Friday, August 5, 2011

रमज़ान: मेरे लिये ज़िल्लतों का महीना क्यों हुआ करता था..?




रमज़ान का महीना जारी है और कहा जाता है कि शैतान बन्द होते हैं, इंसान बदी से बचता है और इस अस्थायी जीवन के बाद जो स्थायी जीवन मरणोपरांत आरंभ होगा, वह सफ़ल हो, उसमें कोई दिक्कत न हो, जन्नत मिले, हूरें मिले, गिलमान मिलें, शराबें, शहद और अपरिमित, इन्द्रयातीत सुख मिले..इसलिये रमज़ान में इबादत करना..रोज़ा रखना, चोरी न करना, झूठ न बोलना, किसी को सताना नहीं, गलत सोहबत न करना, व्याभिचार न करना, पाँचों वक्त की नमाज़ पढना, (तरावी के साथा) यह सब पूरे एक महीने का सालाना कार्यक्रम पिछले १४०० सालों से जारी है. इसके क्या नतीजे निकले, इस मिशन में किसको क्या मिला..जो मर चुके उन्हें क्या क्या मिला? इसका न कोई प्रमाण है न यह कोई अनुसंधान का विषय है.
उपरोक्त उद्देशयों (जीवनोत्तर नहीं) के प्रति किसी को क्या बैर होगा? शैतान को एक महीने के लिये ही क्यूँ बंद रखा जाये? अगर इस एक महीन की कसरत के कोई आध्यात्मिक पहलू हैं तब इसे मनुष्य की कीमिया ही बदल देनी चाहिये थी ताकि यह सात्विकता की चिप ता उम्र आपको बुरे काम से बचा कर सदकर्म की तरफ़ ले जाती रहे, क्या ऐसा हुआ है? शायद नहीं..बल्कि इसके बरक्स इस्लाम की तारीख की बडी बडी फ़ौजी कार्यवाहियां रमज़ान के महीने में हुई हैं, हत्यायें हुई हैं और यह सिलसिला अब तक जारी है, शासकवर्ग ने इस महीने का जम कर इस्तेमाल किया है, मिसाल के तौर पर, सीरिया में असद की फ़ौजें और उनके टैंक आंदोलनरत जनता पर इस वक्त भी आग बरपा रहे हैं. पिछले साल दो नौजवानों को पाकिस्तानी पंजाब के एक कस्बें में जनता ने लाठी-ईंटो से मार कर कुएं पर लटका दिया था, मरने वालों में एक हाफ़िज था, दोनों रोज़े से थे और मारने वाले भी रोज़दार थे और उन्हें मार कर इस पृथ्वी का नरक साफ़ करने का दैवीय कर्म कर रहे थे. क्या रमज़ान के महीने में पाकिस्तान के सरकारी मुलाज़िम रिश्वत नहीं लेते? क्या इस महीने में सुऊदी शेख अय्याशियां बन्द कर देते? क्या दुबई-शारजाह में शराब और देह व्यापार बंद हो जाता?
एक सबसे बडा प्रपंच इस महीने में जो होता है, जिसका मैं बहुत शिकार हुआ हूँ वह यह कि जो ये सब कर्मकांड करता है, वह एक अजीब से फ़ख्र के गुमान में जीता है, वह यह तस्सव्वुर करता है कि वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है और सर्वोपरि भी और जो व्यक्ति यह सब क्रियायें नहीं करता उसे वह दुनिया का सबसे निकृष्ट, नीच और बेकार, काबिले दार व्यक्ति समझता है. उसे बेपनाह हिकारत की नज़र से देखा जाता है, है न अजीब अन्तर्विरोध?
इस बात को सभी मुसलमान जानते हैं कि मुसलमानों का एक बडा वर्ग रोज़ा नहीं रखता और उन्हें जाने अंजाने में इन रोज़दारों की सांस्कृतिक हिंसा और व्याभिचार का सामना होता है. उन्हें अगर खाना खाना है तो यह अहसास दिलाने से नहीं चूका जाता कि यह गुनाह है. अगर वह नमाज़ नही पढने जाता तो उसे बार बार जाकर याद दिलाना और तौंसना नहीं भूलते..शायद ऐसा करने का उनके पास धार्मिक दण्डसंहिता से अधिकार मिला है क्योंकि इस्लाम में असहमति का कोई रास्ता ही नहीं है. एक हिंदू या अन्य धर्म का अनुयायी बाप इस बात को जितनी सहजता के साथ स्वीकार कर लेता है कि उसका बेटा मंदिर नहीं जाता या पूजा पाठ नहीं करता लेकिन मुसलमान बाप के लिये यह प्रश्न जीने-मरने का सवाल बन जाता है. मुसलमान बाप इस विषय पर आमतौर पर सहज रह ही नहीं सकता यदि उसकी औलाद उसके धर्म का अनुनयन न करें.
रमजान के महीने में मुस्लिम होटल अगर बंद न हो तो उनके दरवाजों पर पर्दे टंग जाते हैं, क्यों? आखिर असहमति का इतना सामाजिक बहिष्कार क्यों? ये चौदहवी सदी का सामाजिक प्रारुप आखिर कब तक चलेगा? इन असहमतियों को सामाजिक स्पेस अगर इस सदि में नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा?
मैं और मेरा दोस्त इशरत जब अपने छात्र जीवन में नये नये कम्युनिस्ट हुये तब रोज़े नहीं रखने का फ़ैसला किया..हमारे घरों में दोपहर को चूल्हा न चढता था, रोज़दार दोपहरी में पडे सोते और हम मारे भूख के इधर उधर टटोलते..उसकी अम्मी मरहूम आपा हज्जन जिन्हें मैं कहता..पता नहीं कहां से आती और चुपके से दुबारी में आकर हमें हाथ में रोटियां थमा जाती जिसमें सालन लिपटा होता या चंगेरी थमा जाती, जिसे वह अपने दुपट्टे में या चादर में छुपा कर लाती, हम दोनों भूखे उन रोटियों पर टूट पडते जो सहरी की बनी होती. आपा हज्जन चुपके से कह कर जाती.."भैय्या बुरी बात है, रमजान रखा करो" लेकिन अगले दिन अगर हमें दुबारी में देखती तो उनका सीना पसीजता और हमें खाना नसीब होता.
भूख के प्रति आपकी संवेदना जाग्रत हो, इस लिये रोज़े का महत्व था, कि समाज भूखा है, तुम भी भूखे रहो कुछ दिन..खाद्यान्न कम थे, उनका समायोजन भी रहा होगा, लेकिन कोई जाविया अगर कर्मकांड बन जाये तब उसकी आत्मा मर जाती है और हम मरे हुए नियमों की लाशे ढोते हैं, यही कारण है कि इस मध्यपूर्वी देशों में अन्न का जितना अपमान इस महीने में होता है शायद कभी नहीं होता? जो लोग वहां रह रहे हैं, रहे हैं वह इसकी पुष्टी करेंगे. रमज़ान के नाम पर पूरे एक महीने सरकारी काम एकदम ठप्प पड जाता है, अरबी १० बजे आता और १ बजे चला जाता, प्राईवेट कम्पनी में ३ बजे सब बंद हो जाता, सब दबा कर सोते...अगर इनके पास कोई उद्योग इंडेक्स हो तो पता चल जायेगा कि इस महीने में उत्पादन कितना गिर जाता है? हां खाद्यान्नों की सेल बढ जाती क्योंकि अगर आपकी ग्रोसरी का मासिक खर्च ५०० रु० है तो यह इस महीने में १००० रु० से ज़्यादा होगा, यह है नतीजा..इस्लामी कमखर्ची का. आजकल इफ़्तारी का चलन चल पडा है, जिसके जितनी औकात उससे ज़्यादा खर्च करता, समाज में रुतबा स्थापित करने का एक प्रयाय बन चुका है जिसे सिर्फ़ और सिर्फ़ अश्लीतता ही कहा जा सकता है.
मेरे कस्बे में एक बुजुर्ग रहते थे, कहां से आये, कहां के थे कुछ पता नहीं था, बस एक मस्जिद की कोठरी सी थी जिसमें खाट भी न आती थी...पूरे रमज़ान उससे बाहर न निकलते थे, बस रोज़ा-नमाज़-तिलावत...मुझे इसलिये पता है उनका कि मेरे वालिद मुझ से कई बार वहां खाना भिजवाया करते थे. अब किरदार की जगह दिखावे ने ले ली है, न वो बुजुर्ग रहे न मेरी आपा हज्जन जो बेहतर इंसान थी, बिना किसी दिखावे के, बिना किसी इतराहट के वो हम जैसे असहमति रखने वालों को भी वाजिब जगह देती थी. आपको रोज़ा नमाज करना है, आप स्वतंत्र हैं लेकिन जो नहीं करना चाहते, उनका अगर स्म्मान नहीं कर सकते तो कम से कम अनादर करना बंद करो.
आपसे भी गुजारिश है, मेरे तरह अगर आपके घर में खाने की इंतज़ार में बैठा हो, उसकी सुध लीजिये, यकीन कीजिये आपका रोज़ा सही अर्थों में और पुख्ता होगा. असहमतियां सिर्फ़ विरोध नहीं होती, आपको आगे बढने के लिये वह प्रेरक होती है, चाहे दर्शन हो, या राजनीति अथवा व्यवसाय. जिन समाजों ने जितनी जल्दी यह जान लिया, उनती ही जल्दी उन्होंने प्रगति की.