Sunday, April 21, 2013

अफ़गान तालेबान और मुस्लिम महिला शिक्षा


 
मानव सभ्यता का संभवत: सर्वप्रथम विश्वविद्यालय 'तक्षशिला विश्वविद्यालय' की मेजबानी करने वाला  देश अफगानिस्तान आज लड़कियों की शिक्षा का सबसे प्रबल विरोधी क्यों बन गया है ? अफगानिस्तान स्थित इस्लामी ताकते लड़कियों के स्कूलों में छात्राओं को कभी जहर देकर, कभी खतरनाक गैस फैलाकर, तो कभी डरा धमका कर ऐसा माहौल पैदा कर रही है कि लड़कियाँ पढ़ न सकें. २००१ के बाद करजई हकूमत के शिक्षा मंत्रालय ने ५५० छात्राओं के स्कूलों को सुरक्षा कारणों के चलते बंद किया है, जिससे देश के ११ प्रान्तों में तीन लाख से अधिक छात्राएं प्रभावित हुई है.

गत गुरूवार को ताखर सूबे की राजधानी तालूकान के बीबी हव्वा गर्ल्स हाई स्कूल की ७४ छात्राओं को एक अन्जानी गैस के रिसाव के चलते अस्पताल में दाखिल कराया गया है, पिछले साल से अब तक ऐसी चार घटनाएँ हो चुकी है. यह इलाका मुल्सिम कट्टरपंथी ताकतों का प्रभाव क्षेत्र माना जाता है. ये काली  ताकते अफगान  समाज की लड़कियों में  शिक्षा के प्रचार प्रसार को लेकर सर्वाधिक चिंतित है..इत्तेफाक से इस्लाम का अफ़ग़ान छाप ब्राण्ड इन दिनों भारत-पाकिस्तान  सहित अन्य कई मुल्को में प्रचलित है..दुनिया को फिर अँधेरे की तरफ ले जाने वाली ताकतों के विरूद्ध जनता का जन युद्ध ही इसे परास्त कर सकता है. अमेरिका का पैदा किया हुआ यह जिन्न  अब उसके काबू से बाहर हो चुका है. इस काले सांप का फन  सिर्फ और सिर्फ जनता के पैर ही कुचल सकते है ...आपकी  गली मुहल्ले में इनसे मिलाता जुलता कोई भी मिले उसका प्रतिकार करना मानव जाति के प्रति सबसे बड़ा उपकार होगा.

http://www.policymic.com/articles/36945/afghan-girls-school-poisoning-74-girls-poisoned-in-suspected-taliban-gas-attack   
फोटो सौजन्य : गूगल             

Saturday, April 13, 2013

तारेक फतह और जामिया प्रकरण : जनवाद पर इस्लामी ताकतों का हमला



बंगलादेश और भारत की आजादी से जुड़े प्रश्नों पर एक किताब लिखने के सन्दर्भ में तारेक फतह इन दिनों कनैडा से भारत यात्रा पर है. दो दिन पहले दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व विद्यालय में उनका एक प्रश्नौत्तर कार्यक्रम होना तय था जिसे कथित इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव के चलते रद्द कर दिया गया. भारत और उसके जनतंत्र को लेकर तारेक फतह जैसे बहुत से बुद्धीजीवी अक्सर भ्रम में रहते है लेकिन जैसे ही कडुवे यथार्थ से दो चार होते है तब  उन्हें जमीनी हकीकत का पता चलता है.

मेरा स्पष्ट मत है कि तारेक फतह भारत में किसी भी जगह  मुसमानो के बीच स्वतन्त्र रूप से अपने विचार सार्वजनिक रूप से नहीं रख सकते. भारत के मुसलमानों में आलोचना सुनने की क्षमता न तो पहले थी न अब है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय हो या जामिया ...दोनों परिसरों में इस्लाम के प्रति किसी आलोचनात्मक आवाज को सुनना संभव ही नहीं है.

दो वर्ष पूर्व मेरठ विश्वविद्यालय परिसर में न्यू ऐज इस्लाम डाट काम  के संस्थापक और सूफी इस्लाम के प्रवक्ता सुल्तान शाहीन को जमाती मुसलमान छात्रों ने ३ मिनट भी नहीं बोलने दिया था, इसी परिसर में इस्लाम के विश्व विख्यात विद्वान  मौलाना वहीदुद्दीन खान साहब के हाथ से माइक छीन लिया गया था और उन्हें बेइज्जत करके परिसर छोड़ने को मजबूर किया गया. अब हालत यहाँ तक पंहुच चुके है कि इस्लाम की धर्म निरपेक्ष व्याख्या करने वाले बुद्धीजीवियों तक के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ा जा रहा है, तब भारत में तारेक फतह जैसे  बेबाक राजनीतिक इस्लाम के कटु आलोचक को भला कैसे सुना जा सकता है? मजे कि बात यह है कि ये तीनो लोग  मुसलमान है. इस्लाम पर  कोई भौतिकवादी, संदेहवादी, यथार्थवादी, नास्तिक, बुद्धीवादी या  मार्क्सवादी बोले इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती. जब मुसलमानों के  कथित शिक्षण संस्थानों का बौद्धिक स्तर इस हद  तक गिर चुका हो, तब आप मुस्लिम समाज के चिंतन के स्तर का अंदाजा खुद ही लगा सकते है. यह भी सच नहीं की सौ प्रतिशत मुस्लिम आबादी की सोच इन फासीवादियो से मिलती हो? लेकिन ऐतिहासिक रूप से बुनियाद परस्त मुस्लिम ताकतों ने लिबरल सोच के मुलसमानो पर अपने भय की गिरफ्त बनाए रखने में कामयाबी पायी है जिसके चलते यह बड़ा वर्ग अपनी चुप्प आपराधिक चुप्पी के जरिये अपना समर्पण कर चुका है. जामिया जैसे  प्रसंगों के माध्यम से इस्लाम  के राजनितिक फासीवाद का भारत सहित विश्वव्यापी चरित्र आसानी से समझा जा सकता है जिसके खिलाफ तारेक फतह की आवाज को दुनिया में हमेशा याद किया जाएगा.   

भारत के मुसलमानों द्वारा कट्टरपंथी इस्लाम की सलफी अवधारणा के पीछे छिपे कारणों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समीक्षा भी करनी होगी और उसकी सरकारी पपड़ताल भी करना उतना ही  जरूरी है. बोलने के मौलिक अधिकार और धार्मिक भावनाओ को भड़काने जैसे लच्छेदार मुहावरों को गौर से अगर देखे तो पायेंगे कि एक तरफ इस विषय पर जनवादी शक्तियो द्वारा इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों के सामने आपराधिक समर्पण दिखेगा दूसरी तरफ मुसलमानों के भीतर फासीवादी शक्तियों द्वारा जनतान्त्रिक अधिकारों के आवरण तले पूरे मुस्लिम समाज में अपनी पकड़ बनाने की एक सतत प्रक्रिया दिखाई पड़ेगी जिसके तार सऊदी अरब और इरान तक से जुड़े नज़र आयेगे.

तारेक फतह के प्रकरण पर वामपंथी ताकते ठीक उसी तरह चुप्पी साधे है जैसे उन्होंने अतीत में सलमान रश्दी और तसलीमा नसरीन के मुद्दे पर अख्तियार की थी. बोलने की आज़ादी के लिए संघर्ष करने से  बड़ा कार्यभार शायद अब उनका चुप रह कर इन मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों का अघोषित समर्थन करना भर रह गया है. लगता है इतिहास से कोई सबक सीखने की आदत अब उनमे नहीं रही न ही समझ. इरान में तुदेह पार्टी ने खुमैनी के शाने बशाने संघर्ष किया और इरान की हकूमत मुल्लाहो के हाथ में आते ही सबसे पहले तुदेह पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का कत्लेआम इस्लाम के नाम पर किया गया जिसमे लगभग २० हजार कम्यूनिस्टो ने शहादते दी. आज भी यह प्रक्रिया रुकी नहीं है. इसी तरह दूसरे इस्लामी मुल्को में कम्यूनिस्टो को गाज़ा में, ट्युनिसिया और मिस्र में बली का बकरा बनाया गया है और आज भी बनाया जा रहा है. क्या राजनीतिक इस्लाम के इस फासीवादी चरित्र का भंडाफोड़ समाजवादी या बहुजनस्वामी ताकते करेगी ? क्या इस प्रश्न पर काग्रेस जैसी मौकापरस्त ताकत के लड़ने के भरोसे बैठा जाएगा ?

हालत जिस तेज़ी से बदल रहे है उसे देख कर यह कहा जा सकता है कि भारत के मुसलमानों को सीरिया के नक़्शे कदम पर धकेलने की तैय्यारी पूरी तरह से चल रही है. केंद्र की सरकार भारतीय मुसलमानों के सलफीकरण और सफविदकरण दोनों ही मुद्दों पर चुप्पी साधे बैठी है. इस अत्यंत खतरनाक खेल में जीत किसी भी पक्ष की नहीं होगी अगर होगा तो सर्वत्र विध्वंस जिसमे कोई भी न बचेगा.

अभी समय आ गया है कि भारत के जनवादी राजनीतिक संगठन इस प्रश्न पर अपनी स्थिती स्पष्ट करे कि क्या सार्वजनिक जीवन में धर्म आधारित राजनीति को अनुमति दी जानी चाहिए ? या उन्हें शट-अप कह कर घर बैठने के लिए विवश किया जाए? जाहिर है यह काम क़ानून से नहीं होगा इसके लिए कड़ा राजनीतिक संघर्ष करने और मज़बूत इच्छा शक्ति की दरकार है. इससे पहले की बहुत देर हो जाए यह कार्य अतिशीघ्र किया जाना चाहिए. तारेक फतह पर जामिया में हुए इस विवाद ने मुझे १९९१ में वहां के लुम्पन छात्रों द्वारा प्रोफ़ेसर मुशीरुल हसन के विरोध की यादे ताज़ा कर दी है जिसे माजूदा विदेश मंत्री  सलमान खुर्शीद का वरदहस्त हासिल था. आज अगर ऐसे मौक़ा परस्त लोग देश के सत्ता संस्थानों के उच्च पदों पर बैठे है तब उनकी हकुमत से इस्लामी फासीवाद के विरुद्ध कोई लड़ाई तेज़ हो इस गलत फहमी में कौन रह सकता है?