलसिले में मई 2011 में हुए एक कातिलाना हमले में अकबरुद्दीन ने कौम की खातिर गोलियाँ खाई थी। तब बच्चा-बच्चा इनके लिये रोया, नमाजे पढी काबे में, करबला में दुआएं हुई और तब जाकर हबीबे मिल्लत अकबरुद्दीन की जान बची। न सुनने वाले को शर्म है न कहने वाले को हया है। सच किसी तलवार की तरह सामने है बस थोड़ा तथ्यों पर गौर करना होगा और खुद बा खुद झूठ काफूर हो जायेगा।
अकबरुद्दीन अपने वाहियात तेवरों से पहले भी चर्चा में आ चुके है। तसलीमा नसरीन की हैदराबाद में मुखालफत करने,रुश्दी पर लगे फतवे को लागू करने के मजलिसी फरमान को वह पहले सार्वजनिक कर चुके हैं। जाहिर हैं ऐसे जज्बाती मुद्दों पर आम मुसलमान बहुत खुश होता है, उसकी खुशियों में चार चाँद लगाने के लिए उर्दू प्रैस ऐसे सवालों को हमेशा ज़िंदा रखती है और इन अखबारों को अकबरुद्दीन जैसा आदमी बिकवाने में मदद करता है। जो मुद्दा मुद्दा नहीं होता वह मुसलमानों के जहन में एक बड़ा सवाल बना दिया जाता है। इन बनावटी मुद्दों पर मजलिस जैसी जमाते चुनाव जीत जाती है। इक्कीसवीं सदी में इस्लाम के नाम पर सियासत करने वाले का मकान हैदराबाद के सबसे महंगे इलाके बंजारा हिल में है। जब ये श्रीमान तक़रीर दे रहे हैं तब इस बात पर कोई गौर नहीं करता कि स्टेज पर एक भी महिला नहीं है। इनके पिता का इन्तेकाल हुआ संसदीय सीट खाली हुई तब इन्हें पार्टी में कोई दूसरा काबिल इंसान नहीं दिखा। इनके बड़े भाई असदुद्दीन औवेसी आज अपने पिता की जगह संसद में बैठे हैं और खुद अकबरुद्दीन नेता मजलिस आंध्र प्रदेश विधान सभा सदस्य हैं।
मजलिस की चुनावी सफलता के सफ़र का अध्ययन करने पर कोई भी इस नतीजे पर पहुँच सकता है कि इसमें कांग्रेस का कितना बढ़ा हाथ है? कांग्रेस के समर्थन और गठबंधन के बिना मजलिस का विधान सभा में पहुँचना संभव न था। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता ने देश को एक से बढ़कर एक कद्दावर लम्पट नेता दिए हैं।बाला साहब ठाकरे को मुम्बई में उसके आरंभिक दिनों में यदि कांग्रेस का समर्थन न मिला होता तब क्या शिवसेना जैसी ताकत देश के राजनैतिक नक़्शे पर नज़र आती ? आज अकबरुद्दीन आदिलाबाद में जिस बेअदबी के साथ भारतीय इतिहास के छक्के छुडा चुका है क्या वह संभव होता यदि उसके वालिद सलाहुद्दीन को सांसद बनवाने में कांग्रेस ने अतीत में मदद न की होती ?
कांग्रेस के दिशाहीन और मूल्यरहित राजनीतिक व्यवहार ने देश की राजनीति को बहुत नुक्सान पहुँचाया है। केरल में कम्युनिस्टों के खिलाफ मुस्लिम लीग से समझौता करना उसके वैचारिक दिवालियेपन और राजनीतिक अवसरवाद का परिणाम है जिससे देश की दक्षिण पंथी ताकतों को उसपर हमला करने का अवसर मिला बल्कि मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को पैर जमाने का मौक़ा मिला। अकबरुद्दीन की मौजूदा उवाच को मजलिस की राजनीतिक मोलभाव करने की बढी ताकत के रूप में देखा जाना चाहिए। तेलांगना आन्दोलन अपनी परिणिती पर पहुंचने वाला ही है। यह अच्छा समय है जब राज्य में राजनीतिक स्थितियाँ पूरी तरह से तरल है इसी मौके का फ़ायदा उठा कर मजलिस अपने मुस्लिम वोटों का चेहरा दिखाकर मोल भाव का प्रस्ताव रख रही है। जो सबक उसने पिछले दो दशकों में कांग्रेस से सीखा है वह आज उसी पर पलटवार कर रही है।
उपरोक्त राजनीतिक परिदृश्य के अतिरिक्त मुसलमानों से जुडी,मूलभूत समस्याओं को भी नज़ारा अंदाज़ नहीं किया जा सकता। जो प्रश्न अकबरुद्दीन ने उठाये हैं चाहे वह भूमि वितरण का प्रश्न हो या सरकारी आवासों के आबंटन में मुसलमानों के हिस्से का नदारद होना, गंभीर आरोप तो है ही साथ ही राज्य का मुसलमानों के प्रति रवैय्ये को भी स्पष्ट करता है। ये आरोप सरासर झूठे नहीं। भारत की 10 लाख की फ़ौज में मात्र 29 हजार मुसलमानों की सख्यां होना एक इत्तेफाक नहीं बल्कि किसी योजना का हिस्सा ही है। ठीक इसी तरह दूसरे इदारों में उनकी नौकरियाँ का प्रतिशत असामान्य रूप से कम होना। बैंक के कर्जो में, उसके मौहल्लो के विकास, शिक्षण संस्थाओं का आभाव आदि ऐसी समस्याएँ है जिन्हें न तो राज्य पिछले 65 वर्ष में पूरा कर सका बल्कि इन क्षेत्रों में उसे पीछे धकेलने का प्रयास सजग रूप से हुआ है। साम्प्रदायिक दंगों का अर्थशास्त्र भी मुस्लिम समुदाय के वर्ग हितों पर दक्षिण पंथी हमले के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। समस्याएं है, बहुत विकट प्रश्नों से जूझ रहे इस समुदाय को अकबरुद्दीन जैसे जहरीले भेडिये के सामने धकेलने में किन परिस्थितियों, दलों, सरकारों और राज्य शक्तियों का हाथ है इसकी पड़ताल की जानी चाहिए। यह वही हैदराबाद है जिसने वामपंथी उम्मीदवार आर एन रेड्डी को नेहरू से भी अधिक वोटों से जीता कर संसद में भेजा था, यह वही हैदराबाद है जिसकी चारमीनार सिगरेट मज़दूरों के नेता मखदूम मोईनुद्दीन चुने गए थे, मखदूम इसी शहर से चुनाव जीत कर विधान सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हुआ करते थे। क्या यह वही भूमि नहीं जिसने राजेश्वर राव जैसे नेता कई बड़े नेता इस देश को दिए।
भारतीय राज्य अपने बहुजनो, अल्पसंख्यकों आदिवासियों के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में असफल हुआ है। क्षेत्रीय संप्रभुता को बनाए रखने क नाम पर कभी कश्मीर तो कभी उत्तर पूर्व में अभूतपूर्व शक्ति का प्रयोग करके विभिन्न सामाजिक समूहों को अपने प्रभामंडल से उसने विरक्त किया है। देश की न्यायप्रणाली और उसके राजनीतिक प्रश्रय ने लोकतंत्र का भद्दा मजाक उड़ाते हुए बाल ठाकरे, मोदी, तोगड़िया, आडवानी, सिंघल, ऋतंभरा जैसे खलनायकों को पैदा किया है। अदालतें दोषियों को सजा न दे सकी, अपराधी संसद में राजसत्ता की मलाई चाटते दिखे तब ऐसी निराशा में छत्तीसगढ में आदिवासी अगर हथियार बंद आन्दोलन चला सकते है तब अकबरुद्दीन जैसे अनासिर को नारा इ तकबीर-अल्लाहु अकबर के नारे के साथ राजनीति करने से कौन रोक सकता है?
पूरा देश आज इन तमाम हरकतों को देख रहा है। धर्म का धूर्ततापूर्ण राजनीतिक इस्तेमाल और उसके फायदे -नुकसान आज सभी के सामने है। भगुवा राष्ट्रवाद नरेन्द्र मोदी के विकास की आड़ में दिल्ली कब्जाने की फिराक में लगा है। जो सत्ता में है वह मुस्लिम कट्टरपंथी ताकतों को उकसा कर अपनी रोटियाँ सेकने में व्यस्त है। बहुजन स्वामी ताकतें अपनी स्वार्थ सिद्धी में व्यस्त है, जनवादी ताकतें अपनी लगातार हुई हारों के कारण पस्त है, यही सही वक्त है अकबरुद्दीन के लिए जिसने कहा 'जिसकी लाठी उसकी भैंस'. दक्षिण पंथी हिंदुत्व ताकतों ने ठाकरे को चालीस साल जिन्दा रखा, मोदी पिछले 15 साल से ज़िंदा है। अब मुसलमान दक्षिणपंथी ताकतों की बारी है, पहले उनका ईमान दाऊद पर आया, मज़हबी ऐतबार से ज़ाकिर नायक उनका महानायक बनता जा रहा है (सैंकड़ो हिन्दू बाबा बाबी के महा प्रचार तले यह मुस्लिम आफ शाट है) अब सियासी ठाकरे टाईप नेता की कमी थी इस महाशून्य को अशरफी मुसलमान अकबरुदीन औवेसी ने पूरा करने का ऐलान कर दिया है। फिलहाल वह लंदन से पाकिस्तानी मुहाजिर नेता अलताफ हुसैन की भाँती दूर से नज़ारा कर रहा है।
फोटो सौजन्य : गूगल